नई दिल्ली: नीति आयोग के उपाध्यक्ष श्री अरविंद पणगरिया ने कहा कि उद्योगीकरण में मदद देने के इच्छुक राज्य भूमि की उदार पट्टेदारी से अधिक लाभ उठा सकते हैं लेकिन उन्हें पट्टेदारी के साथ ही कृषि भूमि का गैर कृषि उद्देश्यों के लिए उपयोग करने में उदारता बरतनी पड़ेगी।
उन्होंने आज नई दिल्ली में नीति आयोग की वेबसाइट पर प्रकाशित अपने ब्लॉग पोस्ट में लोगों के साथ ये विचार साझा किये। उनके ब्लॉग पोस्ट का जो पाठ है उस पर www.niti.gov.in के माध्यम से पहुंचा जा सकता है।
भारत के राज्यों में ग्रामीण कृषि भूमि से संबंधित भूमि पट्टे पर देने के कानून स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के दशकों के दौरान बनाए गए थे। उस समय जमींदारी उन्मूलन और भूमि का पुनर्वितरण के कार्य सर्वोच्च नीति की प्राथमिकताओं में शामिल थे। उस समय के शीर्ष नेतृत्व ने पट्टेदारी और उपपट्टेदारी को सामंतवादी भूमि प्रबंधों के अभिन्न अंग के रूप में देखा, जिन्हें भारत ने अंग्रेजों से विरासत में प्राप्त किया था। इसलिए विभिन्न राज्यों ने जो पट्टेदारी सुधार कानून स्वीकार किए, उनसे न केवल मालिकाना हक पट्टेदारों को हस्तांतरण हो गए, बल्कि इन्होंने भूमि की पट्टेदारी और उपपट्टेदारी को या तो रोक दिया, या हतोत्साहित किया। राजनीतिक रूप से प्रभावशाली जमींदार सुधारों को पलटने में सफल रहे। पी.एस अप्पू ने अपनी शानदार किताब भारत में भूमि सुधार में लिखा है कि 1992 तक किसानों को संचालित भूमि के केवल चार प्रतिशत भूमि के ही मालिकाना अधिकार हस्तांतरित हुए। जबकि सात राज्यों आसाम, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में इस हस्तांतरण का 97 प्रतिशत योगदान है। किसानों को स्वामित्व का हस्तांतरण लागू करने की कोशिश करने में अनेक राज्यों ने तो पट्टेदारी को ही समाप्त कर दिया। इसके कारण कम से कम भूमि का हस्तांतरण हुआ। इस नीति से पट्टेदारी की सुरक्षा पर अनपेक्षित प्रभाव पड़ा और इससे भविष्य के पट्टेदारों को एक तरह से मजबूर बना दिया। कुछ राज्यों में पट्टेदारी की अनुमति दी गई लेकिन उन्होंने भूमि के किराए की सीमा को उपज का एक चौथाई या पांचवां हिस्सा निर्धारित कर दिया क्योंकि किराया बाजार दर से कम हो गया, इसलिए इन राज्यों में अनुबंध मौखिक हो गए और किराएदारों के लिए भूमि का किराया उपज का लगभग 50 प्रतिशत कर दिया गया।
तेलंगाना, बिहार, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों ने भूमि की पट्टेदारी पर प्रतिबंध लगा दिया और केवल विधवाओं, नाबालिगों, विकलांगों और रक्षाकर्मियों को भूमि मालिकाना हक प्रदान किए गए। केरल ने बहुत पहले ही पट्टेदारी पर प्रतिबंध लगा रखा है। अभी हाल में केवल स्वयं सहायता समूहों को भूमि पट्टेदारी की अनुमति दी गई है। पंजाब, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र और असम सहित कुछ राज्यों ने हालांकि पट्टेदारी पर प्रतिबंध नहीं लगाया है लेकिन पट्टेदार को कुछ निर्धारित अवधि की पट्टेदारी के बाद मालिक से पट्टेदारी की भूमि खरीदने का हक