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भारत के राष्ट्रपति श्री राम नाथ कोविन्द का राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान – श्री सदाशिव परिसर के शताब्दी समारोह में सम्बोधन

देश-विदेश

नई दिल्लीः संस्कृत भाषा के अध्ययन, अध्यापन, शोध, प्रचार एवं प्रसार में निरंतर योगदान के सौ वर्ष सम्पन्न करने के अवसर पर मैं ‘राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान’ के ‘श्री सदाशिव परिसर’ से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को हार्दिक बधाई देता हूं। मुझे बताया गया है कि सन 1918 में महाविद्यालय का दर्जा मिलने के बहुत पहले से इस विद्यापीठ के पूर्ववर्ती संस्थानों में सन 1865 से ही संस्कृत शिक्षा की परंपरा चल रही थी। सन 1971 में यह शिक्षण-संस्था ‘राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान’ से जुड़ी और आज यह उस संस्थान से जुड़े संस्कृत विद्यापीठों में अपना गौरवशाली स्थान रखती है।

विश्व-विख्यात इस जगन्नाथ पुरी में स्थित यह परिसर ज्ञान-विज्ञान की उस परंपरा से जुड़ा हुआ है जिसके कारण पुरी को विद्या-नगरी कहा जाता था। इसे भारत के पूर्वी क्षेत्र की काशी भी कहा जाता था। आदि शंकराचार्य ने पूर्वी भारत में अपना पीठ स्थापित करने के लिए पुरी क्षेत्र को ही चुना। यहां रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य और निम्बार्काचार्य आदि सभी का आगमन हुआ था। गुरु नानक, संत कबीर और चैतन्य महाप्रभु भी यहां आए थे। यह स्थान विभिन्न विचारों का समन्वय क्षेत्र बन गया था।

प्रभु जगन्नाथ के मंदिर का यह क्षेत्र कला और संस्कृति का भी एक प्रमुख केंद्र रहा है। भारत के लोगों के हृदय में यहां की रथ-यात्रा का एक विशेष स्थान है। रथ-यात्रा के विषय में यह दृष्टिकोण मुझे अच्छा लगता है कि इस यात्रा के दौरान प्रभु जगन्नाथ स्वयं निकलकर श्रद्धालुओं के साथ और श्रद्धालुओं के पास जाते हैं। इस यात्रा में सभी श्रद्धालु बिना किसी भेदभाव के, समानता के साथ, शामिल होते हैं। यह यात्रा समता, शांति, सद्भाव, प्रगति और विश्व-बंधुत्व के मूल्यों को मजबूत बनाती है। यह श्रम की गरिमा और स्वच्छता के महत्व को भी दर्शाती है क्योंकि इस यात्रा के दौरान गजपति महाराज स्वयं अपने हाथों से रथ की सफाई करते हैं। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि इस परिसर में ‘जगन्नाथ विश्वकोश’ के संकलन पर एक बड़ा काम हो रहा है।

पुरी, कोणार्क, धौली-गिरि तथा उदय-गिरि जैसे स्थानों, अद्भुत हस्तकलाओं के अनेक केन्द्रों तथा संगीत-नृत्य-साहित्य की महान परम्पराओं के कारण इस राज्य को कला के उत्कर्ष का क्षेत्र यानि ‘उत्कल’ कहा जाता रहा है। हमारे राष्ट्र-गान में भी ओडिशा को ‘उत्कल’ ही कहा गया है।

ओडिशा की आधुनिक युग की विभूतियों में पुरी में जन्म लेने वाले महान स्वतन्त्रता सेनानी ‘उत्कल-मणि’ गोपबंधु दास, आचार्य हरिहर और पंडित नीलकंठ दास जैसे महापुरुष शामिल हैं। अनेक क्षेत्रों में अपना योगदान देने वाले ये सभी महापुरुष संस्कृत भाषा के विद्वान भी थे।

देव-वाणी कहलाने वाली संस्कृत भाषा ने वेद, उपनिषद, पुराण, वाल्मीकि-रामायण, श्रीमद्भगवद्-गीता सहित वेद-व्यास का महाभारत तथा कालिदास और बाणभट्ट जैसे कवियों की अमूल्य रचनाएं प्रदान करके मानव सभ्यता को समृद्ध बनाया है। यही नहीं, अनेक भाषा वैज्ञानिक संस्कृत भाषा को ही आज की अधिकांश भारतीय भाषाओं की जननी मानते हैं।

ओडिशा में प्राचीन काल से ही संस्कृत के अध्ययन और अध्यापन की समृद्ध परंपरा रही है। भारतीय ज्ञान-विज्ञान और संस्कृति को विकसित करने और सहेजने का काम पालि, प्राकृत और संस्कृत भाषाओं में ही हुआ था। गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित ध्यान पद्धति ‘विपस्सना’ आज एशिया, अमेरिका और यूरोप के अनेक देशों में अपनाई जा रही है। और इसके प्रचार-प्रसार के मूल में पालि, प्राकृत और संस्कृत के ग्रंथ ही अनुवादकों द्वारा इस्तेमाल किए जाते हैं।

