नई दिल्लीः “मुझे कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय तथा पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के संयुक्त सहयोग से हरित कृषि पर भारत सरकार के एक अभिनव नवाचारी पूर्णकालिक परियोजना विकास कार्य को शुरू करने के प्रयोजनार्थ राष्ट्रीय कार्यशाला में उपस्थित होकर प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। मैं सरकारी विभागों, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, गैर सरकारी संगठनों और किसान भाइयों के इस कार्यशाला में शामिल होने पर उनका हार्दिक अभिनंदन करता हूं।
भारत सरकार ने आगामी 6 वर्षों में किसानों की आय को दोगुना करने का निर्णय लिया है एवं इस हेतु कृषि क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। जैसा की हम सब जानते हैं कि देश की कृषि भूमि का लगभग 67 प्रतिशत हिस्सा उन सीमांत किसानों के पास है जिनके पास 1 हैक्टेयर से कम जोतें हैं जो 10 हैक्टेयर या उससे अधिक विशाल जोतों के मुकाबले में 1 प्रतिशत से भी कम है। यह उस दबाव और तनाव का द्योतक है जिससे भारत के सीमांत किसान जूझ रहे हैं। आज भारतीय कृषि को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है इनमें से कुछ प्रमुख चुनौतियां हैं- लगातार बढ़ती हुई आबादी हेतु खाद्य सामग्री की पूर्ति, जलवायु परिवर्तन एवं इससे होने वाली विपरीति परिस्थितियां, प्राकृतिक संसाधनों का सतत उपयोग, खाद्यान्न की बरबादी को रोकना इत्यादि।
भारतवर्ष में भी विश्व के अन्य देशों की तरह असंधारणीय कृषिगत क्रियाकलापों से विभिन्न चुनौतियां उत्पन्न हुई हैं और ये परिस्थितयां आगामी वर्षों में भी होने की संभावना है। इन कारणों से कृषि क्षेत्र में कई समस्यां उत्पन्न हुई हैं। जैसे कि न्यूट्रियेंट सायकल, परागण इत्यादि के साथ-साथ कृषि भूमि की उत्पादकता में कमी आई है।
भारत द्वारा जैव विविधता सम्मेलन को प्रस्तुत 5 वीं राष्ट्रीय रिपोर्ट इस बात को इंगित करती है कि भूमि उपयोग में परिवर्तन, जो कि मुख्य रूप से कृषि के विस्तार और कृषि तीव्रता में वृद्धि के कारण हुई है, देश के कई भागों में अत्यधिक दबाव पैदा हुआ है। यह दबाव मुख्य रूप से वन क्षेत्रों में कमी और वन क्षेत्रों के विखंडित, वेट लैंड समाप्त होने एवं चारागाह मैदानों को कृषि क्षेत्र में परिवर्तित होने के कारण हुआ है। इसके अतिरिक्त बढ़ी हुई कृषि तीव्रता एक ओर खाद्यान्न समस्या को निदान किया है वहीं दूसरी ओर इसके कारण जैव विविधता में कमी आई है। वन्य जीवों एवं मनुष्यों के लिए संघर्ष बढ़ा है तथा मरूस्थलीकरण एवं भूमि अवक्रमण की दर में वृद्धि हुई है।
किसान पारंपरिक फसलों को छोड़कर संकर बीजों को एवं ज्यादा उत्पादन देने वाले वैरायटी का ही उपयोग कर रहा है। जिसके कारण अन्य दृष्टि से महत्वपूर्ण वैरायटियां/प्रजातियां लुप्त हो गई हैं या लुप्त होने के कागार पर हैं। भूजोतों में हो रहे लगातार विखंडन, असतत कृषि क्रियाकलापों के कारण प्राकृतिक संसाधनों पर अनावश्यक दबाव पड़ने से जमीन की गुणवत्ता में गिरावट आई है। इसके साथ ही विश्व में हो रहे जलवायु परिवर्तन के कारण भूमि एवं जल संसाधनों पर दबाव बढ़ा है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान का ऐसा अनुमान है कि देश में लगभग 120.40 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्र विभिन्न प्रकार के भूमि अवक्रमण (लैंड डिग्रेडेशन) से प्रभावित है। देश में