विजय प्रकाश कोंडेकर अब पुणे के शिवाजी नगर में एक जानी-पहचानी शख़्सियत हैं. 73 साल के प्रकाश पिछले दो महीने से मुहल्ले में घूम-घूमकर अपने चुनाव प्रचार अभियान के लिए समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं.
वो कहते हैं, “मैं लोगों को बस ये दिखाना चाहता हूं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में पार्टी पॉलिटिक्स ही एकमात्र रास्ता नहीं है. मेरी योजना देश को अपने जैसे स्वतंत्र उम्मीदवार देने की है. देश से भ्रष्टाचार ख़त्म करने का सिर्फ़ यही रास्ता है.”
प्रकाश कोंडेकर एक लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रहे हैं जहां तीसरे चरण में 23 मई को वोटिंग होगी. वो निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ रहे हैं और उन्हें उम्मीद है कि वो एक दिन भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे.
उनका कहना है कि अगर ऐसा होता है तो वो भारत के हर नागरिक को 17,000 रुपये देंगे. प्रकाश का मानना है कि अगर सरकार बाकी के कुछ खर्चों में कटौती कर देता तो ये वादा पूरा करना काफ़ी आसान होगा.
साल 1980 तक प्रकाश महाराष्ट्र के बिजली विभाग में काम करते थे. अब उन्हें अक्सर पुणे की गलियों में साइनबोर्ड लगी स्टील की एक गाड़ी धकेलते देखा जा सकता है.
स्थानीय लोग बताते हैं कि पहले इस साइनबोर्ड पर 100 रुपये दान करने की अपील लगी होती थी. लेकिन आजकल इस बोर्ड पर ‘जूते को जिताएं’ लिखा रहता है.
प्रकाश कोंडेकर का चुनाव चिह्न जूता है, जो उन्हें निर्वाचन आयोग ने दिया है.
कुछ लोग देखकर हंसते हैं, कुछ सेल्फ़ी लेते हैं
कई लोगों के लिए शहर की गलियों में दिखने वाला ये नज़ारा देखकर हंसी आती है. कुछ लोग उन्हें नज़रअंदाज़ करते हैं तो कुछ उनके साथ सेल्फ़ी लेना चाहते हैं. प्रकाश सेल्फ़ी के लिए ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो जाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है इससे सोशल मीडिया पर मुफ़्त में पब्लिसिटी मिल जाएगी.
कुछ लोग प्रकाश का हुलिया देखकर उनका मज़ाक भी बनाते हैं: एक कमज़ोर और बुजुर्ग आदमी, जिसके सफ़ेद बाल बिखरे हुए हैं और दाढ़ी बढ़ी हुई है. प्रकाश अप्रैल की चिलचिलाती धूप में सिर्फ़ सूती शॉर्ट्स पहने अपने चुनावी अभियान में जुटे हुए हैं.
और हां, प्रकाश कोंडेकर इससे पहले 24 अलग-अलग चुनाव लड़ चुके हैं और हार भी चुके हैं. उन्होंने संसदीय चुनाव से लेकर स्थानीय निकाय के चुनाव, सबमें अपनी दावेदारी पेश की है.
प्रकाश उन सैकड़ों निर्दलीय प्रत्याशियों में शामिल हैं जो इस बार के लोकसभा चुनाव में अपनी किस्मत आज़मा रहे हैं. 2014 के आम चुनाव में 3,000 स्वतंत्र उम्मीदवारों ने हिस्सा लिया था जिसमें से सिर्फ़ तीन लोग चुनाव जीते थे.
वैसे, साल 1957 का चुनाव ऐसा था जिसमें बड़ी संख्या में निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत हासिल की थी. इस चुनाव में 42 निर्दलीय उम्मीदवार बतौर सांसद चुने गए थे.
साल 1952 में हुए पहले आम चुनाव के बाद से अब तक भारत में 44,962 निर्दलीय उम्मीदवारों ने चुनावी समर में हिस्सा लिया है लेकिन इनमें से सिर्फ़ 222 को जीत हासिल हुई.
क्यों नहीं जीतते निर्दलीय उम्मीदवार?
भारत में निर्दलीय उम्मीदवार बमुश्किल ही जीत पाते हैं क्योंकि उनके पास राजनीतिक पार्टियों की तुलना में पैसे और संसाधन बहुत कम होते हैं. इसके अलावा देश में पार्टियों की कोई नहीं हैं. भारत में तक़रीबन 2,293 पंजीकृत क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां हैं. जिनमें सात राष्ट्रीय और 59 क्षेत्रीय पार्टियां हैं.
सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और विपक्षी कांग्रेस देश को दो प्रमुख राष्ट्रीय दल हैं लेकिन कई राज्यों में मज़बूत क्षेत्रीय पार्टियां और लोकप्रिय क्षेत्रीय नेता भी हैं.
हालांकि प्रकाश कोंडेकर का कहना है कि उन्होंने एक नई रणनीति अपनाई है जिससे उन्हें फ़ायदे की उम्मीद है.