मिल जाता है। इस प्रावधान से भी पट्टेदारी का अनुबंध मौखिक रूप से किया जाने लगा जिससे पट्टेदारी की हालत दयनीय हुई। केवल आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में उदार पट्टेदारी नियम हैं। इसमें पश्चिम बंगाल में बटाईदार को सीमित पट्टेदारी प्राप्त है। अधिकांश राज्यों में राजस्थान और तमिलनाडु ऐसे राज्य हैं जहां उदार पट्टेदारी कानून हैं लेकिन बटाईदार को पट्टेदार के रूप में मान्यता नहीं है। प्रतिबंधति पट्टेदारी कानूनों की मूल इच्छा में कोई प्रासंगिकता नहीं है। ये प्रतिबंध आज न केवल पट्टेदारों पर जिनके संरक्षण के लिए मूल रूप से कानून बनाए गए थे, प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं बल्कि भूमि के मालिकों और जननीति के कार्यान्यावन पर भी हानिकारक प्रभाव डालते हैं। पट्टेदार को कार्यकाल की सुरक्षा नहीं मिलती जो उसे तब मिलती है जब उसके और जमींदार के बीच पारदर्शी ठेका लिखे जाने के कारण मिलती है। इससे पट्टेदार भूमि में दीर्घकालीन निवेश नहीं कर पाता और उसके अंदर खेती के अधिकार लगातार बनाए रखने के बारे में असुरक्षा की भावना को बढ़ावा मिलता है। इसके अलावा एक किसान होने के कारण उसे क्रेडिट की जो संभावित सुविधा मिल सकती है, उससे भी वह वंचित रहता है। जमींदार के मन में भी जमीन पट्टे पर देने के बारे में असुरक्षा की भावना भी पनपती है और वह जमीन को परती छोड़ने में ही भलाई समझता है। जमींदारों में यह प्रक्रिया लगातार बढ़ रही है और उनके बच्चे खेती करने के अलावा अन्य रोजगार चाहते हैं।
भूमि पट्टेदारी के पारदर्शी कानूनों के अभाव में जननीति के सामने भी गंभीर चुनौतियां पैदा हो गई हैं। अधिक विस्तारी और अधिक प्रभावी फसल बीमे की मांग हो रही है। यह माना जाता है कि ऐसे बीमों में भारी छूट मिलने की संभावना है, जैसा कि विगत के कार्यक्रमों के मामलों में हुआ है। एक स्वाभाविक प्रश्न यह है कि यह कैसे सुनिश्चित हो कि खेती के भारी जोखिम उठाने वाले पट्टेदार को क्या इसका लाभ मिलेगा? ऐसी ही समस्या प्राकृतिक आपदा के मामले में पैदा होती है कि अगर पट्टेदार अनौपचारिक है तो हम यह कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि वास्तविक किसान को ही आपदा राहत मिले। इसी प्रकार उर्वरक सब्सिडी आज व्यापक हेराफेरी का विषय है और रियासती खाद की बिक्री कालाबाजार में होती है। सैद्धांतिक रूप से इस हेराफेरी को खाना पकाने वाली (एलपीजी) गैस की सब्सिडी के हस्तांतरण की तरह ही आधार नंबर आधारित बैंक खातों का उपयोग करते हुए सीधे लाभ हस्तांतरण की शुरूआत करके तेजी से रोका जा सकता है लेकिन वास्तविक किसान की पहचान करने में आ रही कठिनाई को देखते हुए वास्तविक लाभार्थी को सीधे लाभ हस्तांतरण संतोषजनक रूप से लागू नहीं किया जा सकता।
