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‘‘किसानों की समृद्धि के लिए जैविक खेती पर राष्ट्रीय संगोष्ठी’’ को सम्बोधित करते हुएः राधा मोहन सिंह

देश-विदेश

नई दिल्ली: भारत वर्ष में कृषि उत्पादन के क्षेत्र में विगत 40 वर्षों में अपार सफलताएं प्राप्त हुई है जो बहुधा कृषि निवेश आधारित सघन खेती पर

निर्भर हैं एवं जो उन्नतिशील प्रजातियों एवं अधिक मात्रा में खाद और उर्वरक प्रयोग पर आश्रित है। इससे कृषि उत्पादन में तो वृद्धि हुई है लेकिन साथ ही, हरित क्रान्ति सम्बन्घित दूसरी समस्याओं को बढ़ावा मिला है। कई फसलें उगाने से और सघन खेती करने से भूमि की उत्पादकता को बनाए रखना एक प्रमुख मुद्दा बन गया है। मुख्यतः सिंचित क्षेत्रों में सघन खेती एवं कृषि रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से बहुत सी समस्याऐं उत्पन्न हो रही हैं जैसे पोषक तत्वों का घुलकर बह जाना, अन्य महत्वपूर्ण व सूक्ष्म तत्वों का अभाव, आदि। ऐसा जैविक खाद के कम इस्तेमाल से हो रहा है क्योंकि जैविक खाद से मृदा को अच्छे पौष्टिक तत्व मिलते हैं जोकि रसायनिक खाद से नहीं मिल पाते। मृदा सम्बन्धी अनेक विकृतियों जैसे अम्लीयता, क्षरणता को रोकने में भी सहायता मिल सकती है। साथ ही, प्रति इकाई निवेश प्रयोग के अनुपात में कम उत्पादकता प्राप्त हो रही है।

अत्यधिक कृषि रसायनों के प्रयोग से अनेक तरह के कीटों और बीमारियों का प्रकोप भी बढ़ रहा है क्योंकि मित्र कीटों की कमी हुई है और मृदा जीवाश्म की भी कमी हो रही है। जरूरी है कि एकीकृत उर्वरक प्रयोग एवं एकीकृत कीट प्रबन्धन पर ध्यान दिया जाये। साथ ही, जैविक खेती जिसमें रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग नहीं किया जाता है, एक उपयोगी रणनीतिक पहल हो सकती है जिससे टिकाऊ खेती को बढ़ावा दिया जा सकता है, विशेषकर ऐसे क्षेत्रों मे जहां सम्भावनाएं ज्यादा हैं। सघन उत्पादन अपनाने वाले क्षेत्रों में, जहां पर रसायनिक खेती का प्रयोग बहुत ज्यादा किया जाता है वहां मृदा स्वास्थ्य की सम्भावनाएं ज्यादा हैं एवं उत्पादकता में कमी भी देखने को मिलती है। मृदा के स्वास्थ्य क्षरण को रोकने के लिए यह जरूरी है कि किसानों को जागरूक किया जाये। सभी एजेन्सियों से इस काम को सामूहिक दृष्टि से करने हेतु भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा राज्य सरकारों के माध्यम से मृदा स्वास्थ्य को अपने एजेन्डे में प्रमुखता से रखा गया है जिससे 14 करोड़ परिवारों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड उपलब्ध हो सके। इसके लिए सिंचित और असिंचित क्षेत्रों के लिए अलग-अलग ग्रिड बनाने का सुझाव दिया गया है एवं मोबाइल मृदा किट भी केन्द्रों को उपलब्ध कराया गया है। कृषि उत्पादकता में विशेष रूप से भौतिक संसाधनों की कमी, अनुपयुक्त ढांचा, कृषि बाजार, कृषि निवेशों की अनुपलब्धता, विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले नुकसान प्रमुख कारक हैं। भारत सरकार इन सभी बिन्दुओं पर अलग-अलग योजनाएं लाकर किसानों को सुरक्षा प्रदान करने का प्रयास कर रही है। चूंकि कृषि मृदा आधारित व्यवसाय है इसलिए जिन तत्वों का दोहन फसल उगाने के लिए किया जा रहा है, उसकी पूर्ति के लिए प्रयास करने की जरूरत है जिससे लम्बी अवधि के लिए कृषि को एक टिकाऊ खेती के रूप में स्थापित किया जा सके।

