क्या भारत के संविधान से ‘सेक्युलर’ शब्द हटाया जा सकता है, जैसी इच्छा केंद्रीय राज्य मंत्री अनंतकुमार हेगड़े ने जताई है?
कर्नाटक के कोप्पल ज़िले में रविवार को ब्राह्मण युवा परिषद के कार्यक्रम में बोलते हुए ‘सेक्युलरिज़्म’ का विचार उनके निशाने पर था.
उन्होंने कहा, “कुछ लोग कहते हैं कि ‘सेक्युलर’ शब्द है तो आपको मानना पड़ेगा. क्योंकि यह संविधान में है, हम इसका सम्मान करेंगे लेकिन यह आने वाले समय में बदलेगा. संविधान में पहले भी कई बदलाव हुए हैं. अब हम हैं और हम संविधान बदलने आए हैं.”
उनके शब्द थे, “सेक्युलरिस्ट लोगों का नया रिवाज़ आ गया है. अगर कोई कहे कि वो मुस्लिम है, ईसाई है, लिंगायत है, हिंदू है तो मैं खुश होऊंगा. क्योंकि उसे पता है कि वो कहां से आया है. लेकिन जो खुद को सेक्युलर कहते हैं, मैं नहीं जानता कि उन्हें क्या कहूं. ये वो लोग हैं जिनके मां-बाप का पता नहीं होता या अपने खून का पता नहीं होता.”
संविधान में अब तक सौ से ज़्यादा संशोधन किए जा चुके हैं, लेकिन क्या संसद को यह अधिकार है कि वह संविधान की मूल प्रस्तावना को बदल सके?
मिसाल है 44 साल पुराना ये केस
पहली बार यह सवाल 1973 में सुप्रीम कोर्ट के सामने आया था. मुख्य न्यायाधीश एस एम सिकरी की अध्यक्षता वाली 13 जजों की बेंच ने इस मामले में ऐतिहासिक फैसला दिया था. यह केस था- ‘केसवनंदा भारती बनाम स्टेट ऑफ़ केरला’, जिसकी सुनवाई 68 दिनों तक चली थी.
संविधान के आर्टिकल 368 के हिसाब से संसद संविधान में संशोधन कर सकती है. लेकिन इसकी सीमा क्या है? जब 1973 में यह केस सुप्रीम कोर्ट में सुना गया तो जजों की राय बंटी हुई थी. लेकिन सात जजों के बहुमत से फैसला दिया गया कि संसद की शक्ति संविधान संशोधन करने की तो है लेकिन संविधान की प्रस्तावना के मूल ढांचे को नहीं बदला जा सकता है. कोई भी संशोधन प्रस्तावना की भावना के खिलाफ़ नहीं हो सकता है.
यह केस इसलिए भी ऐतिहासिक रहा क्योंकि इसने संविधान को सर्वोपरि माना. न्यायिक समीक्षा, पंथनिरपेक्षता, स्वतंत्र चुनाव व्यवस्था और लोकतंत्र को संविधान का मूल ढांचा कहा और साफ़ किया कि संसद की शक्तियां संविधान के मूल ढांचे को बिगाड़ नहीं सकतीं. संविधान की प्रस्तावना इसकी आत्मा है और पूरा संविधान इसी पर आधारित है.
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पंथनिरपेक्षता हमेशा से है संविधान में
प्रस्तावना में भी अब तक एक बार 1976 में संशोधन किया गया है जिसमें ‘सेक्युलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्दों को शामिल किया गया. लेकिन इससे पहले भी पंथनिरपेक्षता का भाव प्रस्तावना में शामिल था.
प्रस्तावना में सभी नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता और समानता का अधिकार पहले से ही लिखित है. 1976 के 42वें संशोधन में ‘सेक्युलर’ शब्द को जोड़कर सिर्फ इसे स्पष्ट किया गया.
जब संविधान के ढांचे को कमज़ोर करने की कोशिश की गई
इंदिरा गांधी सरकार ने 1971 की जीत के बाद संविधान में कुछ ऐेसे संशोधन किए जिससे संसद की शक्ति अनियंत्रित हो गई. यहां तक कि अदालतों की आदेशों और फैसलों की न्यायिक समीक्षा की शक्ति को भी खत्म कर दिया.
इसके बाद 1973 में केसवनंदा भारती केस में सुप्रीम कोर्ट ने 703 पन्नों का फैसला दिया और स्पष्ट किया कि संसद की शक्तियां अनियंत्रित नहीं हैं.
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इसके बाद वाजपेयी सरकार ने भी 1998 में संविधान की समीक्षा के लिए कमेटी बनाई. तब ये बहस उठी कि संविधान के मूल ढांचे के प्रभावित करने की कोशिश है, पंथनिरपेक्षता और आरक्षण को खत्म करने की कोशिश है.
लेकिन तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने उस वक्त एक लंबे लेख में केसवनंदा भारती केस का ज़िक्र करते हुए लिखा कि सेक्युलरिज़्म भारत की संस्कृति में है.
केसवनंदा भारती केस में सरकार की ओर से संसद की असीमित शक्तियों के पक्ष में दलील दे रहे वकील एच एम सीरवई ने भी अपना किताब में माना कि सुप्रीम कोर्ट का संविधान के मूल ढांचे को बचाए रखने का फैसला सही था.
हाल ही में उप-राष्ट्रपति वैंकेया नायडू ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के लिए अपने भाषण में कहा था कि भारत सिर्फ इसलिए सेक्युलर नहीं है क्योंकि यह हमारे संविधान में है. भारत सेक्युलर है क्योंकि सेक्युलरिज़्म हमारे ‘डीएनए’ में है.
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