सन 2014 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रत्येक वर्ष 21 जून को ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ मनाने का निर्णय लेकर योग-विज्ञान की महत्ता को स्वीकार किया है। योग-विज्ञान के वैज्ञानिक सिद्धान्त हमेशा ही प्रासंगिक रहेंगे। अंग्रेजी में योग पर छप रही अनगिनत सुंदर पुस्तकों में मूलतः संस्कृत में लिखे गए ‘योग-शास्त्र’ और ‘घेरण्ड संहिता’ जैसे ग्रन्थों का रोचक या सरल अनुवाद ही किया जाता है। यह कहा जा सकता है कि विज्ञान और संस्कृति के सदैव प्रासंगिक रहने वाले अनेक तत्व संस्कृत भाषा में विद्यमान हैं।

ओडिशा का ही एक उदाहरण लें तो कोणार्क के सूर्य-मन्दिर के निर्माण में एस्ट्रोनोमी, आर्किटेक्चर, ज्योमेट्री, ट्रिग्नोमेट्री, सिविल इंजीनियरिंग, समुद्री-यातायात, मेटलर्जी, वास्तु-शास्त्र आदि अनेक क्षेत्रों के ज्ञान का प्रमाण देखने को मिलता है। यह सारा विज्ञान संस्कृत भाषा में उपलब्ध था। इस भाषा के व्याकरण और बनावट में ही वैज्ञानिकता है। पाणिनि के व्याकरण को मेन्यू-ड्रिवेन जैसा माना जा रहा है। अनेक विद्वानों द्वारा नियम-बद्ध, सूत्र-बद्ध और तर्कपूर्ण व्याकरण पर आधारित संस्कृत भाषा को एल्गोरिदम लिखने, मशीन लर्निंग पर काम करने, यहां तक कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के लिए भी उपयुक्त भाषा माना जा रहा है।

इस प्रकार संस्कृत, केवल अध्यात्म, दर्शन, भक्ति, कर्म-कांड और साहित्य की ही भाषा नहीं थी। वह ज्ञान-विज्ञान की भाषा भी थी। आर्यभट, वराह मिहिर, भास्कर, चरक और सुश्रुत जैसे अनेक वैज्ञानिकों और गणितज्ञों के मूल्यवान ग्रन्थों की रचना संस्कृत में ही हुई थी। संस्कृत भाषा की सबसे बड़ी देन है – मानवता को बचाने वाले मूल्यों को आगे बढ़ाना। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को संस्कृत  भाषा ने सहेज कर रखा है।

संस्कृत जैसी प्राचीन भारतीय भाषाओं में सदैव प्रासंगिक रहने वाले ज्ञान-विज्ञान और दर्शन को सुरक्षित रखना तथा उसे बदलते युग के साथ आगे बढ़ाना, हमारे समाज और देश के लिए तो उपयोगी है ही, पूरे विश्व के लिए भी लाभदायक है। एशिया, यूरोप और अमेरिका के अनेक विश्वविद्यालयों में संस्कृत विभागों में अध्ययन और अनुसंधान हो रहा है। भारत और विदेश के इन संस्थानों में विज्ञान और संस्कृति की संपदा को संस्कृत भाषा के जरिए बचाने और बढ़ाने का काम किया जा रहा है।

‘राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान’ के इस परिसर के भूतपूर्व विद्यार्थियों ने संस्कृत भाषा में उपलब्ध ज्ञान के प्रसार में सराहनीय योगदान दिया है। यहां शिक्षा प्राप्त करने वाले अनेक विद्वानों को ‘महा-महोपाध्याय’ की उपाधि से सम्मानित किया गया है। अनेक भूतपूर्व विद्यार्थियों ने साहित्य और भाषा को योगदान देने के लिए विभिन्न पुरस्कार प्राप्त किए हैं। यहां के अनेक भूतपूर्व छात्रों ने अन्य संस्कृत संस्थानों के कुलपति के रूप में संस्कृत भाषा के संरक्षण और विकास को योगदान दिया है। मुझे यह जानकर खुशी हुई है कि इस परिसर में कंप्यूटर का प्रयोग किया जा रहा है तथा भविष्य में संस्कृत शिक्षा के लिए आधुनिक तकनीकी के उपयोग को बढ़ावा देने की योजना है। यहां के पाठ्यक्रम में अंग्रेजी, हिन्दी, ओड़िया, इतिहास, गणित और कम्प्यूटर शिक्षा का भी समावेश किया गया है। मुझे विश्वास है कि इस तरह का समावेश बदलते हुए परिवेश में यहां के विद्यार्थियों की शिक्षा को व्यवहार जगत में अधिक उपयोगी बनाएगा। सौ वर्षों में निर्मित अपनी स्वस्थ परंपरा को आगे बढ़ाते हुए, ‘श्री सदाशिव परिसर’, संस्कृत भाषा के संवर्धन और विकास में निरंतर महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहे, यही मेरी शुभकामना है।

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