रेस्पेक्ट और रिगार्ड शब्द में अन्तर हैं। रेस्पेक्ट अन्दर की सोच है जबकि रिगार्ड बाह्य व्यवहार है। किसी के द्वारा रेस्पेक्ट न देने पर हम डिस्टर्ब हो जाते हैं। लेकिन हम डिस्टर्ब इसलिए होते हैं, क्योंकि हम रिस्पेक्ट की सही परिभाषा नहीं जानते हैं। हम रेस्पेक्ट और रिगार्ड को एक समान मान लेते हैं। रेस्पेक्ट अन्दर की सोच है। जबकि रिगार्ड बाह्य व्यवहार है। रिगार्ड बाह्य चीजों के लिए मिलता है और बाह्य रूप में मिलता है। रिगार्ड पद, पोजिशन, उम्र और ज्ञान को देखकर दिया जाता है। कभी-कभी न चाहते हुए भी रिगार्ड देना पड़ता है। क्योंकि प्रोटोकाॅल बन्धन होता है। लेकिन रेस्पेक्ट में हमारी इच्छा का महत्वपूर्ण स्थान है। रेस्पेक्ट हमारी च्वाइस है।
कोई जरूरी नहीं है कि कोई व्यक्ति हमारी बात मान लेता है, तब वह व्यक्ति हमारी रेस्पेक्ट करता है। हम दूसरों की बात अस्वीकार करके भी दूसरों की रेस्पेक्ट कर सकते हैं। रेस्पेक्ट के साथ हम किसी चीज को किसी व्यक्ति के लिए मना कर सकते हैं। हम अन्दर से गलत सोच रखकर भी रिगार्ड दे सकते हैं। इसलिए जब तक हम रेस्पेक्ट की सही परिभाषा नहीं जानेंगे। तब तक हम दूसरों के व्यवहार से डिस-रेस्पेक्ट फील करेंगे। इस फीलिंग के साथ हम दूसरों को भी रेस्पेक्ट नहीं देंगे।
रिगार्ड प्रोटोकाॅल का एक भाग है। इसे समाज ने बनाया है। रिगार्ड के बिना भी हम किसी का रेस्पेक्ट नहीं कर सकते हैं और रिगार्ड के साथ हम किसी का रेस्पेक्ट कर सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति पूरा सीधा लेटकर प्रणाम करता है तब इसका यह अर्थ नहीं कि वह सामने वाले को अधिक रेस्पेक्ट करता है। इसी प्रकार कुछ लोग केवल नमस्ते करते हैं और कुछ लोग नमस्ते भी नहीं करते हैं। इसका अर्थ नहीं है कि जो व्यक्ति सीधा लेट गया वह अधिक रेस्पेक्ट करता है जो व्यक्ति न झुकता है और न नमस्ते करता है वह कम रेस्पेक्ट करता है। किसी के हाव-भाव से रेस्पेक्ट की मात्रा का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है। डिटैच होकर हमें रेस्पेक्ट और प्रोटोकाल में अन्तर देखना होगा।
रेस्पेक्ट का अर्थ सेल्फ रेस्पेक्ट है। सेल्फ रेस्पेक्ट में स्थित व्यक्ति कभी भी डिस-रेस्पेक्ट नहीं फील करेगा। सेल्फ रेस्पेक्ट में स्थित व्यक्ति कभी भी दूसरों का डिस-रेस्पेक्ट नहीं करेगा। सेल्फ रेस्पेक्ट के अभाव में व्यक्ति हमेशा डिस-रेस्पेक्ट फील करेगा।
हमें खुशी की सही परिभाषा जानना चाहिए। हमारी खुशी किसी बाह्य वस्तु अथवा व्यक्ति पर निर्भर नहीं है। बल्कि हमारी खुशी हमारे मन पर निर्भर है। अर्थात् यदि खिलौना टूट जाय तो हमारी खुशी नहीं टूटेगी। जब हम अच्छा विचार पैदा करते हैं, हम अच्छा फील करते हैं। इससे हम खुश रहते हैं। पहले हम फोन गिरने से डिस्टर्ब हो जाते थे लेकिन आज उसी तरह के फोन गिर जाने से हम डिस्टर्ब नहीं होते हैं। इस बात पर हम किसी तरह का रिएक्सन नहीं देते हैं। क्योंकि इस समय हम डिस्टर्ब नहीं हैं। अर्थात् हमारी खुशी उस फोन जैसे खिलौने पर निर्भर नहीं है।
