नई दिल्ली: एक तरफ दुनिया बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक संबंध में नैतिक, वैधानिक और सामाजिक संदर्भों पर संघर्ष कर रही है वहीं भारत पिछले 70 वर्षों से इस विषय से जुड़ा हुआ है और उसने एक मूल्यवान वैश्विक बौद्धिक संसाधन विकसित किया है। लोकतांत्रिक भारत में अल्पसंख्यक अधिकारों का मुद्दा दुनिया के लिए एक सीख है। आज नई दिल्ली में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग द्वारा आयोजित ‘भारत में अल्पसंख्यक अधिकार और लोकतंत्र’ पर 9वें वार्षिक व्याख्यान 2016-17 देते हुए दिल्ली विश्वविद्याल के प्रो. पीटर रोनाल्ड डिसूजा ने यह व्यक्त किया।
प्रो. डिसूजा ने कहा कि इस बहस से अल्पसंख्यक अधिकारों पर तीन प्रमुख विचार सामने आते हैं। पहला, यह कि सांस्कृतिक और धार्मिक बहुलता राष्ट्र के लिए संपदा होते हैं न कि खतरा। विभाजन के बाद यह विचार सामने आया कि देश को मजबूती के साथ एकीकृत किया जाए। दूसरा, सांस्कृतिक स्वायत्ता को अनुमति दी जानी चाहिए। इसके तहत व्यक्ति अपने सांस्कृतिक संसाधनों का इस्तेमाल करके अपने व्यक्तित्व को विकसित कर सकता है और तीसरा यह कि इस विश्वास को संवैधानिक बनाया जाए और उसे केवल वैधानिक स्थिति तक न सीमित रखा जाए।
प्रो. डिसूजा ने कहा कि एक साथ रहना साक्षेप और साकारात्मक होता है। उन्हें नियमित रूप से दुरुस्त करना चाहिए। यह हमारे लोकतंत्र की देन है कि यहां अल्पसंख्यक मामलों के संबंध में संस्थान कारगर तरीके से काम करते है। उन्होंन कहा कि हम लोग अल्पसंख्यक अधिकारों के प्रति ईमानदारी के साथ प्रतिबद्ध है और हमें बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक संबंधों को न केवल दुरुस्त करना चाहिए, बल्कि अल्पसंख्यकों के बीच मौजूद अल्पसंख्यक वर्ग पर भी ध्यान देना चाहिए।
इस अवसर पर अल्पसंख्यक मामलों के राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) और संसदीय कार्य मंत्री श्री मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि विश्व के किसी भी लोकतंत्र की तुलना में अल्पसंख्यक भारत में अधिक सुरक्षित और मजबूत है। उन्होंने कहा कि राजग सरकार के लगभग 2.6 वर्षों के कार्यकाल के दौरान हम लोगों ने अल्पसंख्यकों के बीच सामानता का भाव पैदा करने के लिए बहुत परिश्रम किया है।
श्री नकवी ने कहा कि अल्पसंख्यकों को भी समान रूप से “प्रधानमंत्री जनधन योजना,” उज्ज्वला योजना “,” दीन दयाल ग्राम ज्योति योजना”, छात्रों को छात्रवृत्तियां, रोजगार उन्मुख, कौशल विकास योजना जैसी योजनाओं के लिए स्वास्थ्य केन्द्रों और शैक्षिक संस्थानों का समान रूप से लाभ मिल रहा है। इसके अलावा अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय की अनेक कल्याणकारी योजनाएं “प्रधानमंत्री के नए 15 सूत्री कार्यक्रम”, “नई मंज़िल”, “नई रोशनी” “सीखो और कमाओ”, “उस्ताद”, “प्री-मैट्रिक और पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति” तथा मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, स्टॉर्ट अप इंडिया जैसी योजनाओँ से भी अल्पसंख्यक समान रूप से लाभान्वित हुए हैं।
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना 1978 में सरकार की दिनांक 12 जनवरी, 1978 की अधिसूचना के माध्यम से की गयी थी। बाद में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 के अधिनियमन के द्वारा एक स्वायत्त आयोग, जिसे बेहतर रूप से एमसीएम के रूप में जाना जाता है, की स्थापना 17 मई, 1993 को हुई और इसके पहले अध्यक्ष ने जुलाई, 1993 में पदभार संभाला।
जुलाई, 1993 में वैधानिक आयोग की स्थापना के उपलक्ष्य में एनसीएम ने 2008 में एक व्याख्यान श्रृंखला शुरू की। पहला एनसीएम व्याख्यान भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए एम अहमदी ने 2008 में दिया गया था।
जस्टिस राजेंद्र सच्चर ने दूसरा एनसीएम व्याख्यान “भारत के संविधान में अल्पसंख्यक” विषय पर वर्ष 2009 में दिया था। वर्ष 2010 में भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम, ने समृद्ध, शांतिपूर्ण, समावेशी और प्रसन्न समाज के विकास पर तीसरा एनसीएम व्याख्यान दिया था।
चौथा एनसीएम व्याख्यान वर्ष 2011 में महामहिम दलाई लामा ने “विविध समाजों में करुणा” विषय पर दिया था।
डॉ शशि थरूर ने पांचवां एनसीएम व्याख्यान वर्ष 2012 में “कौन भारतीय है; अल्पसंख्यकों का एक राष्ट्र’’ विषय पर दिया था।
छठा वार्षिक व्याख्यान बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने ‘भारत के विचार’ विषय पर वर्ष 2013 में दिया था।
सातवां वार्षिक व्याख्यान श्री फली नरीमन ने वर्ष 2014 में “अल्पसंख्यक चौराहे पर, न्यायिक घोषणाओं पर टिप्पणियाँ” विषय पर दिया था।
आठवां वार्षिक व्याख्यान वित्त और कॉरपोरेट मामलों के मंत्री श्री अरुण जेटली ने ” अल्पसंख्यकों के आर्थिक सशक्तिकरण विषय पर दिया था।