भारत सरकार ने पिछले एक दशक में सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय (‘सभी के कल्याण के लिए, सभी की खुशी के लिए’) की उक्ति को एक स्पष्ट वास्तविकता में बदल दिया है। जनहित (‘सार्वजनिक हित’) के प्रचलित सार को ‘मुख्यधारा’ के लिंग आधारित अनुभवों के नए आयामों से जोड़ा गया है। देश की विभिन्न नीतियों और इनके कार्यान्वयन के माध्यम से लैंगिक समानता को मुख्यधारा में लाया गया है तथा यह सुनिश्चित किया गया है कि यह कृत्रिम रूप से शामिल की जाने वाली एक अप्रभावी प्रक्रिया बनकर न रह जाए।
वर्त्तमान सरकार नीतिगत कार्यान्वयन के लिए प्रणाली-आधारित लैंगिक दृष्टिकोण अपनाती है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 के तहत राशन कार्ड जारी करने के लिए महिलाओं को अनिवार्य रूप से घर के मुखिया के रूप में मान्यता दी गई है। प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) और प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना (पीएमयूवाई) के लाभ – क्रमशः गृह-स्वामित्व और एलपीजी कनेक्शन – महिला लाभार्थियों को दिए जा रहे हैं। इस तरह के कदमों से महिलाओं की आर्थिक संसाधनों तक पहुंच स्पष्ट रूप से आसान हुई है एवं अन्य बातों के साथ-साथ उनकी सामाजिक स्थिति भी बेहतर हुई है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (आरएसबीवाई) जैसी पुरानी योजनाओं में, जिनके तहत महिलाओं को अनजाने में स्वास्थ्य सेवाओं की सुविधा से अलग रखा गया था, बदलाव किये गए और आवश्यक होने पर इन्हें वापस ले लिया गया। इसके स्थान पर, प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएम-जेएवाई) न केवल उन परिवारों को योजना के लिए पात्र बनाती है, जहाँ कोई वयस्क पुरुष सदस्य नहीं हैं, बल्कि यह प्रति परिवार 5-लाभार्थी की अर्थहीन सीमा को भी समाप्त करती है, जिसके तहत बड़े परिवारों में पुरुष वरीयता के कारण महिलाओं को इस सुविधा से वंचित रखा जाता था। इसके अलावा, पीएम-जेएवाई पर्याप्त संख्या में ऐसे स्वास्थ्य लाभ पैकेजों का समर्थन करता है, जो या तो प्रकृति के अनुसार महिला-केंद्रित हैं या पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए समान रूप से लागू हैं। योजना के अंतर्गत, पुरुषों से ज्यादा महिलाओं ने कैंसर चिकित्सा सेवाओं का लाभ उठाया है।
मुश्किल से एक दशक पुरानी सरकार ऐसे कार्य कर रही है, जिन्हें सदी के बड़े हिस्से के दौरान राष्ट्र के शासन को संभालने वाले अन्य सत्ताधारी नहीं कर पाए; यह महिलाओं को केंद्र में रखकर दूरदृष्टि का निर्माण करना है; यह नारी शक्ति का पोषण करना है। महिलाओं को आवास और एलपीजी जैसी परिसंपत्ति देकर, असमानता पर आधारित यथास्थिति को चुनौती दी जा रही है। न केवल नीतियों के माध्यम से, बल्कि लिंग आधारित अंतर को कम करते हुए भी ऐसा किया जा रहा है।
मौजूदा सरकार के कुशल नेतृत्व में राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा 2019 में पहला राष्ट्रव्यापी समय उपयोग सर्वेक्षण किया गया था। समय उपयोग सर्वेक्षण ने अंततः महिलाओं के अवैतनिक व कठिन परिश्रम, जिसे अक्सर मान्यता नहीं दी जाती है, के लिए एक संख्या को सामने रखा – एक दिन में 7.2 घंटे, यह स्पष्ट करता है कि भारतीय पुरुष के औसत 2.8 घंटे के मुकाबले भारतीय महिला औसत देखभाल और घरेलू सेवाओं के लिए कितना अधिक समर्पित है। इसके प्रभावों की जांच और परिणामस्वरुप नीतिगत सुधार इस सर्वेक्षण द्वारा ही संभव हुए हैं। उल्लेखनीय है कि 1998 में, दूरदर्शी अटलजी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के शासनकाल में, टीयूएस को पहली बार 6 भारतीय राज्यों में पायलट आधार पर संचालित किया गया था। अब, समय उपयोग सर्वेक्षणों को नीतिगत चर्चा में एक प्रमुख स्थान मिल गया है और संयुक्त राष्ट्र-सतत विकास लक्ष्यों (यूएन-एसडीजी) की वैश्विक संकेतक रूपरेखा में इनका उल्लेख मिलता है।
