यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ की चार धाम यात्रा एक अहम सालाना कार्यक्रम है। इस दौरान ऋषिकेष से इन तीर्थस्थलों को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों का 900 किलोमीटर का हिस्सा बेहद व्यस्त रहता है। लेकिन हकीकत ये है कि कई स्थायी बाधाओं के चलते राष्ट्रीय राजमार्गों के इस हिस्से का पूरा इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है और इनकी लंबे समय से उपेक्षा की जा रही है। इसकी वजह से ना सिर्फ राजस्व की कमाई बल्कि आसपास के इलाकों पर भी असर पड़ रहा है। इसे नियति मानकर स्वीकार कर लिया गया है। लेकिन अगर इच्छाशक्ति हो तो अगली यात्रा से पहले हालात बदल सकते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्रे मोदी ने पिछले साल 900 किलोमीटर लंबी चार धाम राजमार्ग विकास परियोजना का शिलान्यास किया था। इस मार्ग को उन्नत और बेहतर बनाने वाले ये महत्वाकांक्षी योजना समय के साथ पूरी होगी। लेकिन इस बीच मौजूदा सड़कों का सीमित क्षमता के साथ इस्तेमाल हो पा रहा है। और इसकी वजह ये है कि इन बने पुल राष्ट्रीय राजमार्ग के मानकों से कमतर हैं। इंटरकॉन्टिनेंटल कंसलटेंट एंड टेक्नोक्रेट्स (आईसीटी) की एक टीम ने अपने हाल के एक दौरे में पाया कि डबल लेन वाले चार धाम हाइवे पर 32 पुल सिंगल लेन वाले हैं। इससे राजमार्ग के 70 टन के मानक के मुकाबले इन पुलों पर 10 से 16.5 टन की ढुलाई ही संभव हो पाती है।
सिंगल लेन वाले इन 32 पुलों में 13 एनएच 134 धरासू-यमुनोत्री मार्ग, धरासू-गंगोत्री एनएच 34 मार्ग पर पांच, रुद्रप्रयाग-गौरीकुंड एनएच 107 पर आठ और ऋषिकेश-बद्रीनाथ एनएच 7 पर छह पुल हैं।
सिंगल लेन वाले इन पुलों का ट्रैफिक पर कई तरह से असर पड़ रहा है। डबल लेन वाले मार्ग पर सिंगल लेन वाले पुल से ट्रैफिक ठहर जाता है। गाड़ियों को सामने से आने वाली गाड़ियों के गुजरने का इंतजार करना पड़ता है। जब ट्रैफिक बढ़ता है तो पुल के दोनों तरफ से किसी व्यक्ति को ट्रैफिक नियंत्रित करना पड़ता है। टीम ने देखा कि 5 पुलों पर 10 लोग लगाने पड़े थे। तीन शिफ्ट के आधार पर हर दिन 30 व्यक्तियों की ड्यूटी लगानी पड़ती है। इन संसाधनों की बचत की जा सकती है। इसकी वजह से पुलों के पास गाड़ियों की कतारें लग जाती हैं, जो सुरक्षा के लिहाज से ठीक नहीं है। सबसे अहम बात है कि इन पुलों की वजह से यात्रा का समय करीब 25ः बढ़ जाता है। साथ ही ईंधन की खपत और कार्बन प्रदूषण में भी बढ़ोतरी होती है।
इससे भी बड़ी दिक्कत ये है कि माल ढुलाई की क्षमता 10 से 16.5 टन तक सीमित हो जाती है। वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय राजमार्गों के लिए इंडियन रोड कांग्रेस (आईआरसी) का मानक कम से कम 70 टन का है, जो 100 टन तक हो सकता है। कम क्षमता की वजह से चार धाम राजमार्गों पर ट्रक छोटे होते हैं और परिवहन लागत का पूरा इस्तेमाल नहीं हो पाता। कम विकसित इलाकों में भारी निर्माण उपकरण या मशीनरी पहुंचाई नहीं जा सकती। इससे निर्माण कार्य और विकास कार्य सीधे तौर पर प्रभावित होता है। कई राजमार्ग देश की सीमाओं से भी जुड़े हैं। ऐसे में इन बाधाओं को दूर करना बेहद जरूरी है। ?
