महापुरूषों के कथनानुसार सत्संग मनुष्य के दिशा निर्धारण का सशक्त माध्यम है। दिशा ही मानव की दशा को निर्धारित किया करती है। हमारे मनीषियों द्वारा सत्संग-प्रवचनों का प्रावधान मात्र इसलिए किया गया ताकि मायावी संसार में विचरण करने वाला मनुष्य सत्य विचारों का संग करते हुए सही दिशा की ओर स्वयं को अग्रसर कर सके। संतजनों का सानिध्य प्राप्त करना और उनके द्वारा प्रदत्त महान सुविचारों के अनुसार अपने जीवन को चलाना, यही उन्नत जीवन की आधारशिला है। पूर्ण संत का समागम ‘महातीर्थ’ कहा गया है। कबीर दास जी एैसे संत की संगत को प्राप्त करना सौभाग्य की निशानी बताते हुए कहते हैं-
कबीरा संगत साधु की सांई आवे याद
लेखे में सोई घड़ी बाकी दिन बरबाद
भगवान की याद करने के लिए, उनसे मिलने के लिए तथा उन्हें प्राप्त करने के लिए सत्संग वह प्रथम चरण है जिसका अनुगमन किए बिना ईश्वरीय साम्राज्य में प्रवेश नहीं किया जा सकता। एक होता है सत्संग प्रवचन, जिसमें ईश्वर की चर्चा, ईश्वर का गुणानुवाद, ईश्वर के अनेक नामों की शास्त्र सम्मत व्याख्या तथा ईश्वर की अनेकानेक लीलाओं का वर्णन किया जाता है। वास्तविक सत्संग तो एक दिव्य और अति महत्वपूर्ण शाश्वत् घटना है जो कि मनुष्य के हृदयांगन में प्रत्यक्षतः घटित हुआ करती है और इस घटना के सूत्रधार हुआ करते हैं कोई श्रोत्रिय ब्रह्म्निष्ठ पूर्ण सद्गुरू। सनातन धर्म की सार्वभौमिक वैदिक दिव्य तकनीक ब्रह्म्ज्ञान के प्रदाता पूर्ण गुरू ही वास्तविक सत्संग के जनक हुआ करते हैं। इस सत्संग की पावन गंगा में डुबकी लगाने के उपरान्त ही मनुष्य के जन्मों-जन्मांतरों के कलुष धुल जाते हैं और समस्त पापों का नाश हो जाया करता है। सत्संग का तो अर्थ ही अत्यन्त अर्थपूर्ण है। सत्य$संग= सच का साथ। सत्य तो मात्र ईश्वर कहे गए हैं। शास्त्र कहता है- ब्रह्म् सत्यम् जगत् मिथ्या। अर्थात इस नश्वर और असत्य संसार में मात्र परमात्मा ही एकमात्र सत्य है। अतः सत्य का साथ ही सत्संग है। इस विलक्षण सत्संग से ही विवेक का जागरण होता है। विवेक के जागरण से मनुष्य अपने जीवन की समस्त समस्याओं का निराकरण सहज ही प्राप्त कर लेता है। इस सत्संग के द्वारा ही वह अपने अनमोल मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य की पूर्ति करते हुए लोक तथा परलोक में सद्गति को प्राप्त हो जाया करता है।
दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान, 70 इन्दिरा गांधी मार्ग (सत्यशील गैस गोदाम के सामने) निरंजनपुर देहरादून स्थित आश्रम सभागार में प्रत्येक सप्ताह आयोजित किए जाने वाले रविवारीय सत्संग-प्रवचनांे एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम के अन्तर्गत आज भी विशाल पैमाने पर एैसा ही कार्यक्रम आयोजित हुआ। कार्यक्रम में सद्गुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी सुश्री कुष्मिता भारती जी ने सत्संग प्रवचनों की महिमा तथा सद्गुरू द्वारा शास्त्रानुसार मनुष्य के भीतर घटित होने वाले सत्संग को रेखांकित करते हुए उपस्थित संगत को परमात्मा की शाश्वत् भक्ति के सम्बन्ध में बताया।
