नयी दिल्ली: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक माेहन भागवत ने आज कहा कि देश का संविधान मूर्धन्य लोगों द्वारा व्यापक सहमति से बनाया गया है जिसे संघ देश की सर्वाेच्च सामूहिक चेतना के रूप सम्मानपूर्वक स्वीकार करता है।
श्री भागवत ने यहां विज्ञान भवन में ‘भविष्य का भारत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण’ विषय पर अपनी व्याख्यानमाला के दूसरे दिन के उद्बोधन में हिन्दुत्व एवं संविधान पर अपने विचारों को खुल कर रखा अौर कहा कि आधुनिक जीवन में संविधान देश की सामूहिक चेतना का मार्गदर्शक तत्व है और उसका पालन करना सबका कर्तव्य है।
उन्होंने दोहराया कि संघ स्वतंत्र भारत के सभी प्रतीकों को स्वीकार करता है और संविधान को भी सम्मान देता है। क्योंकि संघ मानता है कि संविधान को देश के मूर्धन्य लोगों ने अपनी सर्वसम्मति से तैयार करने के प्रयासों के तहत पारित करके बनाया है।
उन्होंने संविधान को लेकर संघ के विचारों की व्याख्या करते हुए कहा कि संविधान की प्रस्तावना में नागरिकों के कर्तव्य, मार्गदर्शक सिद्धांत और नागरिक अधिकार दिये गये हैं जो कभी नहीं बदलते है। कानून बदलते रहते हैं। उन्होंने कहा कि संविधान भी इतना उदार है कि उसमें परिवर्तन का भी अधिकार दिया गया है। वह कार्य करने का फोरम संसद है। उसकी व्याख्या न्यायालय करता है।
श्री भागवत ने संविधान की प्रस्तावना को अंग्रेजी में पढ़ा और कहा कि प्रस्तावना में ‘सेकुलर’ और ‘सोशलिस्ट’ को बाद में जोड़ा गया है लेकिन उसे भी संघ स्वीकार करता है। उन्होंने धर्म के आधार पर भेदभाव की धारणाओं का खंडन करते हुए कहा कि विश्व काे धर्म एवं धम्म शब्द भारत की देन है। इसे अंग्रेजी के रिलीजन से नहीं समझा जा सकता है।
सरसंघचालक ने हिन्दू धर्म को वैश्विक धर्म बताते हुए कहा कि इसमें सभी विविधताओं की स्वीकार्यता है और हमारे यहां अपने विरोधी को दबाने की भावना नहीं होती है। हिन्दू राष्ट्र की संघ की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा, “हिंदू राष्ट्र का मतलब यह नहीं है कि इसमें मुसलमान नहीं रहेगा, जिस दिन ऐसा कहा जायेगा उस दिन वो हिंदुत्व नहीं रहेगा। हिंदुत्व तो विश्व कुटुंब की बात करता है।”
उन्होंने कहा कि सभी के कल्याण में अपना कल्याण और अपने कल्याण से सबका कल्याण मानकर ऐसा जीवन जीने का अनुशासन तथा और सभी के हितों का संतुलित समन्वय हिंदुत्व है। एेसा ही भारत से निकले सभी संप्रदायों का जो सामूहिक मूल्य बोध है, उसी को हिंदुत्व कहा जाता है। उन्होंने कहा कि भारत में सभी विविधतायें स्वीकार्य हैं, भारत की पहचान यह बनी है। यह वैश्विक धर्म है और भारत में इसका निर्माण हुआ।
उन्होंने कहा कि संसार को एक न्यासी के नाते समय समय पर विश्व को इस ज्ञान को देने वाला भारत ही है। वैदिक ऋषियों के समय भारत का ज्ञान पूरे विश्व में गया। तथागत के काल में सारी दुनिया में इसी धम्म का प्रचार हुआ। आज भी अनेकों संत महात्मा जाते हैं और इन बातों को बताते हैं, लेकिन वह धर्मांतरण नहीं करते। उन्होंने कहा, “हिंदुत्व के तीन आधार हम मानते हैं, देशभक्ति, पूर्वज गौरव, और संस्कृति, यह सभी का सांझा है।”
श्री भागवत ने कहा कि संघ का काम बंधु भाव का है और इस बंधु भाव का एक ही आधार -विविधता में एकता है और यह विचार देने वाली हमारी निरंतर प्रवाहमान विचारधारा है जिसे दुनिया हिंदुत्व कहती है। इसलिये हम हिंदू राष्ट्र कहलाते हैं। उन्होंने कहा, “हमें सामर्थ्य संपन्न देश चाहिये, लेकिन सामर्थ्य का उपयोग दूसरों को दबाने के लिये नही करना, लेकिन जिसका सामर्थ्य नहीं है, उसकी अच्छी बातें भी दुनिया मानती नहीं है, यह वास्तविकता है।”
उन्होंने कहा कि हिन्दुओं का संगठन किसी के खिलाफ नहीं है और हमारा कोई शत्रु नहीं है। कोई हमें शत्रु माने तो भी हम उसकी शत्रुभावना के शमन की कामना भर करते हैं। उन्होंने कहा कि धर्म मूल्यों के साथ कर्मकांड से बंधा है। हम चाहते हैं कि नयी देश कालिक परिस्थिति के अनुरूप नवीन सनातन धर्म का आविर्भाव हो। हम अपने मूल्यों के आधार पर हिन्दुत्व की इसी संकल्पना के आधार पर चल रहे हैं। उसमें विकास की कल्पना भी आ गयी है, लेकिन हमें पश्चिम का अंधानुकरण नहीं करना है। संतुलित एवं समन्वित विकास होना चाहिए। अर्थ और काम को अनुशासन से ग्रहण किया जाये। कमायें और दिल खोल कर बांटें। कमाई से अधिक महत्वपूर्ण विनियोग है। जीवन सफल ही नहीं सार्थक हो। किसी की बुरी कामना नहीं हो। रॉयल बुलेटिन