तकनीकी वजहों से इतर फेसबुक की महत्वाकांक्षा भी फेक न्यूज रोकने की उसकी मंशा पर सवाल खड़े करती है, यह पिछले साल नवम्बर में डोनाल्ड ट्रम्प के अमेरिकी राष्ट्रपति निर्वाचित होने के बाद की बात है. तब मार्क जकरबर्ग ने इस आरोप को खारिज किया था कि फेसबुक की न्यूज फीड और ट्रेंडिंग सेक्शन पर राजनीतिक फायदे के लिए फैलाई गईं फेक न्यूज ने ट्रम्प की जीत में अहम भूमिका निभाई है. उनका कहना था, ‘यह अपने आप में ही बहुत ‘क्रेजी’ आइडिया है कि फेसबुक पर मौजूद फेक न्यूज, जो कि पूरे कंटेंट का केवल छोटा-सा हिस्सा हैं, किसी भी तरह चुनाव को प्रभावित कर सकती हैं.’ क्योंकि उनके अनुसार, ‘वोटर अपने भोगे हुए अनुभव के आधार पर ही फैसले लेता है.’
लेकिन उस वक्त मूर्खतापूर्ण आरोप कहकर खारिज किए गए इस फेक न्यूज का ‘क्रेज’ देखिए. फेसबुक के संस्थापक मार्क जकरबर्ग को जल्द ही न सिर्फ इसके खतरे को स्वीकारना पड़ा बल्कि कुछ ही महीनों में यूजर्स को फेक न्यूज की जांच-परख करना सिखाने के लिए फेसबुक में एक एजूकेशनल टूल भी जोड़ना पड़ा. अमेरिका छोड़िए, फ्रांस में 2017 के अप्रैल माह में हुए आम चुनावों से पहले फेक न्यूज को पहचानने के 10 तरीकों का जिक्र करने वाले पूरे पेज के विज्ञापन वहां के राष्ट्रीय अखबारों में प्रकाशित करवाने पड़े और इंग्लैंड में भी जून माह में हुए आम चुनावों से एक महीना पहले से यह करना पड़ा. ठीक यही विज्ञापन आजकल हमारे राष्ट्रीय अखबारों में प्रमुखता से प्रकाशित किए जा रहे हैं.
ये चारों ही देश – अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैंड और भारत – और साथ में जर्मनी, विश्व मानचित्र पर चिन्हित वे विशाल लोकतंत्र हैं जहां दक्षिणपंथी राजनीति अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए सोशल मीडिया का जमकर सहारा ले रही है. ऐसे में सवाल उठता है कि फेसबुक सिर्फ अपने यूजर्स को ‘करमचंद’ बनाकर फेक न्यूज ढूंढ़ने के कुछ साधारण से नुस्खे बताने तक सीमित है, या इस महामारी को फैलने से रोकने के लिए खुद भी कुछ प्रयास कर रहा है?
खबरों के मुताबिक इंग्लैंड में हुए आम चुनावों से पहले फेसबुक ने वहां के लाखों फेक अकाउंट्स डिलीट किए थे और जो आर्टिकल्स उसके एलगोरिदम को संदिग्ध लगे, उन्हें न्यूज फीड में आगे नजर आने की तरजीह नहीं दी गई. यही तरीका चुनावों से पहले फ्रांस में अपनाया गया और हाल ही में 24 सितम्बर को संपन्न हुए जर्मनी के आम चुनावों से पहले भी फेसबुक ने लाखों फर्जी जर्मन अकाउंट्स डिलीट किए. अमेरिका में तो 2016 के राष्ट्रपति चुनावों के परिणामों से ‘अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत’ नामक कहावत की मारकता समझने के बाद, 2020 के राष्ट्रपति चुनावों को ध्यान में रखकर लगातार ही फेक न्यूज को बढ़ावा देने वाले अकाउंट्स बंद किए जा रहे हैं.
