हमें अपनी मातृभाषाओं की ओर लौटना होगा। दुनिया की ज्ञान परंपरा से जुड़ने के लिए अन्य भाषाओं का ज्ञान होना चाहिए, लेकिन मातृभाषा की अपनी अलग ही अहमियत है। मातृभाषा ‘हम’ की अवधारणा पर कार्य करती है ‘अहम्’ की नहीं जो कि वसुधैव कुटुम्बकम का मूल प्राणतत्व है। उक्त उद्गार चर्चित साहित्यकार एवं वाराणसी परिक्षेत्र के पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ‘अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस’ पर भोजपुरी अध्ययन केंद्र में आयोजित ‘मौलिकता और मातृभाषा’ विषय पर आयोजित परिचर्चा की अध्यक्षता करते हुए व्यक्त किये।
पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि, अपनी विरासत को संरक्षित रखने और अगली पीढ़ियों तक सभ्यता और संस्कृति की थाती पहुंचाने में मातृभाषा का योगदान अतुलनीय है। भारत में भाषाओं और बोलियों की बहुलता है, अत: इनके बीच सामंजस्य और समन्वय की आवश्यकता है। अमृत काल के दौर में एक दूसरे के सम्मान से हम अपनी मातृभाषाओं का संरक्षण और संवर्द्धन कर सकते हैं। मातृभाषा के विकास के लिए इसको रोजगार और व्यापार से जोड़ने की जरूरत है।
मुख्य अतिथि पद्मभूषण प्रो. देवी प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि भाषा के माध्यम से हमें यथार्थ का बोध होता है कि हम क्या हैं तथा मातृभाषा के माध्यम से हमें अपने यथार्थ व्यक्तित्व का बोध होता है। व्यक्ति के मौलिक भाव उसके मौलिक विचार उसे उसकी अपनी मातृभाषा में ही आते हैं, उसके नवीन ज्ञान के स्रोत उसकी मातृभाषा से प्रस्फुटित होते हैं। मातृभाषा नवीन मार्ग दिखलाती है।
मुख्य वक्ता के रूप में अपना वक्तव्य देते हुए सोच-विचार पत्रिका के सम्पादक डॉ. जितेन्द्रनाथ मिश्र ने भाषा का अर्थ लक्षण बताया जिसमें उसका अस्तित्व उसकी अस्मिता आदि सम्मिलित होते हैं जिससे वह व्यक्ति को प्रकाशित करती है। मातृभाषा व्यक्ति के समस्त को समाज के सम्मुख प्रस्तुत करती है। मातृभाषा संस्कृति का लक्षण है। उसमें मौलिकता, क्षमता तथा प्रतिभा है।
स्वागत वक्तव्य देते हुए वरिष्ठ कवि व केंद्र समन्वयक प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल ने कहा कि भोजपुरी को मान्यता दिलाने के प्रयास 1960 से शुरू हुए थे लेकिन अभी तक उसे अपना सम्मान नहीं मिल पाया है अतः भोजपुरी को उसको अपना सम्मान मिलना चाहिए तथा ‘अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस’ के साथ साथ एक ‘राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस’ की भी घोषणा होनी चाहिए। डॉ. शुक्ल ने कहा कि मौलिक चिंतन स्वाभाविक, स्वाधीन तथा स्वविवेक से तय भाषा में ही हो सकता है अर्थात उसमें कोई औपनिवेशिक दबाव नहीं हो और मातृभाषाओं में यह शक्ति होती है। मातृभाषा अन्य नहीं अनन्य होती है, वह स्वाधीनता और विवेक से युक्त होती है।
विशिष्ट वक्ता अध्यक्ष वैदिक दर्शन विभाग प्रो. श्रीकृष्ण त्रिपाठी ने कहा कि मातृभाषा वह भाषा है जो एक बच्चे को उसकी माँ सिखाती है। मातृभाषा हमारे संस्कृति एवं संस्कारों को लेकर चलती है तथा उससे बंधुत्व व प्रेम बढ़ता है। मातृभाषा का प्रयोग, उसका परिष्कार और विकास ही देश को प्रतिष्ठा दिलाता है।
हिंदी विभाग में सहायक आचार्य डॉ. अशोक ज्योति ने कहा कि मातृभाषा में वह शक्ति है जो राष्ट्रों का निर्माण कर सकती है। बांग्लादेश का निर्माण हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं। व्यक्ति को अपने समाज का व्यवहार अपनी मातृभाषा में करना चाहिए तथा अपनी मातृभाषा के व्यवहार में हमें हीनता का बोध बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए। भाषा के प्रति जो समाज जितना चैतन्य रहेगा वो समाज अपनी जड़ों से उतना ही मजबूत होगा।
कार्यक्रम का संचालन केंद्र की शोधार्थी शिखा सिंह ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन उदय प्रताप पाल ने किया। कार्यक्रम में केंद्र के संगीत शोधार्थियों ने रघुवीर नारायण के ‘बटोहिया’ तथा लोकगीत ‘रेलिया बैरन’ की सांगीतिक प्रस्तुति भी दी। इस अवसर पर प्रो. देवेश त्रिपाठी, प्रो.धनंजय पाण्डेय, डॉ. प्रभात कुमार मिश्र, डॉ. विवेक सिंह, डॉ. महेंद्र कुशवाहा, डॉ. प्रीति त्रिपाठी, डॉ विंध्याचल यादव के साथ तमाम साहित्यकार, प्राध्यापक, बुद्धिजीवी और शोधार्थी उपस्थिति रहे।