New Delhi: The Vice President, Shri M. Venkaiah Naidu called for active participation from all sections of society for preservation and promotion of tribal culture.
Addressing the ‘AadivasiMahotsav -2020’ at Ramnagar, in Madhya Pradesh today the Vice President said that tribal communities represent the ancient most culture and values of India. “Our younger generations should be made aware of their eternal values and traditions.” He said.
Shri Naidu expressed his deep concern over the fact that around 250 languages have disappeared in last 50 years and most of these extinct languages belonged to tribal communities. He wanted the Universities to preserve and promote the local tribal culture. “When a language dies, it symbolises the downfall of a culture, a civilisation, a creative tradition”, he said.
He said that preservation of tribal culture was not the responsibility of governments alone and exhorted the country’s youth to care for our tribal history and heritage.
“When hotels can serve foreign cuisine, why can’t they promote local tribal flavours which are more suited to our bodily and climatic conditions? Why can’t city youth pursue tribal music and instruments as their hobby?”, he asked.
Expressing happiness that National Tribal University in Amarkantak has become functional, VP exhorted the scholars to research upon the tribal languages, literature, folk song, crafts etc.
“We should include the traditional tribal knowledge in our intellectual and academic discourse else these knowledge systems may go extinct in future”, he said.
Bringing out the relevance of tribal way of life, the Vice President said, – “Today when the world is beset by the problems such as global warming and climate change and increased frequency of natural disasters, our tribal communities can show us the path of sustainable development”.
He appreciated tribal communities for respecting nature and keeping harmonious relations with their environment and all living beings. Calling these as the great characteristics of the tribal cultures, the Vice President said that world can learn a lot from these communities.
“Mindless exploitation of nature will lead to disastrous consequences”, he added.
Sri Naidu further said that even while preserving their unique lifestyle and culture, the tribals should be made equal partner in India’s development journey. There is need for constant and constructive dialogue between the administration and local communities, he added.
Highlighting that violence is not solution to any problem, the Vice President said that left wing extremism has not solved any problem and way of ballot is better than the bullet.
Citing various constitutional provisions for the welfare of tribal areas, he called the development of our tribal communities is a prerequisite for the inclusive development.
Citing various Government schemes for the welfare of tribal communities such as Van BandhuKalyanYojana, minimum support price (MSP) for forest produce, VP expressed happiness over recent announcement by the President for setting up of 400 new Eklavya schools.
He expressed deep concern at the lower than average literacy rates among the tribal communities and appealed to them to send their children to schools. He specifically asked everyone to send their daughters to schools and turnBetiBachao -BetiPadhaointo a successful movement.
Emphasising the need for the promotion of entrepreneurship among the tribal youth, Shri Naidu opined that linking TRIFED with the wide marketing network of ‘Khadi and Village Industries Commission’ would provide access to a larger market for tribal handicrafts. He also suggested to give further push to online marketing of tribal products.
Mentioning various tribal struggles and movements such as Munda revolt, Santhal revolt, the Vice President said that tribal communities were the first to wage war of independence against colonial exploitation and oppression.
“Heroes such as Birsa Munda, Sidhu,Kanhu, RaniAvantibai are an inspiration for all and their life stories should be taught to children in our schools”, he said and added that “only then our history would be complete and inclusive.”
VP expressed satisfaction that in this year’s Padma awards also the government has recognised the people who dedicated their lives for the enrichment and promotion of tribal culture and the welfare of tribal communities.
Union Minister of State for Tourism and Culture, Shri Prahlad Singh Patel, Union Minister of State for Steel, Shri Faggan Singh Kulaste, Union Minister of State for Triabl Affairs, Smt. Renuka Singh and people’s representatives from the areawere among the dignitaries who graced the occasion.