साथ ही फेसबुक ने निजी और थर्ड पार्टी फैक्ट-चेकर्स के साथ भी अनुबंध किया है. सही तथ्यों का पता लगाने के लिए ही बनीं यूके की ‘फुल फैक्ट’ और अंतरराष्ट्रीय स्तर की ‘फर्स्ट ड्राफ्ट’ जैसी संस्थाओं के साथ मिलकर फेसबुक इस साल के शुरुआत से ही न सिर्फ अमेरिका बल्कि बाहरी मुल्कों में मौजूद अपने यूजर्स को गलत खबरें और जानकारियां पढ़ने से बचाने में लगा हुआ है.
अब फेसबुक पर मौजूद किसी भी आर्टिकल के नीचे आने वाले ‘फीचर्ड आर्टिकल्स’ इन्हीं निजी फैक्ट-चैकर्स द्वारा सत्यापित होते हैं और अगर यूजर की फीड में फेक न्यूज वाला कोई आर्टिकल नजर आता है तो उसके नीचे मौजूद फीचर्ड आर्टिकल्स में कई स्त्रोतों से लिए गए मुख्तलिफ लेख श्रृंखलाबद्ध होकर यूजर को यह समझने का अवसर देते हैं कि कौन सी खबर सही है और कौन सी गलत.
इसके अलावा फेक न्यूज का प्रचार-प्रचार रोकने के लिए हाल के समय में जो सबसे बड़ा कदम फेसबुक ने उठाया है वो रुपये-पैसे से जुड़ा हुआ है. अमेरिका से लेकर हिंदुस्तान तक में फेक न्यूज का कंटेंट मुहैया कराने वाली वेबसाइट्स और फेसबुक पेज लाखों-करोड़ों क्लिक्स-लाइक्स-शेयर के दम पर चौंकाने वाला अंधाधुंध पैसा कमा रहे हैं और फेसबुक इसी प्रवृत्ति पर लगाम लगाना चाहता है. उसके नए ऐलान के मुताबिक, अब जिन फेसबुक पेज पर लगातार गलत खबरें प्रसारित होंगी उन फेक न्यूज पेजों को फेसबुक पर विज्ञापन देने की अनुमति नहीं होगी. फेसबुक को लगता है कि ऐसा करने से गलत खबरों का फैलना कम होगा और जो पेज फेक न्यूज का प्रचार-प्रसार करते हैं वे ऐसा करके फेसबुक के माध्यम से धन नहीं कमा पाएंगे.
2016 में हुए अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के दौरान सर्बिया से लगे हुए और कम पहचाने जाने वाले देश मेसिडोनिया का एक कस्बा इसीलिए सुर्खियों में आया था, क्योंकि वहां से ट्रम्प समर्थित फेक न्यूज की लगभग 100 वेबसाइट्स संचालित हो रही थीं. इनमें छपी गलत खबरें लगातार दुनियाभर में ट्रेंड हो रही थीं, लेकिन यह काम उस कस्बे के युवाओं ने ट्रम्प का समर्थक होने की वजह से नहीं किया था – ट्रम्प या हिलेरी से उन्हें कोई लेना-देना नहीं था – बल्कि इन खबरों से हो रही अथाह कमाई के लिए ऐसा किया जा रहा था.
साफ है, कि फेसबुक तमाम अनोखे जतन कर खुद को फेक न्यूज मुक्त रखना चाहता है. लेकिन ज्यादा साफ यह है कि वो चाहकर भी इस महामारी को नियंत्रित नहीं कर पा रहा है. जिस संस्था के पास अपनी मर्जी से अकाउंट्स, पेज और लिंक्स को बैन या डिलीट करने की आजादी है, और साथ ही सैकड़ों महाकुशल बुद्धियां इन फर्जी खबरों को पकड़ने वाले सटीक एलगोरिदम का निर्माण करने के लिए मौजूद हैं, वह संस्था येन-केन प्रकारेण भी खुद को स्वच्छ नहीं रख पा रही है. ठीक हमारे प्यारे भारत की तरह.
