नई दिल्ली। मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर के सभी पक्षों के साथ बातचीत के लिए तैयार हो गई है। सोमवार को गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने पूर्व आईबी प्रमुख दिनेश्वर शर्मा को केंद्र का प्रतिनिधि नियुक्त किया। उन्हें कैबिनेट सेक्रेटरी का दर्जा दिया गया है। गृह मंत्री ने अपने बयान में सबसे महत्वपूर्ण बात जो कही, वह है- आजादी की। राजनाथ सिंह ने कहा कि दिनेश्वर शर्मा खुद इस बात को तय करेंगे कि उन्हें किससे बात करनी है, इसके लिए वह पूर्णरूप से स्वतंत्र हैं। यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि राजनाथ से अलगाववादियों के साथ बातचीत के बारे में पूछा गया तो उन्होंने संभावनाओं से इनकार नहीं किया।
क्या ऑपरेशन ऑल आउट के बीच होगी बातचीत?
क्या ऑपरेशन ऑल आउट के बीच बातचीत संभव है?
वैसे यह पहली बार नहीं है जब केंद्र की ओर से कश्मीर मसले पर कोई प्रतिनिधि नियुक्त किया गया हो। लेकिन मोदी सरकार के कार्यकाल में यह पहली बार जरूर हो रहा है। इसे मोदी सरकार की कश्मीर नीति में बड़े रणनीतिक बदलाव के तौर पर देखा जा रहा है। इसमें शक नहीं है कि फैसला बड़ा है, लेकिन देखना बस यह है कि यह निर्णय बैकफुट पर आने का संकेत है या इसमें कुछ दूरदर्शिता भी है? क्या सरकार के पास कोई प्लान है? घाटी में चल रहे ऑपरेशन ऑल आउट के बीच बातचीत हो सकेगी? बातचीत आखिर किससे होगी? अगर अलगाववादियों से बात करने की मंशा है तो उनमें से तो ज्यादातर के तार आतंकियों से जुड़े हैं, तो क्या ऐसे लोगों से बात करना सैद्धांतिक तौर पर ठीक है?
अलगाववादियों से डील की तैयारी तो नहीं?
कहीं अलगाववादियों से डील की तैयारी तो नहीं?
मोदी सरकार का कार्यकाल करीब 3 साल से ज्यादा का हो चुका है। कश्मीरी अलगाववादियों को लेकर केंद्र सरकार ने अपना कड़ा रुख पहली बार तब अपनाया था, जब पाकिस्तान के साथ अलगाववादियों की बातचीत को भारत ने ना कहा और इस वजह से भारत-पाक के बीच वार्ता तक रद्द हो गई थी। इसके बाद घाटी में एक के बाद एक आतंकी हमले और जवाब में आतंकियों के खिलाफ ऑपरेशन ऑल आउट शुरू किया गया। इसके बाद अलगाववादियों के खिलाफ रेड और आतंकी के कनेक्शन के खुलासे हुए। किस कश्मीरी अलगावादी नेता के बच्चे विदेश में पढ़ते हैं। किसके पास कितनी प्रॉपर्टी है। आतंकियों से किस-किस ने पैसा खाया। पत्थरबाजों को किसने पाला पोसा। ये सब खुलासे मोदी सरकार के कार्यकाल में ही हुईं। रक्षा विशेषज्ञों का एक वर्ग इससे नाराज दिखा तो कई विशेषज्ञों ने इस नीति की तारीफ भी की।
बहरहाल, वह एक अलग मसला है, लेकिन बड़ी बात यह है कि इतनी कार्रवाई के बाद अलगाववादी मोदी सरकार के प्रतिनिधि से आखिर बात क्यों करेंगे? दूसरा सवाल- सरकार इतनी तो नादान नहीं कि वह इस बात को नहीं जानती कि अलगाववादियों से बात करने बेकार है तो अब क्यों बातचीत का फैसला लिया गया? कहीं इसके पीछे कोई नई डील करने की तैयारी तो नहीं? हो सकता है केंद्र के पास अलगाववादियों को ट्रैक पर लाने के लिए कोई नई रणनीति हो, कोई ऑफर, कोई प्लान, जिसे नए प्रतिनिधि के जरिए सरकार अलगाववादियों तक पहुंचाना चाहती हो। शायद कोई ऐसा प्लान जो अलगाववादियों के लिए आखिरी रास्ते के तौर पर बनाया गया हो। जिससे उन्हें मुख्यधारा में लाने का अंतिम उपाय किया जा सके, क्योंकि इसमें तो शक नहीं कि वे दबाव में हैं। ऐसे में क्या सरकार उन्हें अपने पक्ष में झुका पाएगी, यह देखना बेहद रोचक रहेगा?
ये भी हो सकती है बातचीत के पीछे की वजह
ये भी हो सकती है बातचीत के फैसले के पीछे की वजह
मोदी सरकार लंबे समय से इस बात को लेकर आलोचना के केंद्र में हैं कि उसने कभी अलगाववादियों के साथ बातचीत के रास्ते खोले ही नहीं। इस समय घाटी में सेना मजबूत स्थिति में है। लगातार आतंकी ढेर किए जा रहे हैं। अलगाववादी नेता जांव एजेंसियों के घेरे में हैं। ऐसे समय में कोई क्यों सरकार के प्रतिनिधि से बात करेगा। शायद केंद्र सरकार उस आलोचना से बचना चाहती है कि उसने शांति के लिए कभी कोई प्रयास नहीं किया। पूर्व आईबी प्रमुख दिनेश्वर शर्मा को प्रतिनिधि बनाकर मोदी सरकार ने गेंद अलगाववादियों के पाले में फेंक दी है। अब बदनामी होगी तो सरकार आरोप उनके सिर डाल सकती है और अगर बातचीत सफल हुई तो उसे श्रेय मिलना निश्चित है।
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