माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी ने परीक्षा के तनाव को कम करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर प्रकाश डाला है। यह परीक्षा स्कूल परीक्षा न होकर सम्पूर्ण जीवन की परीक्षा से सम्बन्धित था। सम्पूर्ण कथन आज के ज्वलंत पैरेंटिंग की समस्या से सम्बन्धित था। बच्चों का सकारात्मक एवं सत्त विकास कैसे सम्भव हो इस पर विस्तार से चर्चा की गई। कार्यक्रम में किसी स्कूली परीक्षा को पूरे जीवन की परीक्षा न मानने की सलाह दी गई है। सलाह में कहा गया है परीक्षा को उत्सव के रूप में मनाया जाय। परीक्षा के दौरान किसी प्रकार का दबाव महसूस न किया जाय।
यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि मोदी जी भारत के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने बाह्य स्तर के विकास की अपेक्षा मनुष्य के आन्तरिक विकास की चर्चा की है। मोदी जी के प्रयास से संयुक्त राष्ट्र संघ ने 21 जून को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मान्यता दी। परिणाम स्वरूप आज योग की पहचान बच्चा-बच्चा करने लगा है। आन्तरिक शक्ति के रूप में प्रधानमंत्री मोदी ने मन की बात प्रारम्भ की। मन की बात कहने की सभी बात करते हैं। परन्तु पहले हम मन तक पहुचें। मन की बात, मन तक पहुचे बिना नहीं कहा जा सकता है। मन तक पहुचने के लिए योग मेडिटेशन, ध्यान और प्रणायम की आवश्यकता होगी। यह हमारे ऊर्जा के स्रोत हैं।
पिछले दिनों में संयुक्त परिवार के कारण पैरेंटिंग सबसे आसान कार्य था। आज पैरेंटिंग सबसे चुनौती भरा काम हो चुका है। आज माता-पिता और बच्चों दोनों में ही टालरेंस, एडजेस्टमेंट और एक्सेप्टेंस का अभाव दिखता है। दोनों वर्ग एक-दूसरे से दूर होते चले जा रहे हैं। कहा जाता है यदि हमने अच्छी तरह से पैरेंटिंग कर ली तब हमारे और बच्चों के भीतर टालरेंस, एडजेस्टमेंट और एक्सेप्टेंस लेबल का स्वतः ही विकास हो जायेगा।
आज बच्चा हमसे दूर होता चला जा रहा है। इसलिए बच्चे के लिए खतरनाक स्थिति उत्पन्न होती है। उसके गलत चीज की समीप जाने का खतरा बन जाता है। इसलिए प्रयास यह करना चाहिए कि बच्चे को अपने से दूर न जाने दें।
हम बच्चे को उसकी गलती के साथ एक्सेप्ट नहीं कर पाते हैं, और बच्चे को रिजेक्ट कर देते हैं। इसलिए बच्चा एक्सेप्टेंस या स्वीकार्यता पाने के लिए अपने अच्छे या बुरे दोस्त के समीप चला जाता है। बच्चा अपनी हर बात अपने पैरेंट से न बताकर अपने दोस्तों से बताने लगता है। अपने दोस्तों की स्वीकार्यता प्राप्त करने के लिए वह हर नाजयज मांग को भी स्वीकार करने लगता है।
महत्वपूर्ण बात यह है जब हम बच्चे को रिजेक्ट कर देंगे तब बच्चा हमारी बात सुनेगा नहीं। जब हमारी बात सुनेगा नहीं तब हमारी बात मानना तो बहुत दूर की बात है।
बच्चे में निर्णय शक्ति के विकास की आवश्यकता होती है। निर्णय शक्ति के अभाव में जो बच्चा चार साल की अवधि में हमारा हाथ पकड़ कर चलता था, वहीं बच्चा आज चालीस साल हो जाने के बाद भी हमारा हाथ छोड़ने का साहस नहीं कर पाता है। बच्चों को हर हाल में निर्णय लेने दें। क्योंकि बच्चों के गलत निर्णय से होने वाला नुक्सान उतना महत्वपूर्ण नहीं होगा, जितना कि बच्चे में निर्णय शक्ति के अभाव से होगा। निर्णय शक्ति उत्तरदायित्व से बढ़ता जितना हम बच्चे को उत्तरदायित्व देंगे उतना ही अधिक बच्चे में निर्णय शक्ति का विकास होगा।