उपलब्ध जल संसाधन का मुख्य उपभोक्ता भारतीय कृषि है एवं कृषि में भू-जल का उपयोग देश के कई भागों में अत्यधिक हो रहा है जिसके कारण पारिस्थिकीय एवं सामाजिक समस्याएं भी उत्पन्न हो रही है। कृषि रसायनों जैसे कि रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों का अविवेकपूर्ण उपयोग जल प्रदूषण के प्रमुख कारक के रूप में उभरकर आए है। इसके साथ ही भारत जैसे देश पर पृथ्वी के बढ़ते हुए तापमान से कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
भारत सरकार इन समस्याओं के निदान हेतु विभिन्न योजनाएं जैसे जलवायु स्मार्ट कृषि, सतत भूमि उपयोग एवं प्रबंधन, जैविक उत्पादन, स्थानीय और पारांपरिक ज्ञान का उपयोग तथा कृषि जैव विविधता सरंक्षण जैसी युक्तियों का उपयोग कर रहा है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय स्तर पर भी कई कार्यक्रम जैसे कि कृषि के सतत विकास के लिए राष्ट्रीय मिशन (एनएमएसए), समेकित बागवानी विकास मिशन (एमआईडीएच), राष्ट्रीय पशु विकास मिशन और परंपरागत कृषि विकास योजना (पीकेवीबाई) इत्यादि का कार्यान्वयन किया जा रहा है। किसान विद्यालयों के जरिए व्यावहारगत परिवर्तनों को प्रोत्साहित करने एव समेकित और प्रतिभागात्मक प्रयासों के माध्यम से न केवल राष्ट्रीय कृषि विस्तार और प्रौद्योगिकी मिशन के सार्थक नतीजे आ रहे हैं बल्कि इससे देशभर में स्थानीय श्रेष्ठ अभ्यासों का भी राष्ट्रीय डाटाबेस मजबूत हो रहा है। उक्त योजनाओं को प्रभावशाली बनाने के लिए राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन रणनीतिक ज्ञान मिशन और राष्ट्रीय जलवायु सह्य कृषि (एनआईसीआरए) परियोजना के तहत प्राप्त अनुभवों को क्षेत्रीय स्तर पर क्रियान्वयन भी किसानों के माध्यम से कृषि भूमि पर कराया जा रहा है।
वस्तुत: योजना को भारत सरकार कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय (एसीएंडएफडब्ल्यू) तथा पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफएंडसीसी) द्वारा मिलजुलकर इन समस्याओं का निदान वैश्विक पर्यावरण सुविधा (जीईएफ), संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) और भारत के अन्य महत्वपूर्ण राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के सहयोग से किया जाएगा।
मुझे यह भी बताया गया है कि वैश्विक पर्यावरण फंड द्वारा पोषित यह योजना 7 वर्षों में क्रियान्वित की जाएगी। तथा इसके अंतर्गत कृषि क्षेत्रों में लगातार उत्पन्न हो रही चुनौतियों को देखते हुए कृषि में नीतिगत प्रबंधन बदलाव हेतु कार्य किए जाएंगे। मुझे यह भी जानकारी दी गई है कि योजना के क्रियान्वयन के फलस्वरूप निम्नानुसार मुख्य परिणाम प्राप्त होने की संभावना है परंतु इसके विस्तृत योजना प्रतिवेदन तैयार करने में कुछ परिवर्तन हो सकते हैं:
• 5 राज्यों के द्वारा जैव विविधता की दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्रों को चिन्हित करते हुए ऐसे 10 लाख हैक्टेयर से भी अधिक क्षेत्र के लिए संरक्षणात्मक नीतियों को अपनाना एवं उसे क्रियान्वित कराया जाना।
• छोटे और सीमांत किसानों की आय और जीवन स्तर में सुधार लाने के लिए प्रायोगिक स्वसंधारणीय वित्तीय मॉडल की रचना एवं ऐसे मॉडलों को अन्य क्षेत्रों में लागू करने का प्रयास।
• किसानों द्वारा लगभग 1 लाख हैक्टेयर में वैश्विक रूप से महत्वपूर्ण कम से कम 10 पारंपरिक अथवा स्थानीय पादप एवं पशु प्रजातियों अथवा किस्मों की जैनेटिक विविधता का संरक्षण।