ताजा मामला पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा से जुड़ा है, जो यह भी बताता है कि जिंदगी आखिरकार एक गोल चक्कर ही है और जहां से वो शुरू होती है, कभी न कभी वहीं आकर दोबारा खड़ी हो जाती है. 2012 में जिस सोशल मीडिया, और खासकर फेसबुक की मदद लेकर ओबामा दोबारा अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे, 2016 के चुनावों में उसी फेसबुक ने विरोधी खेमे का तरफदार होकर डेमोक्रेटिक पार्टी के परखच्चे उड़ा दिए. फेसबुक पर रिपब्लिकन ट्रम्प समर्थित फेक न्यूज का प्रचार-प्रसार करने के आरोप तभी से लगने शुरू हुए और एक साल होने को आया, इन आरोपों की श्रृंखला में अब नए-नए रहस्योघाटन होते जा रहे हैं.
कुछ दिन पहले ही सामने आया है कि फेसबुक ने तकरीबन 3000 रूसी विज्ञापनों की जानकारी अमेरिकी कांग्रेस से साझा की है, क्योंकि उसे संदेह है कि इनका उपयोग किसी रूसी इंटरनेट रिसर्च एजेंसी ने राष्ट्रपति चुनाव में ट्रम्प के पक्ष में माहौल बनाने के लिए किया था. साथ ही यह खबर भी सामने आई और प्रमुखता से छाई रही कि ओबामा ने निजी तौर पर मार्क जकरबर्ग से फेक न्यूज के खतरे को गंभीरता से लेने को कहा था. यह बात आज से तकरीबन 10 महीने पहले की है, जब ट्रम्प चुनाव जीत चुके थे और जकरबर्ग ‘फेसबुक पर प्रचारित फेक न्यूज ने ट्रम्प की चुनाव में मदद की’ जैसे आरोपों को ‘क्रेजी’ कहकर खारिज चुके थे.
19 नवम्बर 2016 को हुई उस बातचीत में फेसबुक का बचाव करते हुए जकरबर्ग ने ओबामा से कहा था कि फेक न्यूज को नियंत्रित करने का उनके पास कोई आसान तरीका नहीं है. हालांकि बाद के महीनों में फेसबुक ने कई जतन करने शुरू किए और ‘दिखने’ वाली गंभीरता दिखाई भी – जकरबर्ग ने अपने ‘क्रेजी’ वाले बयान पर अफसोस भी जताया – लेकिन अब यह डिस्कोर्स काफी चर्चा बटोर रहा है कि जिस आभासी मंच पर दो अरब यूजर हर महीने एक्टिव रहते हैं, उस फेसबुक पर इनफॉर्मेशन का फ्लो इतना तेज हो चुका है कि मार्क जकरबर्ग भी फेक न्यूज को शत-प्रतिशत काबू में नहीं कर सकते.
ऐसा भी हो रहा है कि अपने नियम-कायदे लगाकर जिन गलत खबरों को फेसबुक अपने मंच पर फेक न्यूज बतलाने की कोशिश कर रहा है, उन्हें ऐसा लेबल लगते ही पहले से ज्यादा पढ़ा जाने लगा है. कई बार जो खबरें सत्ता के विरोध में हैं लेकिन एकदम जायज हैं, उन्हें भी फेसबुक ब्लॉक कर रहा है और कई बार बिना वजह दिए ही वाजिब बात करने वाले लोगों के प्रोफाइल सस्पेंड कर रहा है.