कार्यक्रम का शुभारम्भ भावपूर्ण भजनों की प्रस्तुति देते हुए किया गया। ‘‘तुम बिन मोरी कौन खबर ले, गोवर्धन गिरधारी……’’, ‘‘ज़िन्दगी में उनकी कभी न होती हार, जिनको मिल जाया करता सद्गुरू का प्यार…..’’, ‘‘नाम तेरा लेके रब पा लिया, और मांगू क्या साहिबा, रब पा लिया-रब पा लिया……’’ तथा ‘‘संत शरण में जा, रे पगले संत शरण में जा…..’’ इत्यादि भजन संगत को निहाल कर गए।
भजनों की विस्तृत व्याख्या करते हुए मंच का संचालन साध्वी सुभाषा भारती जी के द्वारा किया गया।
अपने प्रवचनों को आगे बढ़ाते हुए साध्वी कुष्मिता भारती जी ने कहा कि ईश्वर का चयन करने वाले की सदा विजय श्री सुनिश्चत है। आध्यात्मिक इतिहास अनेकों भक्तों की गौरवमयी दास्तानों से भरा हुआ है जहां भक्तों ने भगवान से दुनियावी वस्तुओं की अपेक्षा भगवान को ही मांगा। त्रेता में विभिषण जब श्री राम की शरण में गया तो लंकेश बन गया। अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण का चयन किया तो अद्वितीय योद्धा बन महाभारत का नायक कहलाया। ध्रुव-प्रह्लाद जब श्री हरि के हो गए तो श्री हरि के साथ-साथ अविचल स्रामाज्यों के स्वामी भी बन गए। शवाजी महाराज को छत्रपति बनाने वाले उनके ही गुरू समर्थ रामदास जी थे। इसी प्रकार मीरा, शबरी, धन्नाजट्ट, बुल्लेशाह इत्यादि एैसे भक्त हुए जिन्होंने ईश्वर से केवल ईश्वर को मांगा। शवाजी की माता द्वारा उन्हें बाल्यकाल से ही उन्नत संस्कारों से पोषित किया गया। बचपन में ही शवाजी द्वारा जब अर्जुन बनने की बात अपनी माता से कही गई और अपने जीवन में श्री कृष्ण के आगमन के सम्बन्ध में पूछा गया तो माता ने उन्हें बताया कि जिनके मन में अर्जुन बनने की ललक हुआ करती है उनके जीवन में श्री कृष्ण भी आ ही जाते हैं। शवाजी के जीवन में भी समर्थ रामदास जी श्री कृष्ण बनकर ही आए और उन्होंने उन्हें अर्जुन जैसा ही स्वरूप प्रदान कर दिया। गुरू इंसान के जीवन में सूर्य सदृश्य प्रचण्ड प्रकाश लेकर आते हैं। जीव जो कि अज्ञानता के गहन अंधकार में अनेक दुखों और कष्टों को भोगता हुआ जी रहा होता है गुरू उसे अपने ब्रह्म्ज्ञान के आलोक में सत्य का दर्शन करवाते हुए उसके अज्ञान का अंधकार हर लेते हैं। इंसान अपने दुखों-कष्टों के लिए स्वयं ही उत्तरदायी हुआ करता है। इंसानी कर्म जन्मों-जन्मों तक उसका पीछा किया करते हैं। सद्गुरू कर्म संस्कारों को ज्ञान की अग्नि में स्वाहा करते हुए इंसान का आवागमन ही समाप्त कर डालते हैं। गुरू चैरासी लाख योनियों की पीड़ा से अपने शरणागत् शष्य को मुक्ति प्रदान करने की युक्ति प्रदान कर दिया करते हैं। गुरू की आज्ञा को शरोधार्य करके भक्तिपथ पर चलने वाला शष्य निर्बाध गति से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता चला जाता है। कबीरदास जी एैसे ही शष्य के संबंध में कहते हैं-
गुरू को सिर पर धारि के चले जो आज्ञा मांहिं, कहे कबीर तिस दास को तीन लोक डर नांहि
गुरू की आज्ञा न मानने पर शिष्य का जीवन दुखों से ही परिपूर्ण हो जाता है, साध्वी जी ने विवेकानन्द जी की शष्या बहन निवेदिता का उदाहरण देते हुए बताया कि नंगे पांव रहने वाली निवेदिता से गुरू द्वारा पादुका पहनने की आज्ञा न मानने पर निवेदिता के पांव में असीम कष्ट पैदा हो गया था। गुरू शष्य का भूत-वर्तमान तथा भविष्य तीनों की जानकारी रखते हंै और उसके कल्याण का ही कार्य किया करते हंै। प्रसाद का वितरण कर साप्ताहिक सत्संग कार्यक्रम को विराम दिया गया।
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