Following is the full text of the speech –
“आज आदिवासी महोत्सव के अवसर पर आप सभी के साथ हमारे देश के मूल संस्कारों का उत्सव मनाने का सुयोग पा कर हर्ष का अनुभव कर रहा हूं। इस समारोह को आयोजित करने के लिए आयोजकों का अभिनन्दन करता हूं कि आपने मुझे वीरांगना रानी दुर्गावती और रानी अवंती बाई की पुण्य भूमि गोंडवाना, के दर्शन करने का अवसर प्रदान किया। यह क्षेत्र गोंड राजा हृदयशाह का है। मुझे हर्ष है कि उनकी यशस्वी विरासत को जीवित रखने के लिए आदिवासी महोत्सव का आयोजन राजा हृदयशाह द्वारा निर्मित रामनगर में किया जाता रहा है। इस अवसर पर यहां के लोकप्रिय शासकों और नायकों के पुण्य स्मृति को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।
मुझे बताया गया कि आदिवासी महोत्सव की यह रचनात्मक परम्परा 2015 में प्रारंभ की गई है जिसमें यहां के स्थानीय समुदाय की जीवंत शिल्प, कला, नृत्य और संगीत परम्परा का उत्सव मनाया जाता है, युवा कलाकार इन कलाओं का प्रदर्शन करते हैं, स्थानीय समुदाय के विकास के विषय में परिचर्चा होती है। इस अवसर का प्रयोग स्थानीय समुदाय को जनजातीय कल्याण के विभिन्न सरकारी प्रयासों और नीतियों से परिचित कराने के लिए किया जाता है।
बहनों, भाइयों, हमारे जनजातीय समुदायों का विकास न केवल हमारे समावेशी विकास के दर्शन की आवश्यक शर्त है बल्कि हमारा संवैधानिक दायित्व भी है। हमारे संविधान में जनजातीय क्षेत्रों और समुदायों के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं।
यह अटल जी की ही दूरदृष्टि थी कि उन्होंने जनजातीय मामलों के लिए एक अलग मंत्रालय का गठन किया। मुझे हर्ष है कि सरकारों द्वारा स्थानीय जनजातीय समुदायों की शिक्षा, स्वास्थ्य, समृद्धि और संस्कारों के संरक्षण और संवर्धन के लिए अभीष्ट प्रयास किए जा रहे हैं। एकलव्य विद्यालय हों या वन बंधु कल्याण योजना, ये जनजातीय परिवेश में शिक्षा, शिल्प और उद्यमिता विकास के लिए समर्पित कार्यक्रम हैं। यह संतोष का विषय है कि महामहिम राष्ट्रपति जी ने अपने अभिभाषण में इस वर्ष 400 एकलव्य विद्यालयों के निर्माण की घोषणा की है।
हमारे जनजातीय बहनों और भाइयों की आय बढ़ाने के लिए सरकार ने वन उत्पादों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना की घोषणा की गई है।
इसी प्रकार सरकार मिशन इन्द्रधनुष के माध्यम ग्रामीण जनजातीय क्षेत्रों के शिशुओं को गंभीर बीमारियों से निरापद करने का कार्यक्रम चला रही है, जिसकी सफलता जिला स्तर के स्थानीय प्रशासन पर निर्भर होगी।
जनजातीय शिल्प, वस्त्रों, वन उत्पादों और युवाओं की उद्यमिता के लिए आवश्यक बाज़ार उपलब्ध कराने के लिए, सहकारिता मॉडल पर TRIFED की स्थापना की गई है। मेरा सुझाव होगा कि क्या खादी ग्रामोद्योग के विस्तृत नेटवर्क से TRIFED को जोड़ कर जनजातीय शिल्प के लिए वृहत्तर बाज़ार उपलब्ध कराया जा सकता है। E COMMERECE के आने से बाजार को और भी विस्तृत किया जा सकता है।
आवश्यक है कि इस प्रकार के आयोजनों के माध्यम से जनजातीय समुदाय को ही नहीं बल्कि स्थानीय प्रशासन को भी परिचित कराएं।
मुझे हर्ष है कि जबलपुर के निकट ही अमरकंटक में राष्ट्रीय जनजातीय विश्विद्यालय ने कार्य करना शुरू कर दिया है। आवश्यक है कि ये विश्विद्यालय जनजातीय भाषाओं, साहित्य,लोक काव्य परंपरा, पर्यावरण सम्मत जीवन शैली, शिल्पों, तकनीकों का संकलन करें और उन पर शोध करें। हमारे अकादमिक और बौद्धिक विमर्श में जनजातीय पारंपरिक ज्ञान परम्परा पर शोध किया जाना जरूरी है नहीं तो ये समृद्ध परंपरा लुप्त हो जाएगी।