साथ ही फेसबुक की आलोचना इसलिए भी हो रही है कि वो जानबूझकर फेक न्यूज को जड़ से नहीं उखाड़ना चाहता, क्योंकि ऐसा करते ही वो अपने करोड़ों यूजर्स खो देगा और क्लिक-बेट आर्टिकल्स की मौजूदगी की वजह से जो ट्रैफिक उसे रोज मिलता है, उससे जनरेट होने वाला धन भी कम बरसने लगेगा. एक आंकड़े के मुताबिक, पिछले साल जब अमेरिका में चुनाव हुए थे, उस साल फेसबुक का यूजर बेस 17 प्रतिशत बढ़ा था और रिवेन्यू 47 प्रतिशत. जाहिर है, इतनी ज्यादा धन प्राप्ति की वजह फेक न्यूज भी है!
फेक न्यूज को शत-प्रतिशत काबू न कर पाने की एक दूसरी वजह फेसबुक की अति महत्वाकांक्षा भी है. जैसा कि न्यूयॉर्क टाइम्स का एक लेख बताता है () कि कुछ वक्त पहले तक मार्क जकरबर्ग फेसबुक को एक ऐसा ‘ग्लोबल न्यूज डिस्ट्रीब्यूटर’ बनाना चाहते थे जो कि मशीनों के द्वारा संचालित हो, न कि उन इंसानों द्वारा जो समूचे कंटेंट के सूक्ष्मतम हिस्से पर भी नजर रखें और सही-गलत के आधार पर उसे न्यूज फीड में बनाए रखने या न रखने का फैसला लें. चौतरफा आलोचनाओं के बाद अब भले ही एलगोरिदम और इंजीनियरों के ऊपर तरजीह देते हुए इनहाउस संपादकों की फौज तैयार की गई है, और थर्ड पार्टी फैक्ट-चेकर्स की मदद ली जा रही है, लेकिन जिस मात्रा की इनफॉर्मेशन फेसबुक पर रोजाना मौजूद रहती है, उसका सामना करने के लिए यह इंतजाम एकदम नाकाफी हैं.
आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को लेकर भी जकरबर्ग का प्रेम जगजाहिर है, और हो सकता है कि निकट भविष्य में जब आलोचनाओं का ज्वारभाटा थम जाए, तब मार्क और उनका मार्का फेसबुक खबरों को वापस मशीनों के नियंत्रण में सौंप दे. जिस तरह अमेरिकी चुनावों से पहले एलगोरिदम और इंजीनियर ही फेसबुक के ट्रेंडिंग सेक्शन को चला रहे थे, क्या पता एक बार फिर खबरों को मशीन और मशीनी भाषा के भरोसे छोड़ दिया जाएगा.
मुख्य समस्या शायद यही है भी कि एक बिलियन से ज्यादा लोग रोज जिस फेसबुक का उपयोग करते हैं, वो न तो एक न्यूज आर्गनाइजेशन है और न ही पत्रकारिता के सिद्धांतों से उसका कोई वास्ता है. उसे बस लोगों को आपस में ‘कनेक्ट’ करने वाली विचारधारा को अगले लेवल पर ले जाना है और इसके लिए वो एंटरटेनमेंट के अलावा न्यूज ‘कंटेंट’ का सहारा ले रहा है. जैसा कि लगभग एक साल पहले किसी सवाल के जवाब में मार्क जकरबर्ग ने तपाक से कहा था, ‘हम एक टेक कंपनी हैं, मीडिया कंपनी नहीं.’ साफ है, जो कंपनियां खबरें बनाने और खोज निकालने की जगह सिर्फ खबरें बेचने के कारोबार में होंगीं, उनके यहां फेक न्यूज को फलने-फूलने से पूरी तरह कभी नहीं रोका जा सकेगा.
और सोचिए, जब अमेरिका जैसे मुक्त लोकतंत्र में फेसबुक पर व्याप्त फेक न्यूज नामक महामारी को खत्म नहीं किया जा पा रहा, तो भारत में तो आने वाले वक्त में हाल बदतर ही होने वाले हैं. इसलिए खबरों को समझदारी से चुनिए और जांच-परख करने के बाद ही उन्हें पढ़िए-सुनिए-गुनिए.