(1) इस धरती का परमपिता परमात्मा एक है :-
प्रभु ईशु ने सम्पूर्ण मानवजाति को अपने जीवन के द्वारा प्रेम, करूणा तथा पवित्रता की शिक्षा दी। ईशु का जन्म आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व येरूशलम के पास बैथेलहम (फिलिस्तीन-इजराइल) में हुआ था। उनके पिता जोसेफ बढ़ई एवं मां मरियम अत्यन्त ही निर्धन थे। ईशु को राजा के आदेश से जब सूली दी जा रही थी तब वे परमपिता परमात्मा से प्रार्थना कर रहे थे – हे परमात्मा! तू इन्हें माफ कर दे जो मुझे सूली दे रहे हैं क्योंकि ये अज्ञानी हैं अपराधी नहीं। ईशु ने छोटी उम्र में ही प्रभु की इच्छा तथा आज्ञा को पहचान लिया था फिर धरती और आकाश की कोई शक्ति उन्हें प्रभु का कार्य करने से रोक नहीं सकी। जिन लोगों ने ईशु को सूली पर चढ़ाया, देखते ही देखते उनके कठोर हृदय पिघल गये। सभी रो-रोकर अफसोस करने लगे कि हमने अपने रक्षक को क्यों मार डाला?
(2) परमपिता परमात्मा सारी सृष्टि का रचयिता है :-
ईसाई धर्म के अनुयायी इस बात को स्वीकार करते हैं कि इस सारी सृष्टि का ईश्वर एक है लेकिन वे ईश्वर के व्यक्तित्व को तीन रूपों में मानते हैं :- पहला रूप – परमपिता इस सारी सृष्टि का रचयिता है और इसको संचालित करने वाला शासक भी है। वह एक है। वह सारे जगत का पिता है। वह सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, परम पवित्र, परम न्यायी तथा परम करूणामय है। वह अनादि, अनन्त तथा पूर्ण है। वही सर्वश्रेष्ठ ईश्वर सब का परमेश्वर है। दूसरा रूप – परमपिता ने मानव देह में अपने को ईशु के रूप में प्रगट किया ताकि पतित हुए सभी मनुष्यों को पापों से बचाया जा सके। ईशु ने मानव जाति के पापों की कीमत अपनी जान देकर चुकाई। यह मनुष्य और पवित्र परमपिता के मिलन का मिशन था जो ईशु की कुर्बानी से पूरा हुआ। एक सृष्टिकर्ता परमपिता होकर उन्होंने पापियों को नहीं मारा वरन् पाप का इलाज किया। वे भगवान और मनुष्य के बीच की कड़ी हैं।
(3) बाइबिल केवल ईसाईयों के लिए ही नहीं वरन् सारी मानव जाति के लिए है :-
तीसरा रूप – पवित्र आत्मा परमपिता परमात्मा का तीसरा व्यक्तित्व है जिनके प्रभाव में व्यक्ति अपने अन्दर परमपिता परमात्मा का अहसास करता है। पवित्रात्मा मनुष्य का चित्त शुद्ध करती है और उसे भगवान के नजदीक ले जाती है। वह भगवान की प्रेरणा तथा ईश्वर की शक्ति है। वह प्रेम, आनन्द, विश्वास, भक्ति जैसे दैवी गुणों को विकसित करती है। जब तक पवित्रात्मा की कृपा न होगी, तब तक मनुष्य दोषों से मुक्त होकर भगवान के चरणों में नहीं जा सकेगा। बाइबिल पवित्र ग्रन्थ अर्थात ईश्वरीय पुस्तक है। ईशु की आत्मा में हिब्रू भाषा में पवित्र बाईबिल का ज्ञान आया। ईशु प्रभु से तथा आपस में एक-दूसरे से प्रेम करने का सन्देश छिप-छिप कर लोगों को देते थे। ईशु ने कहा धरती का साम्राज्य उनका होगा जो दयालु होंगे तथा दूसरां पर करूणा करेंगें। बाईबिल के ज्ञान का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ और यह ईश्वरीय ज्ञान संसार भर में फैल गया। करूणा का यह गुण केवल ईसाईयों के लिए ही नहीं है बल्कि सारी मानव जाति के लिए है।
(4) प्रभु की इच्छा तथा आज्ञा को जानना ही मानव जीवन का परम उद्देश्य है :-
ईशु ने कहा धरती का साम्राज्य उनका होगा जो दयालु होंगे तथा दूसरां पर करूणा करेंगे। ईशु जीवन के अन्तिम क्षणों में संसार में ‘करूणा’ का सागर बहाकर चले गये। परमात्मा ने पवित्र पुस्तक बाईबिल की शिक्षाओं के द्वारा ईशु के माध्यम से करूणा का सन्देश सारी मानव जाति को दिया। इसलिए हमें भी ईशु की तरह अपनी इच्छा नहीं वरन् प्रभु की इच्छा और प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए प्रभु का कार्य करना चाहिए। ईसाई धर्म का बुनियादी विश्वास यह है कि परमपिता परमात्मा सारे जगत का पिता है। हम सब पृथ्वीवासी उस परमपिता परमात्मा की संतानें हैं। हम सब भाई-भाई हैं। हमें एक-दूसरे के साथ करूणा का, दया का, प्रेम का तथा अपनेपन का व्यवहार करना चाहिए। प्रभु ईशु ने अपने जीवन से, अपने व्यवहार से, अपने कर्म से, अपने वचन से और अपने मन से इस प्रेम की ही शिक्षा दी है। ईशु ने कहा कि जो राजा का है उसे राजा को दे दो तथा जो परमात्मा का है उसे परमात्मा को सौंप दो। अर्थात सांसारिक चीजों पर राजा का अधिकार हो सकता है लेकिन हमारी आत्मा परमात्मा की है उसे परमात्मा को ही सौंपा जा सकता है।
(5)हम अपनी इच्छा नहीं वरन् प्रभु की इच्छा तथा आज्ञा को पहचाने कैसे?