परीक्षा तनाव के लिए, परीक्षा पर अत्यधिक फोकस को माना गया है। इसलिए परीक्षा तनाव कम करने के लिए डी-फोकस के महत्ता को स्वीकार करना चाहिए। हम स्वयं को नही जानते हैं। इसलिए हम अपने कमियों और विशेषताओं की पहचान करना सीखें। अपने कमियों पर फोकस करना बंद करें। अपने विशेषताओं पर डी-फोकस करें।
फोकस के दौरान ऊर्जा का व्यय होता है। जबकि डी-फोकस के दौरान ऊर्जा की प्राप्ति होती है। डी-फोकस करने के लिए हम कमरे के बाहर निकल जायें। हवा, आकाश, जल इत्यादि प्रकृति के सम्पर्क में आयें। ध्यान, योग, मेडिटेशन का सहारा लें। हर समय कैरियर, स्कूल, पढाई, सलाह शब्द से बचें।
गांधी जी का सिद्धांत है कि कोई भी आन्दोलन निरन्तर नहीं चलाया जा सकता है। इसलिए गांधी ने स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान संघर्ष-विराम-संघर्ष नीति पर चलते थे। 1919 के असहयोग आन्दोलन के बाद विराम का काल है। पुनः विराम के बाद 1929 नमक सत्याग्रह के रूप में संघर्ष करते हैं। पुनः 1942 तक विराम काल के बाद भारत छोड़ो आन्दोलन के रूप में संघर्ष करते हैं। इसलिए किसी विषय पर लगातार फोकस नहीं रखा जा सकता है।
जीवन में गलाकाट प्रतिस्पर्धा प्रमुख अंग के रूप में सामने आया है। लेकिन प्रतिस्पर्धा नहीं बल्कि अनु-स्पर्धा जरूरी है। प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता, परिवेष, सोच, संस्कार अलग-अलग हैं। इसलिए हम किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते हैं। हम प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं तो स्वयं अपने आप से कर सकते हैं।
प्रतिस्पर्धा से तनाव उत्पन्न होता है। प्रतिस्पर्धा से डर और असुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है। एक रेसर को भी बताया जाता है, कि सीधे देखें। रेस के दौरान दांयें-बांयेें न देखें। अपने मित्रों की ताकत से न प्रभावित हों। बल्कि अपनी ताकत को पहचानें। अपने आप से प्रतिस्पर्धा करें। स्वयं सफलता का पैमाना मान लें। यदि एक बार स्वयं दो कदम अधिक चलने की आदत पड़ गयी तब हमें किसी दूसरे व्यक्ति के शाबासी की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। हम स्वयं फिलास्फर, गाइड बनें। किसी दूसरे व्यक्ति को अपना फिलास्फर गाइड न बनने दें।
जनरेशन गैप आज की सबसे बड़ी समस्या है। माँ-बाप बच्चों को गलत समझते हैं। बच्चे अपने माँ-बाप को गलत समझते हैं। लेकिन वास्तव में माँ-बाप दोनों ही गलत नहीं हैं। दोनों अपनी जगह सही हैं। दोनों अलग-अलग सोच रखने के कारण एक-दूसरे से अलग हैं। अलग और गलत शब्द में अन्तर कर लें। दोनों एक-दूसरे के इरादे पर शक न करें। दोनों एक दूसरे को अच्छाई बुराई के साथ एक्सेप्ट कर लें।
माँ-बाप को चाहिए कि अपनी दबी इच्छायें अपने बेटे के माध्यम से पूरा करने का प्रयास न करें। मेरा बेटा बड़ा बने, इसे स्टेट्स सिंबल न बनायें। बेटा जो है, जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार करें। अठारह वर्ष के बाद बेटे से मित्रवत् व्यवहार करें।
अति बौद्धिकत्ता और तार्किक युग में आईक्यू के विकास पर अत्यधिक बल दिया जा रहा है। किन्तु केवल आईक्यू के विकास से हम सन्तोष जनक जीवन नहीं जी सकते हैं। इसके लिए हमें ईक्यू के विकास पर भी बल देना होगा। ईक्यू के बिना हम जीवन में अकेलापन, अवसाद का जीवन व्यतीत करेंगे। जीवन में आईक्यू के साथ ईक्यू का सही अनुपात होना आवश्यक है। आईक्यू का सम्बन्ध बुद्धि से है जबकि ईक्यू का सम्बन्ध मन या ह्दय से है। जब दोनों सिनक्रोनाईज हो जाता है, तब कोई भी चीज हमारे जीवन का हिस्सा बन जाता है।