एक अध्ययन के अनुसार विगत 50 वर्षों में भारत में लगभग 250 भाषाएं और बोलियां विलुप्त हो गई है और इनमें से अधिकांश बोलियां जनजातीय समुदायों की हैं। एक भाषा के लोप के साथ ही एक सभ्यता, एक संस्कृति की सृजनात्मक परम्परा का अवसान होता है। अतः विश्वविद्यालयों से अपेक्षा करता हूं कि वे स्थानीय जनजातीय संस्कृति के संरक्षण और शोध का केंद्र बने।
इस वर्ष बजट में रांची में जनजातीय संग्रहालय स्थापित करने की घोषणा की गई है। जनजातीय शिल्प, साहित्य, कला परंपरा और जीवन शैली के विषय में वृहत्तर समाज को परिचित कराने के लिए, ऐसे संग्रहालय आवश्यक हैं।
लेकिन मित्रों, कोई भी संस्कृति या भाषा अकादमियों और विश्वविद्यालयों में नहीं बल्कि समाज में जीवन पाती है। क्या जनजातीय कलाओं को स्थानीय शहरी समुदाय में अपनाया नहीं जा सकता? क्या स्थानीय युवा आदिवासी वाद्यों और संगीत परम्परा को अपनी रुचि या शौक नहीं बना सकते? जो होटल विदेशी भोजन का प्रचार प्रसार करते हैं वो क्या जनजातीय पारंपरिक भोजन नहीं बना सकते, जो सदियों से हमारी पारंपरिक जीवन शैली के अनुकूल रहे हैं? हमें इस दिशा में जरूर विचार करना चाहिए। किसी भी संस्कृति को जीवंत रखने के लिए सरकारी नीतियों के अतिरिक्त स्थानीय समाज की सक्रिय भागीदारी की जरूरत होती है।
भारत विविधताओं से भरा देश है। हमारे यहां न सिर्फ क्षेत्रीय, भाषाई विविधता है बल्कि यह देश एक ही समय में कई सदियों में जीता है। अगर एक तरफ दिल्ली मुंबई जैसे महानगर हैं तो वहीं प्रकृति से अपने संस्कार पाने वाले हमारे जनजातीय समुदाय देश की विविधता को और समृद्ध करते हैं। हम सभी भारत की प्राचीन सभ्यता, उसके इतिहास के उत्तराधिकारी है, लेकिन हमारे जनजातीय समुदाय वास्तव में उन प्राचीन संस्कारों को अपने जीवन में जीते हैं। प्रकृति को माता के रूप में देखना उसकी असीम शक्तियों में ममता को देखना, उसे आदरपूर्वक पूजना-ये संस्कार हमें स्थानीय जनजातीय समुदायों से प्राप्त हुए हैं।
आदिकाल से ही भारतीय सभ्यता के विकास में हमारे जनजातीय समुदायों की महत्वपूर्ण भागीदारी रही है। वे भारतीय सभ्यता के अभिन्न अंग रहे हैं। रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथों में स्थानीय समुदायों का उल्लेख मिलता है, उनकी वीर परम्परा का उल्लेख मिलता है। यदि इन ग्रंथों का सामाजिक और anthropological दृष्टि से अध्ययन करें तो पाते हैं कि ये ग्रंथ देश के विभिन्न क्षेत्रों, स्थानीय वनवासी, जनजातीय समुदायों के बीच परस्पर संबंधों के विकास की जटिल प्रक्रिया का इतिहास हैं। आस्थाओं और मान्यताओं में संवाद की यह प्रक्रिया पीढ़ियों तक चली होगी। इसी प्रक्रिया ने भारतीय संस्कृति को सहिष्णु और समावेशी बनाया है। इसी विविधता को हमारे संविधान में स्वीकार भी किया गया है और संरक्षित भी।
वस्तुत: देश के हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत भी, अंग्रेज़ों की शोषणकारी नीतियों के खिलाफ 19वीं सदी के स्थानीय जनजातीय आंदोलनों से ही हुई। खानदेश के भील समुदाय का विद्रोह, बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडा आंदोलन, सिद्धू कान्हु के नेतृत्व में संथाल विद्रोह जैसे अनेक जनजातीय आंदोलनों ने ब्रिटिश साम्राज्य के शोषणकारी, क्रूर चरित्र को उजागर किया। 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में रानी अवंतीबाई की वीरता हर पीढ़ी के लिए वंदनीय है। इन आंदोलनों को हमारे इतिहास में स्थान मिलना चाहिए, तभी हमारा इतिहास सम्पूर्ण और समावेशी होगा। मुझे हर्ष है कि माननीय राष्ट्रपति जी ने, जनजातियों के वीर योद्धाओं के बलिदान से देशवासियों को परिचित कराने के लिए, उनकी स्मृति में संग्रहालय की स्थापना करने की घोषणा की है।
