देहरादून: महान ग्रन्थ गीता के नवें अध्याय के बाईसवें श्लोक में स्वयं भगवान श्री कृष्ण वचन करते हैं कि, जो भक्त अनन्य भाव से मात्रा मेरा ही चिंतन, मेरा ही भजन, मेरी ही उपासना किया करते हैं एैसे भक्तजनों का योग तथा क्षेम मैं स्वयं वहन किया करता हूं। यहां पर अनन्य से अर्थ है, जो कि किसी अन्य का नहीं वरन एकमात्रा प्रभु को ही समर्पित होते हैं, उन्हें ही अनन्य कहा जाता है। योग से अर्थ है अप्राप्त वस्तुओं की प्राप्ति तथा क्षेम का तात्पर्य है प्राप्त वस्तुओं की रक्षा। मन में या तो संसार बसाया जाता है या फिर इसमें करतार (ईश्वर) का ही बसेरा हुआ करता है। संसार को बसाने वाले संसार में रहकर भी कुछ हासिल नहीं कर पाते और आजीवन और अधिक पाने की तृष्णाओं में अपने जीवन को समाप्त कर बैठते हैं। दूसरी ओर करतार को मन रूपी सिंहासन पर विराजमान करने वाले भक्त सदा-सर्वदा दिव्य आनन्द की अवस्था में विचरण करते हुए करतार की असीम अनुकम्पाओं को प्राप्त किया करते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में भगवान मनुष्य का मार्गदर्शन करते हुए उपरोक्त वचन कर रहे हैं। भगवान की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा इंसान का मैं अर्थात उसका अहंकार ही है। जहंा अहंकार तिरोहित होने लगता है वहीं से प्रभु का आगमन आरम्भ होने लगता है। इस पर कहा भी गया-
पहले मैं था हरि नांहिं, अब हरि हैं मैं नांहिं
प्रेम गली अति सांकरी, या में दो न समाहिं
वास्तव में ईश्वर से मिलाने वाली प्रेम की गली अत्यन्त संकरी हुआ करती है, इसमें या तो अहंकार समा पाता है या फिर परमात्मा। भगवान को प्राप्त करने के लिए शीश की बलि चढ़ानी होती है। यहां भी शीश (सर) को अहंकार का प्रतीत बताया गया है। शास्त्रा भी कहते हैं कि संसार में भगवान के साथ मिलन करवाने वाले पूर्ण गुरू की प्राप्ति दुर्लभ होती है। एैसे ब्रह्म्निष्ठ सद्गुरू द्वारा ही जीव अपने मूल ईश्वर के साथ जुड़ पाता है और गुरू ही अपने पावन ब्रह्म्ज्ञान के प्रचण्ड आलोक में शिष्य को भगवान का दीदार करवाते हुए उसे अनन्य भक्ति का वरदान प्रदान किया करते हैं। प्रेम की डोर से ही ईश्वर को बांधा जा सकता है और यह पावन और सशक्त डोर मात्रा पूर्ण गुरू ही अपने शरणागत् को प्रदान किया करते हैं। प्रेम के ही सम्बन्ध में शास्त्रा में आता है-
प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाए
राजा-प्रजा जेहि रूचे, दिये शीश लई जाए
दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की देहरादून शाखा के आश्रम सभागार में प्रत्येक रविवार को आयोजित किए जाने वाले साप्ताहिक सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम में आज एक और कड़ी को जोड़ते हुए एैसे ही कार्यक्रम का आयोजन किया गया। सद्गुरू आशुताष महाराज की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका विदुषी साध्वी सुभाषा भारती जी द्वारा उपरोक्त उद्बोधन के माध्यम से संगत को ईश्वर की शाश्वत् भक्ति तथा उनसे किए जाने वाले निष्काम प्रेम को रेखांकित किया गया।
प्रत्येक सप्ताह की भांति आज भी कार्यक्रम का शुभारम्भ भावभीने भजनों की प्रस्तुति देते हुए किया गया। मंचासीन संगीतज्ञों द्वारा अनेक भजन संगत के समक्ष रखे गए। ‘‘करूणा अपनी हम पे प्रभु तुम करो, अपने चरणों में हमको रख लो………..’’, ‘‘दिया जो उसने सहारा, सहारे ही सहारे हो गए………’’, ‘‘हम तुम्हारे थे प्रभु जी, हम तुम्हारे ही रहंेगे……..’’ तथा ‘‘सत्गुरू मेरे तेरे बिना, जीना मेरा मर जाना ही होगा………’’ इत्यादि भजनों पर भक्तजन करतल ध्वनि के साथ झूम उठे।
भजनों में छुपी ईश्वरीय प्रेम की पराकाष्ठा को संगत के समक्ष उजागर करते हुए मंच का संचालन साध्वी ममता भारती जी के द्वारा किया गया।
अपने उद्बोधन को आगे बढ़ाते हुए सुभाषा भारती जी ने बताया कि ईश्वरीय मार्ग में प्रभु के अनुशासन में चलने वाला और अपने गुरूदेव की आज्ञा में आगे बढ़ने वाला शिष्य ही परमात्मा को प्रिय लगता है। भक्ति मार्ग में खान-पान का भी अपना महत्व हुआ करता है क्यांे कि ‘जैसा खाए अन्न वैसा बने मन, जैसा पिए पानी वैसी बने वानी’ यह हमारे महापुरूषों का सटीक कथन है। मनुष्य सात्विक भोजन और शु( जल को यदि ग्रहण करता है तो मानसिक और शारीरिक रूप से वह स्वस्थ बनता है। तामसिक भोजन और अशु( जल उसे बीमार तो करता ही है साथ ही उसके मन में अनेक विकारों-काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईष्र्या-द्वष का भी संचार किया करता है। भक्ति पथ पर मन का ही सारा खेल है। महापुरूषों ने इसीलिए मन की शु(ि और इसकी पवित्राता पर विशष ध्यान देने की बात कही है। भगवान दया सिंधु हैं और दया सिंधु का कृपा पात्रा यदि बनना है तो दया शब्द को उल्टा अर्थात दया को याद बनाना होगा। परमात्मा की याद ही जीव को उनकी दया का पात्रा बनाती है। शास्त्रा इस याद की महिमा गाते हुए कहता है-
याद है तो आबाद है
भूला है तो बरबाद है
जब तक जीव परमात्मा को जान नहीं लेता, उन्हें देख नहीं लेता, उनसे मिल नहीं लेता तब तक उनकी याद का जन्म भी नहीं हो पाता। इसके लिए समस्त धर्म-ग्रन्थ, पवित्रा शास्त्रा एक ही तरफ इशारा करते हैं और वे हैं श्रोत्रिय ब्रह्म्निष्ठ पूर्ण सद्गुरूदेव। सद्गुरू सनातन काल से जगत की वह सशक्त, समर्थ सत्ता हैं जिनके कर-कमलों में ईश्वरीय साम्राज्य की चाबी है। यह चाबी उसी अनन्य शिष्य को प्राप्त होती है जो गुरू की आज्ञा में रहकर अपने जीवन को चलाता है।
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