प्रभु तो सर्वत्र व्याप्त है पर हम उसको देख नहीं सकते। हम उसको सुन नहीं सकते। हम उसको छू नहीं सकते तो फिर हम प्रभु को जाने कैसे? हम प्रभु की इच्छा तथा आज्ञा को पहचाने कैसे? बच्चों द्वारा प्रतिदिन की जाने वाली हमारे स्कूल की प्रार्थना है कि हे मेरे परमात्मा मैं साक्षी देता हूँ कि तूने मुझे इसलिए उत्पन्न किया है कि मैं तूझे जाँनू और तेरी पूजा करूँ। इस प्रकार प्रभु ने हमें केवल दो कार्यों (पहला) परमात्मा को जानने और (दूसरा) उसकी पूजा करने के लिए ही इस पृथ्वी पर मनुष्य रूप में उत्पन्न किया है। प्रभु को जानने का मतलब है परमात्मा द्वारा युग-युग में अपने अवतारों के माध्यम से दिये गये पवित्र धर्म ग्रंथों गीता की न्याय, त्रिपटक की समता, बाईबिल की करुणा, कुरान की भाईचारा, गुरू ग्रन्थ साहेब की त्याग व किताबे अकदस की हृदय की एकता आदि की ईश्वरीय शिक्षाओं को जानना और परमात्मा की पूजा करने का मतलब है कि परमात्मा की शिक्षाओं पर जीवन-पर्यन्त दृढ़तापूर्वक चलते हुए अपनी नौकरी या व्यवसाय करके अपनी आत्मा का विकास करना। हमें प्रभु की इच्छा को अपनी इच्छा बनाकर अपना जीवन जीना चाहिए। हमें अपनी इच्छा को प्रभु की इच्छा बनाने की अज्ञानता कभी नहीं करनी चाहिए।
(6) पवित्र भावना से अपनी नौकरी या व्यवसाय करना, यही परमात्मा की सच्ची पूजा है :-
हमारे जीवन का उद्देश्य भी अपने आत्मा के परमपिता परमात्मा की तरह ही सारी मानव जाति की सेवा करने का होना चाहिए। इसके लिए हमें परमपिता परमात्मा की शिक्षाओं को अपने जीवन में अपनाना होगा। परमात्मा से जुड़ने पर हम महसूस करेंगे कि परमात्मा हमारी रक्षा तथा मदद के लिए अपने अदृश्य दिव्य सैनिकों की टुकड़ियाँ एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी और इसी प्रकार अनेक टुकड़ियाँ भेजता रहता है। इसके लिए पहले हम प्रभु की शिक्षाओं को स्वयं पूरी एकाग्रता से जानें, उनको समझें, उनका मनन करें, उनकी गहराईयों में जायें व ईश्वर के मंतव्य को समझे और फिर उन शिक्षाओं पर चलते हुए प्रभु का कार्य मानकर पवित्र भावना से अपनी नौकरी या व्यवसाय करें। यही प्रभु की सच्ची पूजा, इबादत, प्रेयर व प्रार्थना है। इसके अतिरिक्त परमात्मा की पूजा का और कोई भी तरीका नहीं है। इसलिए हमें अपनी इच्छा नहीं वरन् प्रभु की इच्छा और प्रभु की आज्ञा का पालन करना चाहिए क्योंकि जो कोई प्रभु की इच्छा तथा आज्ञा को पहचान लेते हैं उन्हें धरती तथा आकाश की कोई भी शक्ति प्रभु का कार्य करने से रोक नहीं सकती।
(7) धरती का साम्राज्य उनका होगा जो दयालु होंगे :-
ईशु कहते हैं : धन्य हैं वे, जो मन के दीन, नम्र, दयालु, पवित्र, शुद्ध हृदयवाले, लोगों के बीच मेल-जोल बढ़ाने वालें, शान्ति स्थापित कराने वाले, धर्म के जिज्ञासु और परहित के लिए कष्ट उठाने वाले हैं। स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। वे ही भगवान के पुत्र कहलायेंगे। सच्चा ईशु का भक्त वही है जो मनुष्य मात्र से प्रेम करता है और प्राणि मात्र की सेवा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए सदा-सर्वदा तैयार रहता है। ईशु ने सीख दी कि तुम विश्व के प्रकाश हो। तुम किसलिए अपने को अपवित्र और पापी समझते हो? परम पवित्र प्रभु की सन्तान को ऐसी मान्यता शोभा नहीं देती। परमात्मा की दृष्टि में सब बराबर है कोई नीचा नहीं, कोई ऊँचा नहीं। प्रभु का राज्य कहीं दूर नहीं है। वह हमारे भीतर ही है। हम अपने हृदय को पवित्र करके धरती पर प्रभु का आध्यात्मिक साम्राज्य स्थापित कर सकते हैं। इस प्रकार गुरु नानक देव जी की शिक्षा हमें यह संदेश देती है कि हमें केवल अपने सगे-संबंधियों को ही प्रेम नहीं करना है बल्कि हमें बिना किसी भेदभाव के अपने परिवार व पड़ोसी के साथ ही समस्त मानवजाति से प्रेम करना चाहिए। हमें सभी के प्रति करुणा की भावना रखनी चाहिए।
डा0 जगदीष गांधी, षिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक
सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