ईक्यू से संवेदना का विकास होता है। इससे हमारा जीवन मूल्य परक बनता है। हम इसकी सहायता से हम गलत दिशा मे जाने से बच जाते हैं। ईक्यू से हमारे अन्दर आत्मबल का विकास होता है। ईक्यू हमें जोखिम लेने की क्षमता को विकसित करता है। इसके उपयोग से हम विपरित परिस्थितियों को अपने अनुकूल कर सकते हैं। हम किसी भी अनिश्चिता का सामना आसानी से कर सकते हैं। ईक्यू हमारे भीतर संवेदनशीलता का विकास करता है। इस कारण हम समाज के उपेक्षित, शोषित वर्ग के साथ जोड़ते हैं। इससे हमारे अनुभव का विस्तार होता है, तथा हमारे सन्तुष्टि का स्तर ऊंचा होता है। ईक्यू हमें मूल्य परक बनाता है। हो सकता है ईक्यू से विकसित मूल्य के मार्ग पर चलकर हम कुछ तात्कालिक नुकसान उठायें परन्तु दीर्घकाल में निश्चित रूप में हम लाभ की स्थिति में रहेंगे।
सफलता में टाइम मैनेजमेंट एक महत्वपूर्ण कारक है। अपने कार्यों की प्राथमिकता का आज्ञान टाइम मैंनेजमेंट की कमी को बताता है। सभी व्यक्ति को दिन में चैबीस घंटे मिले हैं। हम अपना अधिकांश समय बर्बाद करते हैं। हमें जो नहीं करना चाहिए, हम वह करते हैं। अथवा हमें जो करना चाहिए वह नहीं करते हैं। इसलिए कहा जाता है कि सकारात्मक विचार पैदा करें। नकारात्मक ही नहीं अनावश्यक विचारों से भी बचें। एक ही टाइम टेबल 365 दिन के लिए कारगर नहीं हो सकता है। हमें लक्ष्य के प्रति लचीला रूख अपनाना होगा। अपने निर्णय शक्ति को विकसित करना होगा। क्या करू और क्या न करू के संघर्ष से बाहर आना होगा।
डेली दो प्रकार की डायरी लिख कर हम अपने को सही कर सकते हैं, परख सकते हैं। अपनी बोल, सोच और कार्य में एकरूपता रखनी चाहिए। एक डायरी में हमें क्या करना है, लिखें। दूसरी डायरी में हमने क्या किया लिखें। दोनों डायरियों का मिलान कर लें और देख लें कि हम कितने ईमानदार हैं। क्योंकि सफलता के लिए ईमानदारी एक अनिवार्य शर्त है।
कैरियर को लेकर दबाव में न आयें। एक बार कुछ बनने का कैरियर चुन लें। इसके बाद कुछ करने के लिए लग जायें। इस दौरान बनने से अधिक अपने करने पर फोकस रखें। बनने की चाहत सोच रखकर हम अपनी स्तंत्रता खो देते हैं। हम अपना एक पक्षीय विकास में लगकर किसी एक चीज की गुलामी करने लगते हैं। इससे हमारा जीवन और सोच सीमित हो जाता है। इस कारण हम उस चीज को भी नहीं प्राप्त कर पाते हैं, जिसके लिए गुलामी करते हैं। यदि उसे प्राप्त भी कर लें तब हम असन्तुष्ट रहते हैं।
जब हम कुछ करने का इरादा रखकर कार्य करते हैं, तब हम जो बनने लगते हैं। उससे भी बड़ा बन जाते हैं। कुछ करने के प्रयास से हमारा ईरादा पक्का हो जाता है। हमारे सफलता के अन्य रास्ते भी खुल जाते हैं। कुछ करने का ईरादा रखकर कार्य करने से हमारे सन्तुष्टि और अनुभव का लेबल बहुत अधिक हो जाता है। कुछ करने का ईरादा रखकर इस रास्ते में अनेक परीक्षा, अंक तथा सफलता बाईप्रोडक्ट के रूप में मिलते जाते हैं। किसी भी परीक्षा और उसके अंक को अन्तिम नहीं मानना चाहिए। कोई परीक्षा या अंक हमारा पूरा जीवन नहीं है। इसलिए किसी भी परीक्षा को त्यौहार के रूप में लें।
मनोज कुमार श्रीवास्तव
सहायक निदेशक
सूचना एवं लोक सम्पर्क विभाग
देहरादून उत्तराखण्ड।