कहावत प्रसिद्ध है कि “ज्ञान द्वारा नर को श्री नारायण और नारी को श्री लक्ष्मी पद प्राप्त होता है” परन्तु आज लोगों को यह मालूम नहीं है कि श्री कृश्ण ने वह देव पद कैसे प्राप्त किया था। विचार करने पर आप मानेंगे कि किसी को राज्य भाग्य अथवा धन-धान्य या तो दान पुण्य करने से या यज्ञ करने से या युद्ध द्वारा षत्रु राजा को जीतने से ही प्राप्त होते हैं। परन्तु श्री कृश्ण को जो राज्य-भाग्य अथवा धन-धान्य प्राप्त था, वह कोई साधारण, विनाषी या सीमा वाला न था बल्कि आलौकिक, उखुट, उत्तम, अविनाषी, असीम, अखण्ड तथा सम्पूर्ण और पवित्र था, तभी तो आज तक दूसरे राजा-महाराजा भी श्री कृश्ण अथवा श्री नारायण की भक्ति-पूजा करते है। अतः प्रष्न उठता है कि श्री कृश्ण ने कौनसा यज्ञ, कौन सा दान-पूण्य अथवा कौन सा युद्ध किया था जिसके फलस्वरूप उनको ऐसा सर्वोत्तम, दो-ताजधारी पूज्य देव पद (Double crowned deity Status) प्राप्त हुआ कि जिसका आज तक गायन वन्दन है? परमपिता परमात्मा षिव ने अब इसके विशय में समझाया है कि श्री कृश्ण ने प्रजापिता ब्रह्मा के रूप में ईष्वरीय ज्ञान धारण करके, ‘ज्ञान यज्ञ’ रचा था। उन्होंने अपना तन, मन, और धन सम्पूर्ण रीति से उस यज्र्ञाथ ‘ईष्वरार्पण’ कर दिया था।
उन्होंने अपना जीवन मनुश्यमात्र को ज्ञान-दान देने में लगा दिया था और जन-मन को परमपिता परमात्मा से योग-युक्त करने तथा उन्हें सदाचारी बनाने में व्यतीत किया था। उन्होंने काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अंहकार जिन्हों का उस समय समस्त भू-मण्डल पर अखण्ड राज्य था, को ज्ञान-तलवार तथा योग के कवच के प्रयोग से जीता था। इसी के फलस्वरूप उन्होंने भविश्य में सृश्टि के पवित्र हो जाने पर, सतयुग के आरम्भ में श्री कृश्ण के रूप में अटल, अखण्ड अति सुखकारी तथा दो ताजधारी स्वर्गिक स्वराज्य तथा पूज्य देव पद प्राप्त किया था। इससे हमें यह बोध होता है कि ज्ञान-यज्ञ ही सभी यज्ञों में से श्रेश्ठ है। ज्ञान-दान ही सर्वोत्तम दान है। विकारो को जीतना ही सबसे बड़ा युद्ध करना है और मनुश्यमात्र को सदाचारी एवं श्रेश्ठ तथा योगयुक्त करना ही सर्वोच्च सेवा करना हे और इस सर्वोत्तम ज्ञान-यज्ञ, दान, सेवा तथा युद्ध का अमोलक अवसर संगमयुग में ही मिल सकता है जबकि परमपिता परमात्मा षिव प्रजापिता ब्रह्मा के तन में अवतरित होकर सत्य ज्ञान देते है।
परन्तु लोगो ने श्री कृश्ण का द्वापर युग में बताकर तथा “उनके जीवन-काल में भी कंस षिषुपाल महाभारत युद्ध, रोग आदि हुए,” ऐसा कहकर श्री कृश्ण पद की महिमा को बहुत कम कर दिया है। उन्होनें यह कहकर कि “श्री कृश्ण की 16108 रानियाँ थी ….. उन्होंने गोपियों के चीर हरण किए थे” आदि-आदि, श्री कृश्ण पर मिथ्या कलंक आरोपित किए हैं और श्री नारायण पद को अपमानित कर दिया है। पुनष्च, कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि श्री कृश्ण ने वह जीवनमुक्त देव पद कैसे ¬प्राप्त किया था? इन दोनों बातों का परिणाम यह हुआ है कि भारतवासी हर वर्श जन्माश्टमी मनाने प्रतिदिन मन्दिरों में श्री कृश्ण की पूजा करने, सैकड़ो बार श्री कृश्ण की जीवन-कथा सुनने के बावजूद भी अपने जीवन को दिव्य नहीं बना पायें और उन्हे यह भी मालूम न होने के कारण कि वर्तमान समय कौन-सा है तथा भविश्य में कौन-सा समय आने वाला है, वे अज्ञान-निद्रा में सोये पड़े है तथा पुरूशार्थहीन हैं।
अब यदि उन्हें यह सत्यता मालूम हो जाए कि वर्तमान समय ही कलियूग के अन्त और सतयुग के आदि का संगम समय हे जबकि परमपिता परमात्मा षिव प्रजापिता ब्रह्मा के तन में अवतरित होकर पुनः गीता-ज्ञान स्वं राजयोग की षिक्षा दे रहे है और कि निकट भविश्य के श्री कृश्ण का सच्चा, दैवी स्वराज्य षुरू होने वाला है और श्री कृश्ण तो सोलह कला सम्पूर्ण पवित्र एंव मर्यादा पुरूशोत्तम थे तो वे भी अब इस ज्ञान तथा योग की धारणा करेंगे तथा भविश्य में श्री कृश्ण के दैवी स्वं स्र्वागिक स्वराज्य में देव पद प्राप्त करने का पुरूशार्थ करने लगेंगे जैसे कि इस ब्रह्माकुमारी ईष्वरीय विष्व विद्यालय द्वारा इन रहस्यों को समझने वाले हजारों-लाखों नर-नारी यह सर्वोत्तम पुरूशार्थ करके अपने जीवन को पावन बनाकर हर्श प्राप्त कर रहे हैं।
ब्रह्माकुमारी आरती
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