आज प्राकृतिक आपदाओं, प्रदूषित पर्यावरण से त्रस्त विश्व, जब प्रकृति सम्मत स्थाई विकास के रास्ते खोज रहा है, हमारे जनजातीय समुदायों के पास, पीढ़ियों के अनुभव से प्राप्त वह ज्ञान और विद्या है जो भविष्य के लिए स्थाई, समावेशी और प्रकृति सम्मत विकास सुनिश्चित कर सकता है।
गत वर्ष मुझे प्रयागराज में महाकुंभ के अवसर पर विश्व भर के जनजातीय समुदायों द्वारा आयोजित कीवा कुंभ में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ। मैंने अनुभव किया कि विश्व भर के सभी जनजातीय समुदायों में प्रकृति के अंधाधुंध दोहन और पर्यावरण के प्रदूषण को लेकर चिंता है, प्रकृति न केवल उनकी जीवनशैली का आधार है बल्कि उनकी सांस्कृतिक आस्थाओं का भी आधार है।
जैसा कि गांधी जी ने कहा था कि Earth provides enough to satisfy every man’s need but not every man’s greed, इन समुदायों ने पीढ़ियों से एक पर्यावरणीय नैतिकता, Environmental Ethics, विकसित की है, जो आज के तथाकथित सभ्य समाज के लिए भी अनुकरणीय है। प्रकृति का अंधाधुंध दोहन न केवल हमारे प्रकृतिक परिवेश का संतुलन बिगाड़ेगा और भविष्य में हमारे विकास को रोकेगा बल्कि हमारे विकास को संकीर्ण बनाएगा जिसमें हमारे जनजातीय समुदाय हाशिए पर होंगे। यह समावेशी, स्थाई विकास की – ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ की हमारी अवधारणा के खिलाफ है।
यह आवश्यक है कि जनजातियों के पारंपरिक ज्ञान और शिल्प को संरक्षित रखते हुए भी उन्हें राष्ट्रीय जीवन की मुख्य धारा में बराबर के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराए जाएं। जनजातीय समुदाय के विकास की अपेक्षाओं, आकांक्षाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आवश्यक है कि प्रशासन और स्थानीय समुदाय के बीच निरंतर रचनात्मक संवाद हो। इसमें विकास तथा परम्परा के बीच संवेदना और संतुलन की आवश्यकता होगी।
मुझे हर्ष है कि विगत वर्षों के भांति इस वर्ष भी सरकार ने ऐसी समर्पित कर्मठ विभूतियों को पद्म सम्मान से सम्मानित किया है, जैसे छाऊ नृत्य के गुरु शशधर आचार्य, संथाली भाषा की साहित्यकार सुश्री दमयंती बेशरा, चैती घोड्डा नर्तक उत्सव चरण दास,वन्य वनस्पति और औषधियों की जानकर सुश्री तुलसी गौड़ा, लोक संगीत के प्रवर्तक और अपने संगीत से आदिवासियों के अधिकारों को स्वर देने वाले मधु मंसूरी आदि अनेक विभूतियों को इस वर्ष पद्म सम्मानों से सम्मानित किया गया है। इस सम्मान से, हमने अपनी सभ्यता में अपनी ज्ञान परंपरा में, अपनी सांस्कृतिक विकास में और भावी प्रगति में, जनजातीय समुदायों के योगदान को आदरपूर्वक स्वीकार किया है।
हाल के दशकों में वामपंथी अतिवादी समूहों द्वारा जनजातीय क्षेत्रों में हिंसा और आतंक फैला कर विकास का मार्ग रोकने का प्रयास किया गया है। विकास के लिए शांति आवश्यक है। मुझे हर्ष है कि देश के विभिन्न क्षेत्रों में सरकारें वामपंथी हिंसा को रोकने में सफल हो रही है तथा स्थानीय समुदाय से बातचीत कर उनकी अपेक्षाओं का यथा संभव समाधान निकाल रही है। हाल में असम का बोडो समझौता इसी कड़ी का सराहनीय उदाहरण है।
प्राचीन महिष्मती का यह क्षेत्र ज्ञान का क्षेत्र है जहाँ शंकराचार्य और मंडन मिश्र का शास्रार्थ हुआ था। ज्ञान का यह क्षेत्र छोटी काशी के रूप में विख्यात है। मुझे अपेक्षा है कि इस आदिवासी महोत्सव के आयोजन से प्राचीन सतपुड़ा पहाड़ों की तलहटी में नर्मदा के समीप बसा, गौंड राजाओं का यह ऐतिहासिक क्षेत्र, पर्यटन का केन्द्र बनेगा, जिससे न केवल इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का विकास होगा, बल्कि अन्य क्षेत्र के देशवासियों को यहां की समृद्ध संस्कृति और प्राकृतिक सौंदर्य के विषय में जानकारी मिलेगी।
इस महत्वपूर्ण अवसर पर आपने मुझे अपने विचार साझा करने का मौका दिया, आप सभी के प्रति विनम्र आभार प्रकट करता हूं।