चुनाव के नियमों के मुताबिक़ लिस्ट में पहले राष्ट्रीय दलों के उम्मीदवारों का नाम होता है फिर क्षेत्रीय दलों के उम्मीदवारों का. निर्दलीय उम्मीदवारों का नाम सबसे नीचे होता है.
प्रकाश कहते हैं, “मेरी लोगों से गुज़ारिश है कि वो लिस्ट में मौजूद आख़िरी उम्मीदवार को वोट दें. ये नाम ‘नोटा’ के पहले लिखा होगा और ये निर्दलीय उम्मीदवार का नाम होगा.”
23 अप्रैल को होने वाले चुनाव के ले उन्होंने अपना सरनेम ‘Znyosho’ कर लिया ताकि उनका नाम लिस्ट में सबसे नीचे आए.
वायनाड में राघुल गांधी से है राहुल गांधी का मुक़ाबला
हार के बावजूद क्यों लड़ते हैं चुनाव?
तमाम कठिनाइयों और नुक़सानों के बावजूद निर्दलीय उम्मीदवार हर चुनाव में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं और इसकी कई वजहें हैं:
कुछ के लिए ये अहम का मुद्दा होता है तो कइयों को राजनीतिक दल ही मैदान में उतारते हैं ताकि उनकी विपक्षी पार्टियों के वोट बंट जाएं.
इसके अलावा के.पद्मराजन जैसे लोग हैं जिनके लिए चुनाव लड़ना एक स्टंट की तरह है. वो अब तक 170 से ज़्यादा चुनावों में हिस्सा लेकर हार चुके हैं. इसके पीछे उनका सिर्फ़ एक मक़सद है- गिनीज़ बुक में अपना नाम दर्ज करवाना.
‘जीत जाऊंगा तो हार्ट अटैक आ जाएगा’
पद्मराजन वायनाड में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रहे हैं. वो कहते हैं कि अगर वो चुनाव जीत गए उन्हें हार्ट अटैक आ जाएगा.
कई निर्दलीय उम्मीदवारों के इस रवैये को देखते हुए भारतीय विधि आयोग ने संसदीय चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगाने की सिफ़ारिश तक के लिए मजबूर कर दिया लेकिन ऐसा कभी हो नहीं सका.
जैसे-जैसे वक़्त बीत रहा है वैसे-वैसे निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या भी बढ़ रही है लेकिन उनके जीत की दर में कोई बढ़त नहीं हो रही है.
‘निर्दलीय उम्मीदवारों के पक्ष में नहीं भारत की चुनावी व्यवस्था’
इस बारे में चुनावों पर नज़र रखने वाली संस्था असोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स (एडीआर) के संस्थापक जगदीप चोकर कहते हैं कि राजनीतिक दलों की भारतीय राजनीतिक व्यवस्था पर पकड़ बहुत मज़बूत है..
चोकर कहते हैं, “निर्दलीय उम्मीदवारों के चुनाव लड़ने के रास्ते में कई मुश्किलें, विरोधाभास और दुविधाएं हैं. मसलन, एक उम्मीदवार अपने चुनाव प्रचार के लिए कितने पैसे खर्च कर सकता है, इसकी एक सीमा है लेकिन उन्हें समर्थन दे रही है राजनीतिक पार्टियों के लिए ऐसी कोई सीमा नहीं है. राजनीतिक पार्टियों की तरह निर्दलीय उम्मीदवारों को आयकर में छूट भी नहीं मिलती.”
चोकर कहते हैं कि कुछ ऐसे निर्दलीय उम्मीदवार ज़रूर हैं जो बदलाव लाना चाहते हैं लेकिन फंडिंग की सीमाओं, दबदबे की कमी और लोगों की अवधारणा की वजह से पार्टियां उनकी जीत की राह में बाधा बन जाती हैं.
‘लोहे की तलवार और काग़ज के पुतले की लड़ाई’
प्रकाश कोंडेकर कहते हैं कि उन्हें अच्छी तरह पता है कि उनके जीतने की संभावना बहुत कम है.
पिछले कई सालों में उन्होंने अपने चुनावी अभियान की ख़ातिर पैसे जुटाने के लिए अपने पुरखों की ज़मीन बेच दी. नामांकन भरते वक़्त प्रकाश ने अपने हलफ़नामे में जो जानकारी दी है, उसके मुताबिक़ उन्हें हर महीने 1,921 रुपये पेंशन मिलती है.
कोंडेकर मानते हैं कि उनका चुनाव लड़ना अपने आप में सांकेतिक है लेकिन लगातार मिलने वाली हार के बावजूद वो उम्मीद छोड़ने को तैयार नहीं हैं.
वो कहते हैं, “ये राजनीतिक पार्टियों की लोहे की तलवार और पेरे काग़ज़ के पुतले के बीच की लड़ाई है लेकिन मैं कोशिश करता रहूंगा. अपनी उम्र को देखकर कहूं तो मुमकिन है कि ये मेरा आख़िरी चुनाव है लेकिन हो सकता है कि इस बार चीजें अलग हों.” source: bbc.com/hindi