नयी दिल्ली: उच्चतम न्यायालय के नौ न्यायाधीशों की पीठ ने निजता मामले में आज निजता के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद-21 द्वारा संरक्षित माना। सरकार उच्चतम न्यायालय की इस राय का स्वागत करती है। उच्चतम न्यायालय की राय सरकार के विधायी प्रस्ताव में सुनिश्चित सभी आवश्यक सुरक्षाओं के अनुरूप है।
पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों के दौरान व्यक्तिगत स्वतंत्रता का विषय भिन्न-भिन्न रूपों में आया। संविधान बनने के तुरंत बाद केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने निरंतर रूप से यह कहा कि औचित्य के बिना किसी भी कानून द्वारा व्यक्ति को व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जा सकताहै। कांग्रेस की सरकारों ने हमेशा ही यह दलील दी कि निजता किसी संवैधानिक गारंटी का हिस्सा नहीं है। वास्तव में आंतरिक आपातकाल के दौरान जब अनुच्छेद-21 को स्थगित कर दिया गया था, तब केन्द्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह दलील दी थी कि किसी व्यक्ति को मारा जा सकता है और व्यक्ति को उसके जीवन के अधिकार से (स्वतंत्रता की बात छोड़ दें) वंचित किया जा सकता है और उसके पास फिर भी कोई रक्षात्मक उपाय नहीं रहेगा।
यूपीए सरकार ने बिना किसी विधायी समर्थन के आधार योजना लागू की थी। इसी संदर्भ में यूपीए की आधार योजना को न्यायपालिका के समक्ष चुनौती दी गई थी। एनडीए सरकार ने संसद द्वारा स्वीकृत आवश्यक विधेयक को सुनिश्चित किया। पर्याप्त सुरक्षा के उपाय लागू किये गये। राज्यसभा में आधार विधेयक पर 16.03.2016 को सरकार की ओर से वित्त मंत्री ने स्पष्ट रूप से कहा था ‘निजता एक मौलिक अधिकार है या नहीं? वर्तमान विधेयक पहले से ऐसा मानता है और यह इसी आधार पर बना है। अब यह विलम्ब से कहा जा रहा है कि निजता मौलिक अधिकार नहीं है। इसलिए मैं आशा करता हूं कि संभवत: निजता एक मौलिक अधिकार है। अब आप मौलिक अधिकार के रूप में निजता को कहां रखेंगे? और यहां मैं यह गलतफहमी दूर करना चाहता हूं, जिसके कारण इन संशोधनों का प्रस्ताव किया गया है। यह कहा जाता है और व्यापक रूप से यह स्वीकार्य है कि निजता व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा है। जब अनुच्छेद-21 यह कहता है कि विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना किसी व्यक्ति को जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा, तो हमें यह मानना चाहिए कि निजता स्वतंत्रता का हिस्सा है और विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना किसी व्यक्ति को उसकी निजता से वंचित नहीं रखा जा सकता। ध्यान देने की बात यह है कि निजता कोई सम्पूर्ण अधिकार नहीं है। यह हमारे संविधान में भी अधिकार है। यदि यह अनुच्छेद-21 के अंतर्गत उचित प्रतिबंधों के साथ मौलिक अधिकार है, तो इसे विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया से प्रतिबंधित किया जा सकता है, कि विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया उचित और औचित्यपूर्ण प्रक्रिया होनी चाहिए। उच्चतम न्यायालय के समक्ष मामला यह है कि आपके पास कोई कानून नहीं, आपने कानून नहीं बनाया, आपने कोई दिशा-निर्देश तय नहीं किया और आपने एक कार्यकारी आदेश के जरिये एक ऐसा प्राधिकार बनाया, जहां सभी व्यक्तिगत डाटा और बायोमैट्रिक सूचना जाएगी। इसका क्या उपयोग होगा? क्या यह निष्पक्ष न्यायसंगत और औचित्यपूर्ण प्रक्रिया है?
वित्तमंत्री उस स्थिति का जिक्र कर रहे थे, जहां यूपीए सरकार ने बिना किसी विधायी समर्थन के आधार बनाया। वर्तमान सरकार ने ठीक इसके उलट किया। सरकार ने आधार को विधायी समर्थन दिया और निजता के संबंध में कानून में विशेष सुरक्षा उपायों को शामिल किया। सरकार ने उच्चतम न्यायालय को यह आश्वासन भी दिया है कि सरकार शीघ्र ही डाटा संरक्षण कानून लाएगी। इस पर विचार करने के लिए उच्चतम न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री कृष्ण की अध्यक्षता में एक समिति की नियुक्ति पहले ही की गई है।
मौलिक अधिकारों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को मजबूत बनाने के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय का आज का निर्णय स्वागत योग्य निर्णय है। इस निर्णय में कहा गया है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता कोई सम्पूर्ण अधिकार नहीं, बल्कि संविधान में दिये गये उचित प्रतिबंधों के अंतर्गत है। इन प्रतिबंधों की जांच प्रत्येक मामले में अलग-अलग होगी। सरकार की स्पष्ट राय है कि विधेयक निर्णय में निर्धारित मानकों का परिपालन करते है। उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि ….. व्यक्तिगत हितों और राज्य की वाजिब चिंताओं के बीच सावधानीपूर्वक और संवेदी संतुलन बनाने की आवश्यकता है। राज्य का वाजिब उद्देश्य राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षा करना, अपराध रोकथाम और जांच, नवाचार को प्रोत्साहन तथा ज्ञान का प्रसार और सामाजिक कल्याण लाभों की बर्बादी को रोकना है’। सरकार इस उद्देश्य के लिए संकल्पबद्ध है।
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