ऐसा क्यों हुआ, इसे समझना मुश्किल नहीं है। इन रास्तों के ज्यादातर हिस्सों को सिंगल लेन से डबल लेन का बनाया गया। लेकिन पुलों को उन्नत करने का काम सुस्त रहा। अधिकतर मामलों में जिन स्थानों पर पुल बना है, वहीं एकमात्र जगह थी। वैकल्पिक जगह पहाड़ियों में है, जहां निर्माण आसान नहीं है। इनमें लंबा रास्ता, पत्थरों की कटाई और लंबे पुल बनाने जैसी मुश्किलें हैं। दूसरा कारण बाढ़ और चट्टाने खिसकने की दिक्कत है। पहले डबल लेन वाले पुल बह गए हैं तब आपातकालीन कदम के रूप में बैली ब्रिज का ही विकल्प बचता है हालांकि ये सही उपाय नहीं है। इसकी वजह ये है कि इनसे सिंगल लेन में आवाजाही संभव है और एक बार में एक ट्रक ही जा सकता है। साथ ही 70 टन के बदले 18 से 24 टन की की ढुलाई ही संभव हो पाती है। रुद्रप्रयाग में एक बेली ब्रिज से तो सिर्फ 12 टन की ढुलाई संभव है। इसके करीब एक वैकल्पिक पुल का निर्माण कई सालों से अटका है। हालांकि ये भी सिंगल लेन पुल है। दोनों पुल शुरू हो जाने के बावजूद भी 70 टन के मानक का पालन नहीं हो पाएगा।
इन पुलों की वजह से राजमार्ग का क्षमता से कम इस्तेमाल हो पा रहा है। कुछ ट्रैफिक कम करने के लिए दूसरों के मुकाबले ज्यादा अहम हैं। क्या चार धाम मार्ग के योजनाबद्ध उन्नतिकरण का इंतजार करना चाहिए ? या क्या अगले साल यात्रा सीजन से पहले ट्रैफिक और व्यावसायिक गतिविधियों में सुधार के उपाय किए जा सकते हैं ? मेरी राय मैं ऐसा बिल्कुल हो सकता है। कम समय में अहम पुलों को आपातकालीन पुलों के इस्तेमाल से बदला जा सकता है। ट्रैफिक में कम से कम बाधा पहुंचाए मौजूदा बैली ब्रिज के बजाए इन पुलों को बनाया जा सकता है। ट्रैफिक में बाधा पहुंचाए बगैर शुरुआती तैयारी का काम किया जा सकता है।
इस समाधान के लिए पूरी सड़के के उन्नतिकरण के इंतजार की जरूरत नहीं है, जिसमें कई साल लग सकते हैं। इस बीच अहम पुलों की पहचान करके उन्हें क्विक लॉन्च ब्रिजों से बदला जा सकता है, जिससे माल ढुलाई की क्षमता तय मानक तक हो सकेगी। शुरुआती तैयारी वाले काम के बाद ज्यादा से ज्यादा एक महीने में इस पुल को बनाया जा सकता है। इसे सुस्त सीजन में आसानी से किया जा सकता है।
इसके पहले पिछले साल मार्च में यात्रा सीजन से पहले सोनप्रयाग, उत्तराखंड में पहला नई पीढ़ी का आपातकालीन पुल बना। ऐसे में इस तरह के पुलों को बनाने का अनुभव भी है, जिससे ढुलाई क्षमता तत्काल बढ़ सकती है। इनकी क्षमता 70 टन की है और ये स्थायी पुलो की तरह 70 साल तक चलते हैं। अगर इन पुलों की कहीं और जरूरत हो तो उन्हें हटाकर दूसरी जगह भी बनाया जा सकता है। ये एक और बड़ी सुविधा है। थोड़ी ज्यादा लागत वाले इन पुलों के बहुत फायदे हैं।
प्राकृतिक आपदाओं के समय डबल लेन वाले आपातकालीन पुल बनाने पर ज्यादा जोर देना चाहिए। आपातकाल में बेली ब्रिज से ट्रैफिक जाम होगा और उन्हें हटाना भी मुश्किल है। ऐसे में चार धाम मार्ग पर ट्रैफिक जाम खत्म करने और ढुलाई बढ़ाने के लिए इन पुलों को बनाना बेहद जरूरी है।
वास्तव में राष्ट्रीय राजमार्गों के कमतर इस्तेमाल के मामले सभी सीमावर्ती राज्यों में नजर आते हैं, जिन्हें तुरंत दुरुस्त करने की जरूरत है। इससे इन राज्यों में विकास और व्यावसायिक गतिविधियों में तेजी आएगी।
लेखक- श्री के के कपिला, चेयरमैन, इंटरनेशनल रोड फेडरेशन