नई दिल्ली: संस्कृति एवं पर्यटन मंत्रालय में सचिव श्रीमती रश्मि वर्मा ने आज राष्ट्रीय संग्रहालय में ‘भारत की परम्परागत पगडि़यां’’ प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। राष्ट्रीय संग्रहालय परिसर, जनपथ, नई दिल्ली में आयोजित इस लघु प्रदर्शनी में प्रिंटेड पगड़ी, कढ़ाईदार दोपल्ली और सिली हुई मराठा टोपी तथा जरदोजी टोपी का प्रदर्शन किया गया।
भारतीय परंपरागत पोशाक सहित पगड़ी, पग, टर्बन, टोपी, कैप, हेडगेयर पुरूषों के साथ-साथ अक्सर महिलाओं की भी की रोजमर्रा की वेशभूषा का अंग रहे हैं। इन्हें अवसर तथा रस्म के अनुसार विशेष रूप से डिजाइन किया जाता रहा है। ये पगड़ी या टोपी इन्हें धारण करने वाले व्यक्ति की सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्थिति को सूचित करते हैं। मलमल, सूती, रेशमी, और ऊनी कपड़ों से लेकर तरह-तरह के कपड़ों का इस्तेमाल बेहद सजावटी और बारीकी से सजाई गई पगडि़यों या टोपियों में किया जाता था और आगे चलकर इन्हें सजाने के लिए रत्नों का भी इस्तेमाल होने लगा।
भारतीय इतिहास का प्रथम चरण पग पहनने के कुछ विशिष्ट या खास अंदाज दर्शाता है। मिसाल के तौर पर मौर्य – शुंग काल में दो अवस्थाओं में पग बांधने के प्रमाण मिलते है। पहले बालों के जूड़े को ढ़कने वाली टॉप-नॉट लगाई जाती थी और उसके बाद सिर को ढका जाता था। मध्यकाल में कई दिलचस्प तरह की पगडि़यां देखने को मिलती हैं। मिसाल के तौर पर अकबर की ‘अटपटी पगड़ी’ और शाहजहां की ‘टर्बन बंद’ प्रसिद्ध थीं। समझा जाता है कि औरंगजेब अपनी टोपी खुद बनाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ‘चौगनी’ या ‘चौगोशिया’ टोपी पहनता था, जिसमें चार उठे हुए किनारे होते थे।
19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के आरंभ में उत्तरी क्षेत्र में ‘दो-पल्ली’ या ‘गोल टोपी’ या ‘टोपी’ रोजमर्रा के इस्तेमाल के साथ ही साथ विशेष अवसरों पर भी पहनी जाती थी। हैदराबाद के निजाम ने ‘दस्तार’ की शुरूआत की, जो देखने में सिली हुई टोपी जैसी ही दिखती थी। इतिहास के इस काल के दौरान मंत्री का दर्जा, विशेषकर दरबारी मामलों में, उसकी दस्तार के रंग से ही तय होता था। प्रसिद्ध मराठा पगडि़यों और राजपूत पगडि़यों की खास पहचान उनमें इस्तेमाल किया गया कपड़ा, रंग, डिजाइन और सजावट हुआ करती थी।