पोषण, प्रजनन क्षमता, परिवार नियोजन, प्रजनन, मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य और मृत्यु दर पर महत्वपूर्ण जानकारी के नियमित स्रोत के रूप में, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) समान स्वास्थ्य परिणाम हासिल करने में, विशेष रूप से महिलाओं के सन्दर्भ में, भारत के प्रदर्शन का एक पैमाना बन गया है। एनएफएचएस-4 (2015-16) की प्रतिदर्श निर्धारण रणनीति, राष्ट्र के सभी जिलों के लिए एक व्यापक, पद्धति केन्द्रित नवीकरण तथा सांख्यिकीय लेखांकन पर आधारित है, जो अपने पूर्ववर्ती एनएफएचएस-3 (2005-06) के राष्ट्रीय प्रतिनिधि प्रतिदर्श की तुलना में एक बड़ा सुधार सिद्ध हुई है। उप-राष्ट्रीय और जिला-स्तरीय डेटा को दर्शाने से स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों का समाधान करने के लिए प्राथमिकता वाले व लक्षित हस्तक्षेपों को दिशा मिलती है।
एनएफएचएस-4 में पहली बार लिंग-आधारित कैंसर की व्यापकता दर्ज की गई। एनएफएचएस-5 में पहली बार इस बारे में जानकारी दर्ज की गयी कि क्या महिलाओं का कभी मुंह, स्तन और गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर के लिए स्क्रीनिंग परीक्षण हुआ है। साथ में, एनएफएचएस-4 और 5; भारतीय महिला के स्वास्थ्य पर एक व्यापक सामान्य सर्वेक्षण प्रदान करते हैं और डेटा के एक अतुलनीय भण्डार के रूप में कार्य करते हैं।
महिलाओं को शामिल करने के लिए राष्ट्र की सांख्यिकीय संरचना को फिर से तैयार किया गया है। लोकप्रिय अकादमिक कथन है कि ‘जो गिना जाता है, वही महत्वपूर्ण है’ और यह नीति-निर्माण की प्रक्रिया में संसाधन आवंटन के लिए एक ठोस आधार प्रदान करता है। इसे स्वीकार करते हुए, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) द्वारा एकत्र किए गए पंचवर्षीय रोजगार और बेरोजगारी के आंकड़ों को त्रैमासिक और वार्षिक आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) द्वारा प्रतिस्थापित किया गया; ताकि श्रम बल के आंकड़ों को लिंग के आधार पर अलग-अलग किया जा सके। पीएलएफएस अब महिला श्रमिक जनसंख्या अनुपात, महिला श्रम बल भागीदारी दर और महिला बेरोजगारी दर जैसे लिंग-पृथक डेटा प्रदर्शित करता है।
गृह मंत्रालय के मार्गदर्शन में, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने 2014 से कन्या भ्रूण हत्या पर डेटा का संग्रह शुरू किया। इस तरह के निराशाजनक डेटा को स्वीकार करना बहुत कठिन है, लेकिन डेटा के आधार पर स्थिति की सही जानकारी के लिए, मौजूदा सरकार ने इनका संग्रह करने की सुविधा प्रदान की है और बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे अभियान के माध्यम से इसके प्रभावों पर तेजी से काम किया है।
डेटा के आधार पर स्थिति की सही जानकारी को समाधान और सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखा जाता है। सरकार या तो कार्यान्वयन से संबंधित आंकड़ों के माध्यम से या सर्वेक्षणों के माध्यम से लिंग-पृथक डेटा संग्रह कर रही है और योजनाओं को तैयार करने या उनमें सुधार करने के लिए इनका उपयोग कर रही है। इस प्रकार एक क्षेत्र में हुए सुधार अन्य क्षेत्रों को सकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहे हैं। अब अकादमिक, अनुसंधान और मूल्यांकन परामर्शदाता से जुड़े व्यक्तियों और समूहों का यह दायित्व है कि वे ऐसे डेटा का परीक्षण (ऑडिट) करें और तीसरे पक्ष के आकलन का संचालन करें तथा जनहित के लिए सार्वजनिक नीति में लैंगिक-आधार को मुख्यधारा में लाने का प्रयास करें।
स्मृति इरानी
लेखिका केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री हैं।