• उन्नत कृषिगत कार्यक्रमों के जरिए लगभग 27 मिलियन टन के समकक्ष कार्बन डाई आक्साइड के स्तर में कमी।
• कृषिगत उत्पादों और सरंक्षण कार्यों के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर उत्तरदायी अभिकरणों के बीच भागीदारी में बेहतर समन्वय।
• ऐसा साक्ष्य उपलब्ध कराना जो नीति निर्धारकों को कृषि क्षेत्र में नीतियों में परिवर्तन हेतु निर्णय लेने में सहायक हो।
• पणधारियों (स्टेकहोल्डर) के साथ श्रेष्ठ अभ्यासों, ज्ञान प्रबंधन और क्षमता निर्माण कार्यों में भागीदारी सुनिश्चित करना।
मैं, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय तथा पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफएंडसीसी) कृषि एवं खाद्य संगठन (एफएओ) को सुझाव देना चाहूंगा कि वे उपलब्ध संसाधनों का समुचित उपयोग करे। योजना के माध्यम से वे कृषि विज्ञान केंद्र राज्य कृषि विश्वविद्यालयों राज्य शासन के विभागों, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के संस्थानों, किसानों, स्व-सहायता समूहों (एसएचजी) विस्तार अभिकरणों जैसे सभी पणधारियों (स्टेकहोल्डर) से परामर्श कर ऐसी सारगर्भित योजना तैयार करें जिससे एक ऐसे कार्यक्रम का नींव पड़े जो कृषि क्षेत्र के विकास के साथ-साथ खाद्य एवं पोषाहारी सुरक्षा (न्यूट्रेशनल सिक्योरिटी) को सुदृढ़ करने, कृषि क्षेत्र में जलवायु जोखिमों को कम करने, बाजार के साथ स्वस्थ संबंध स्थापित करने के साथ-साथ कृषि के समावेशीय विकास में सक्षम हो, ताकि सभी परियोजना स्थलों में छोटे और सीमांत किसानों के संरक्षण और आजीविका को संवर्धित करने में संधारणीय और पुनरावृत्तिगत व्यापार मॉडलों का मार्ग प्रशस्त हो जिससे कि छोटे एवं सीमांत कृषक आसानी से भविष्य में स्वयं करने में समर्थ हो तथा किसान की आमदनी को दोगुनी करने के प्रयासों में सफलता प्राप्त हो।
मुझे यह भी देखना होगा कि योजना के क्रियान्वयन में इस महत्वपूर्ण कौशल और प्रौद्योगिकी सुविधाओं को किसानों तक पहुंचाने के लिए अधिक से अधिक स्वयंसेवी समूह (एसएचजी) विशेष रूप से महिला किसानों द्वारा स्वयंसेवी समूह गठित किया जाए। दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा जिसका मैं उल्लेख करना चाहूंगा, वह यह है कि कृषि क्षेत्र में महिलाओं के सारगर्भित योगदान को सूचना प्रौद्योगिकी के द्वारा आगे बढ़ाया जाए ताकि कृषि क्षेत्र के समग्र विकास का मार्ग प्रशस्त हो।
मुझे विश्वास है कि जीईएफ परियोजना जो कृषि क्षेत्र में इतने बड़े पैमाने पर पहली बार चलाई जाएगी। वैश्विक पर्यावरणीय हितों, महत्वपूर्ण जैव-विविधता, संरक्षण कार्यों और विभिन्न संबंधित परिदृश्यों के परिप्रेक्ष्य में भारतीय कृषि को आगे बढ़ाने तथा किसानों की आमदनी बढाने में एक सारगर्भित कदम साबित होगा। मैं इस परियोजना से संबंधित सभी सदस्यों, प्रतिनिधि मंडलों और आयोजकों को बधाई देना चाहूंगा।
मैं आशा करता हूं कि कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफएंडसीसी) और एफएओ से संबंधित सदस्य तथा अन्य पणधारी (स्टेकहोल्डर) इस दिशा में सारगर्भित और महत्वूपर्ण फ्रेमवर्क का नींव रखेंगे, जिसके नतीजे में 1 मिलियन हैक्टेयर अवक्रमित जमीन के पारिस्थितिकीय बहालीकरण के जरिए संधारणीय व्यापारिक मॉडलों के स्वपुनरावृत्तिकरण के साथ एक सशक्त आधार के निर्माण में सहायक होगा।”
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