भूमि अधिग्रहण नियम 2013 के अधीन भूमि अधिग्रहण में आ रही दिक्कतों के संदर्भ में उद्योगीकरण में मदद करने के इच्छुक राज्य उदार भूमि पट्टेदारी का तभी लाभ उठा सकते हैं अगर वे पट्टेदारी के साथ-साथ उदारतापूर्वक कृषि भूमि का गैर कृषि कार्यों में उपयोग करने की अनुमति देने दें। वर्तमान में कृषि भूमि का गैर कृषि कार्यों में उपयोग बदलने के लिए उपयुक्त प्राधिकारी से अनुमति लेने की जरूरत है जिसमें काफी लंबा समय लगता है। राज्य सरकारें भूमि की गैर कृषि कार्यों में उपयोग की अनुमति देने के लिए कानून में परिवर्तन करके या वर्तमान में लागू विनियमों में कृषि भूमि के उपयोग को परिवर्तित करने के लिए आवेदनों को समय सीमा में मंजूरी देने की शुरुआत करके इस प्रतिबंध को दूर कर सकती हैं। इस सुधार से उद्योगीकरण के लिए भूमि के प्रावधान, दीर्घकालीन भूमि पट्टेदारी को बढ़ावा मिलेगा जिसमें भूमि के मालिक को अपनी भूमि का किराया मिलने के अलावा उसका मालिकाना हक भी बरकरार रखने की अनुमति रहेगी। इसके अलावा वर्तमान पट्टेदारी की समय सीमा समाप्त होने के बाद उसे पट्टेदारी की शर्तें पुन:निर्धारित करने का भी अधिकार होगा।
इसलिए पारदर्शी भूमि पट्टेदारी कानूनों की शुरुआत से संभावित पट्टेदारों या बटाइदारों को एक नए सुधार में भूमालिकों के साथ लिखित ठेके करने की अनुमति होगी। पट्टेदार को भूमि में सुधार करने के लिए निवेश करने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा और जमींदार बेफिक्र होकर अपनी जमीन पट्टे पर देने में समर्थ होगा और उसे पट्टेदार से जमीन खोने का डर भी नहीं होगा तथा सरकार अपनी नीतियां प्रभावी रूप से लागू करने में समर्थ होगी। इसी के साथ-साथ भूमि उपयोग कानूनों के उदार होने से उद्योगीकरण के लिए भूमि के प्रावधान का वैकल्पिक अवसर भी उपलब्ध होगा जो पूर्णरूप से सरकार के अधिकार क्षेत्र में है और इससे जमींदार को अपनी भूमि का मालिकाना अधिकार बनाए रखने की भी अनुमति है।
भूमि पट्टेदारी सुधार कानूनों की एक संभावित बाधा यह है कि भविष्य में कहीं कोई लोक-लुभावन सरकार लिखित ठेकेदारी पट्टों को पट्टेदारों के पक्ष में भूमि के हस्तांतरण का आधार न बना ले। इसलिए वे इस सुधार का विरोध करेंगे। यह एक वास्तविक डर है लेकिन इसे वैकल्पिक तरीकों से दूर किया जा सकता है। वास्तविक तरीका, दूसरा प्रमुख सुधार है जिसमें जमींदारों को अपरिहार्य हक दिया जाए। कनार्टक जैसे राज्यों में भूमि के रिकॉर्ड पूरी तरह डिजिटल बनाए गए हैं और पंजीकरण प्रणाली भी वास्तव में इस दिशा में बढ़ने की स्थिति में है। अन्य राज्यों में ये ऐसे शीर्षक भविष्य की बात हैं इसलिए ऐसे राज्य अनुबंधों की रिकार्डिंग के लिए पंचायत स्तर पर वैकल्पिक समाधानों को अपना सकते हैं और राजस्व रिकार्डों में पट्टेदारों की पहचान से परहेज कर सकते हैं। ऐसे राज्य उद्देश्यों के लिए विनियमों के खंड में यह जोड़ सकते हैं कि मालिकाना हक के हस्तांतरण के लिए राजस्व रिकार्डों में केवल पट्टेदारी स्थिति को मान्यता दी जाएगी। राज्य सरकारें अपने पट्टेदारी और भूमि उपयोग के कानूनों में गंभीर रूप से विचार करें और इन्हें सरल बनाएं लेकिन उत्पादकता और समग्र कल्याण बढ़ोत्तरी के लिए शक्तिशाली परिवर्तन लाएं। हम नीति आयोग में उनके ऐसे प्रयासों में मदद करने के लिए तैयार बैठे हैं।