जैविक खेती भारत वर्ष में पहले से की जा रही है परन्तु विगत दिनों में हमारा ध्यान खाद्यान की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए रसायनिक उर्वरकों के प्रयोग पर ज्यादा रहा है। वर्तमान में सरकार द्वारा परम्परागत कृषि विकास योजना के माध्यम से जैविक खेती को बढाने की पहल की गई है। सिक्किम जैसे राज्य को जैविक राज्य घोषित किया गया है और नई योजना के माध्यम से किसानों को समूह में जैविक खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है विशेषकर, पहाड़ी व सिंचित क्षेत्रों में जहां उर्वरकों का प्रयोग कम है और जहां जैविक खेती की सम्भावनाएं ज्यादा हैं ।

जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए सिक्किम में राष्ट्रीय जैविक खेती अनुसंधान संस्थान खोला गया है जो अनुसंधान एवं शिक्षा पर कार्य करेगा। इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ फार्मिंग सिस्टम रिसर्च; मोदीपुरम में दो परियोजनायें नेशनल नेटवर्क प्रोजेक्ट ऑन ऑरगेनिक फार्मिंग; और ऑल इंडिया कोओर्डिनेटेड रिसर्च प्रोजेक्ट ऑन इनटिग्रेटेड फार्मिगं सिस्टम से चल रही है जो कृषि विश्वविद्यालयों को जोड़ते हुए अनुसंधान कर रहा है। इसके अतिरिक्त, मंत्रालय के अंतर्गत नेशनल सेन्टर फोर ऑरगानिक फार्मिगं ;गाजियाबाद अपने क्षेत्रीय केन्द्रों के माध्यम से जैविक खेती पर किसानों को प्रशिक्षण दे रहा है। इस संस्था द्वारा मानव विकास, तकनीकी हस्तांतरण, उत्पादन, गुणवत्ता युक्त जैविक कृषि निवेशों के उत्पादन एवं वितरण पर जोर दिया जाता है। इसके द्वारा बायो फर्टिलाईजर एवं जैविक खादों की जांच का भी कार्य किया जाता है। साथ ही, जैविक खादों की गुणवत्ता का स्तर निर्धारित करना एवं जैविक खेती को बढ़ावा देने का काम भी संस्थान द्वारा किया जाता है।  मिशन ऑन ऑरगैनिक वैल्यू चेन डेवलपमेंट फॉर नॉर्थ ईस्टर्न रिजन; का 2015-16 का बजट 125 करोड़ रुपये है, इस योजना में किसानों के समूह गठित करके उनको जैविक उत्पादों के प्रमाणीकरण पर विशेष ज्ञान दिया जायगा। उत्पादकों और उपभोक्ताओं को जोड़ने का प्रयास भी किया जाएगा और उत्पादों को इकठ्ठा करके उनके परिसंस्करण, बाजार एवं ब्रांड निर्धारित करने हेतु पहल की जायेगी। इसके अतिरिक्त, अपेडा द्वारा जैविक उत्पादों के प्रमाणीकरण एवं अंतर्राष्ट्रीय बाजार उपलब्ध कराने हेतु उत्पादकों की सहायता की जाती है।

