नई दिल्ली: राष्ट्रीय संग्रहालय के सुरक्षित संग्रह से लिए गए सुसज्जित हथियारों और जिरह-बख्तरों की प्रदर्शनी आज नई दिल्ली में शुरू हुई। 5 नवंबर, 2017 तक चलने वाली इस प्रदर्शनी का उद्घाटन राष्ट्रीय संग्रहालय के महानिदेशक डॉ. वी.आर. मणि ने किया। इस प्रदर्शनी में अलग-अलग समय, क्षेत्र, तकनीकी और प्रचलन के खंजर, तलवार और जिरह-बख्तर तथा पिस्तौल प्रदर्शित किए गए हैं।
भारतीय हथियारों और जिरह-बख्तरों का इतिहास प्राग-ऐतिहासिक समय से प्रारंभ होता है। लेकिन ऐतिहासिक संदर्भ में मध्यकाल में इनकी प्रामणिकता नक्काशियों, चित्रकारी तथा सिक्कों से होती है।
सल्तनत और मुगल शासन के दौरान हथियारों में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए और हथियारों पर फारस, अरब और तुर्की के प्रभाव आमरूप से दिखने लगे। इसके उदाहरण है फारस की शमसीर और अरब का जुल्फीकार।
प्रदर्शनी में विभिन्न प्रकार के खंजर, आत्म सुरक्षा के लिए आयतित हथियार और आमने-सामने की लड़ाई में इस्तेमाल किए जाने वाले हथियार प्रदर्शित किए गए हैं। इन हथियारों में क्षेत्रीय विभिन्नता भी है जैसे मुगलों का जमाधार, जम्बिया और खंजर, अफगानों का छुरा, राजपूतों का खपूआ, सिखों की कुरौली और नेपालियों की खुखरी।
अनेक खंजरों में हाथी दांत के मूठ वाले खंजर, जडाऊ खंजर और बिल्लौरी खंजर शामिल हैं।
प्राग-ऐतिहासिक काल से बाद के गुप्त काल तक हम पाते है कि हथियार और जिरह-बख्तर अपने निर्धारित कामकाज में इस्तेमाल किए जाते थे और उनमें कोई सौंदर्य तत्व नहीं था। मध्य काल से हथियारों और जिरह-बख्तरों पर आभूषण चढ़ाने का काम शुरू हुआ।
आभूषण जड़े हथियार व्यक्ति की राजनीतिक शक्ति और उसके आर्थिक प्रभाव दिखाते थे। हथियारों और जिरह-बख्तरों का अध्ययन इसलिए दिलचस्प है क्योंकि इन हथियारों ने हमारे इतिहास को मोड़ देने में अपनी-अपनी भूमिका निभाई है। इन हथियारों और जिरह-बख्तरों का तकनीकी पक्ष यह है कि इनमें कला का प्रदर्शन किया गया है और सोना, चांदी, तांबा, पीतल, सुलेमानी पत्थर, हाथी दांत, सींग, मुक्ता तथा कीमती पत्थरों का इस्तेमाल किया गया। साधारण व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला हथियार युद्ध के मैदान और शिकार के लिए ही इस्तेमाल किए जाते थे और उनमें साज-सज्जा की कमी होती थी। लेकिन अभिजात्य वर्ग के लोगों, सैनिक कमांडरों और अभिजात्य योद्धाओं के हथियार और जिरह-बख्तर विभिन्न रस्मों पर इस्तेमाल के लिए विशेष रूप से सजाए जाते थे। आभूषण जड़े खंजर उपहार के रूप में प्रतिष्ठित व्यक्तियों को दिया जाता था। यह परंपरा प्राचीन समय से चली आ रही है और भारत के अनेक हिस्सों में इस परंपरा का आज भी पालन किया जाता है।