मुंबई: ”थियेटर से फिल्मों की दुनिया में जाने वालों को बॉलीवुड सम्मान तो देता है, उन्हें फिल्मों में दमदार भूमिकाएं भी देता है, लेकिन हीरो नहीं बनाता. थियेटर से गए कलाकारों को फिल्मों की चकाचौंध वाली दुनिया में हीरो की नजर से नहीं देखा जाता. क्योंकि हीरो तो चिकने-चुपड़े चेहरे वाले होंगे या फिर स्टार-पुत्र.” ये कहना है बिहार के पूर्णिया जिले के रहने वाले बॉलीवुड अभिनेता रविभूषण भारतीय का. फिल्म ‘पान सिंह तोमर’, ‘दबंग 2’ ‘ताबीर’ जैसी कई फिल्मों में अपने अभिनय प्रतिभा का लोहा मनवा चुके रविभूषण भारतीय ने विश्व थियेटर दिवस के अवसर पर इंडिया.कॉम से बात की. पेश है बातचीत के मुख्य अंश.
स्टेटस सिंबल बन गया है थियेटर
फिल्मी दुनिया में जाने से पहले भोपाल में प्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर के साथ अभिनय कर चुके रविभूषण भारतीय कहते हैं, ‘थियेटर कला की जननी है. हालांकि आज यह सिर्फ ‘सोल सटिस्फैक्शन’ यानी आत्मसंतुष्टि के स्तर तक सीमित होकर रह गई है. शहरों में तो इसे बौद्धिक विलास (इंटेलेक्चुअल एक्टिविटी) या ‘स्टेटस सिंबल’ के बतौर भी देखा जाने लगा है.’ उन्होंने कहा, ‘छोटे शहरों में पहले थियेटर आम लोगों की बातें कहने का माध्यम हुआ करता था, वहीं अब यह वीकेंड सेलिब्रेट करने का जरिया बनने लगा है. लोग शौकिया तौर पर नाटक देखने जाते हैं.’ यही वजह है कि थियेटर आजीविका का जरिया नहीं बन पाई है.
समर्पण और धैर्य चाहिए
थियेटर के लिए समय और प्रतिबद्धता के सवाल पर अभिनेता रविभूषण भारतीय ने कहा, ‘बॉलीवुड में या फिल्मों में काम करने वालों के पास तो समय का अभाव है ही, नाटक देखने वाले दर्शकों के पास भी समय का अभाव हो गया है. जबकि नाटक धैर्य और समय मांगता है. उन कलाकारों के लिए भी जो थियेटर करते हैं और दर्शकों के लिए भी जो नाटक देखने जाते हैं.’ नाटकों के विषय-वस्तु संबंधी सवाल पर उन्होंने कहा, ‘आजकल नए नाटक नहीं किए जा रहे हैं. पुराने नाटकों के विषय-वस्तु को बदल-बदल कर पेश किया जा रहा है. इसलिए भी नाटकों से दर्शकों की दूरी बन रही है. लोग नए विषय ढूंढ़ते हैं, लेकिन वह नहीं मिलता, इसलिए दर्शक छिटकना शुरू कर देते हैं.’
नाटक को प्रोडक्ट न बनाएं
अंग्रेजी भाषा के नाटकों में अश्लील या द्विअर्थी संवादों की बहुतायत पर चिंता जताते हुए रविभूषण ने कहा, ‘आजकल अंग्रेजी या मल्टी-लैंग्वेज नाटक पेश करने के नाम पर नाटककार संवादों में अश्लील या द्विअर्थी डायलॉग का इस्तेमाल करते हैं. यह एकबारगी तो दर्शकों का मनोरंजन करता है, लेकिन नाटकों के भविष्य को देखते हुए गलत है.’ उन्होंने कहा, ‘दरअसल इसके पीछे नाटककारों की गलती नहीं है. आजकल थियेटर को स्पॉन्सर किया जाने लगा है. ऐसे में प्रायोजक नाटकों में अपने हिसाब से फेरबदल कराते हैं. वे नाटककार या निर्देशकों को ‘बाजार’ के लिए नाटक पेश करने को कहते हैं. पहले से ही आर्थिक तंगी से जूझ रहा थियेटरकर्मी, बाजार की इस मांग के आगे टिक नहीं पाता है. मजबूरन वह नाटकों में ऐसे संवाद डालता है.’ रविभूषण ने कहा कि रंगकर्म से जुड़ा हुआ व्यक्ति इस पेशे में पैसों के लिए नहीं आता, वह दिल से या अपने जज्बात से इस पेशे को अपनाता है. इसलिए नाटकों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए, न कि उसकी मार्केटिंग होनी चाहिए.
जिंदगी की समझ विकसित होती है
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में थियेटर की दुनिया के बड़े नाम माने जाने वाले हबीब तनवीर के रंगकर्म की याद दिलाते हुए रविभूषण ने कहा, ‘हबीब साहब के ग्रुप में कई कलाकार ऐसे भी होते थे जो हिन्दी नहीं जानते थे. वे जिंदगी की किताब से नाटक को सीखते थे. इसलिए सिर्फ सुनने भर से ही उनको हिन्दी के डायलॉग याद हो जाते थे.’ इसी तरह वर्तमान में प्रसिद्ध रंगकर्मी रतन थियम का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, ‘थियम साहब के थियेटर ग्रुप में कई कलाकार ऐसे भी हैं जो खेती-किसानी से जुड़े होते हैं. वे स्टेटस सिंबल के लिए नाटक नहीं करते, बल्कि थियेटर की दुनिया को जीते हैं और अपने अनुभव को मंच पर उतारते हैं. उन्होंने बताया, ‘थियेटर जिंदगी की समझ है. आप परिवार, समाज और अपने आसपास के माहौल को देखकर जो अनुभव करते हैं, उसे ही मंच पर उतारते हैं, वही नाटक है. यह फिल्मों की चकाचौंध नहीं है. इसे इस रूप में ही लिया जाना चाहिए.’ (इंडिया.कॉम)