सिक्कम राज्य द्वारा कृषि निवेशों के उत्पादन, फसलों के उत्पादन की विधियों, बाजार, आदि पर व्यवस्थित प्रयास किये गये हैं। सिक्कम सरकार द्वारा जैविक उत्पादों की दुकानें दिल्ली में भी खोली गई हैं और देश के अन्य शहरों में भी खोलने की योजना है। सिक्कम में कुल 58128 हेक्टेयर खेती योग्य भूमि में से लगभग 25 – 30,000 हेक्टेयर भूमि में जैविक खेती होती है। पूर्वी उत्तरी राज्यों में भी रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग बहुत ही कम मात्रा में किया जा रहा है और वहां पर भी जैविक खेती को प्रोत्साहित करना भारत सरकार की रणनीति का हिस्सा है। साथ ही, उन क्षेत्रों में जहां पर जैविक उत्पादकता की मांग ज्यादा है, वहां पर इसके जोर दिये जाने की जरूरत है। जैविक खेती की ज्यादातर विधियां मृदा स्वास्थ्य से सम्बन्धित हैं। किसानों को एवं राज्य सरकारों को कृषि अवशेषों के समुचित प्रयोग पर भी जोर देना चाहिए एवं अवशेषों को जलाने सम्बन्धी प्रयासों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। अन्य कृषि अवशेषों को उर्वरकों के रूप में प्रयोग करने हेतु वर्मीकम्पोस्ट की विधि के प्रयोग हेतु किसानों को जागरूक करना चाहिए। शहरों के अवशेषों को कृषि में उपयोग हेतु शोध एवं प्रसार करने की आवश्यकता है। साथ ही, सामूहिक बायोगैस संयंत्र को स्थापित करने, वर्मीकम्पोस्ट के प्रयोग को और ज्यादा बढावा देना चाहिए। जहां रासायनिक खाद किसानों को प्राप्त है, किसान उसका प्रयोग कर रहा है,वहां पर जैविक खाद के प्रयोग को बढावा देने के लिए विषेश प्रयास करना चाहिए जिससे मृदा स्वास्थ्य के साथ-साथ फसल उत्पादकता एवं गुणवत्ता दोनों में सुधार देखा जा सकता है और खाद्य सुरक्षा को प्राप्त किया जा सकता है।

यह सर्वविदित है कि जैविक खाद के निरन्तर प्रयोग से मृदा स्वास्थ्य में सुधार होता है जिससे जमीन में सूक्ष्म जीवाणुओं की पैदाइश होती है, जो अपनी क्रियाओं से फसल हेतु अच्छे वातावरण का निर्माण करते हैं । जैविक खाद के प्रयोग से मृदा में पानी सोखने की क्षमता बढती है और साथ ही शुष्क खेती वाले क्षेत्रों के लिए लाभकारी है। हमें जैविक खाद के उत्पादन हेतु नये तरीके भी खोजने की जरूरत है और विभिन्न प्रकार के कृषि एवं अन्य अवशेषों के प्रयोग से जैविक खाद के उत्पादन एवं प्रयोग पर कार्य करने की जरूरत है।

वर्तमान सरकार ने जैविक खेती पर जोर देते हुए परम्परागत कृषि विकास योजना की पहल की है, जो कि 2015 में शुरू की गई है और इस योजना में सभी राज्य आच्छादित हैं। इस योजना के अन्तर्गत, किसानों को समूह बनाकर जैविक खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। इस योजना से लाभ उठाने के लिए 50 किसानों का एक समूह 50 एकड़ भूमि में जैविक खेती कर सकता है। प्रत्येक किसान जो इस योजना में नामांकन करेगा, उसे 20,000 रू प्रति एकड़ की सरकार द्वारा तीन साल में आर्थिक सहायता दी जायेगी। 2.50 एकड़ जमीन वाले किसान भी जैविक खेती करना चाहते हैं, तो इसमें शामिल हो सकते हैं। यह आर्थिक सहायता जैविक बीज, खेती की कटाई और उत्पाद ढोने के लिए दी जाएगी।

इस योजना का लक्ष्य अगले तीन साल में 10,000 समूह बनाकर 5 लाख एकड़ में जैविक खेती करने का है। सरकार प्रमाणीकरण लागत भी वहन करेगी और जैविक खेती को परम्परागत संसाधनों से बढ़ावा देगी। जैविक खाद्यों को स्थानीय बाजार में उपलब्ध कराया जायेगा। इस योजना को लागू करने के लिए 2015-16 में रू 300 करोड़ और 2016-17 में रू 412 करोड़ उपलब्ध कराए गए हैं।  पी के वी वाई योजना पहली योजनाओं से अधिक केंद्रित और लक्षित दृष्टिकोण वाली है और सभी राज्यों में लागू की जाएगी।

अन्त में, मैं यह कहना चाहता हूं कि वर्तमान में एकीकृत खेती, उर्वरक प्रयोग एवं कीट प्रबन्धन पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है तथा जैविक खेती को चिन्हित क्षेत्रों में कृषकों को समूह में संगठित कर कार्य करने की जरूरत है और कृषि उत्पादों को बाजार से जोड़ कर इसमें जुड़े हुए किसानों को उनके उत्पाद से लाभ दिलाने की आवश्यकता है।

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