हम डिस्टर्ब नही हैं- इसका अर्थ है कि हम खुश हैं। यदि हमारी पसन्द की कार को कोई सामने से मार देता है, तो हम डिस्टर्ब नहीं होते हैं। क्योंकि हम इस समय बहुत खुश हैं। इसका अर्थ है कि जब हम खुश हैं, हमारा मन स्थिर है तब कार के लड़ जाने पर भी डिस्टर्ब नहीं होंगे। हम डिस्टर्ब नहीं हैं क्योंकि हमने मन में अच्छा विचार पैदा किया है। जब मन में अच्छा विचार होगा तब बाहर बड़ा नुकसान होने पर भी हम डिस्टर्ब नहीं होंगे। हमारी खुशी उत्तेजना नहीं पैदा कर सकती है। जब हम उत्तेजित हैं तब हम खुश नहीं रह सकते हैं। माफी मांग लेना और माफ कर देना एक अच्छा विचार है। माफी मांग कर अथवा माफ करके हम खुश रहेंगे।
पहले हम छोटे घर में खुश थे लेकिन आज बड़े घर में भी उदास हैं। अर्थात् हमारी खुशी बाह्य चीज अथवा किसी खिलौने पर निर्भर नहीं है। पहले हम छोटी बात पर डिस्टर्ब हो जाते थे। लेकिन आज बड़ी बात पर भी नार्मल रहते हैं। हमारी खुशी किसी बाह्य चीज पर निर्भर नहीं है। बल्कि हमारी खुशी हमारी विलिफ सिस्टम और थाॅट प्रोसेस पर निर्भर है।
जो व्यक्ति दूसरों को आगे करता है, वह दूसरों से कितना ज्यादा आगे निकल जाता है। उसे स्वयं नहीं पता होता है। एक लीडर अपने नहीं बल्कि अपनों के लिए जीवन जीता है। लीडर और डिक्टेटर में अन्तर होता है। डिक्टेटर अपना कार्य करने में नकारात्मक उपाय पर बल देता है। लेकिन लीडर अपने कार्य में सकारात्मक उपाय का सहारा लेता है। लीडर के साथ हम खुश रहते हैं। लेकिन डिक्टेटर के साथ हम दुःखी रहते हैं।
हमारी इच्छा है कि हम सफल रहें। लेकिन पहले हमें सफलता का अर्थ समझना होगा। आज के दौर में धन नाम सम्मान माक्र्स और कैरियर को सफलता से जोड़कर देखा जाता है। आज सफलता का अर्थ दूसरों से आगे निकल जाने में माना जाता है। इस मान्यता के कारण हम एक दूसरे के कम्पीटीटर बन चुके हैं। हम दूसरों से आगे जाने के लिए कुछ करने को तैयार हैं। लेकिन हम इस गलत मान्यता का कारण अपने भीतर असुरक्षा का भाव पैदा कर लेते हैं। दूसरों को पीछे करने के चक्कर में हम अपनी विशेषता और कैपिसिटी भूल जाते हैं।
हमारा फोकस स्वयं से हटकर दूसरे व्यक्ति के विशेषता और कैपिसिटी पर होता है। जब हम दूसरों से अपनी तुलना करेंगे। तब हम अपनी विशेषता, पैरेंट, स्किल और कैपिसिटी को भूल कर दूसरों के नकल में लग जायें। यदि दूसरा चोरी करता है। करप्सन करता है, कार्मिकों को शोषण करता है तब हम भी वही तरीका अपनायेंगे। क्योंकि हमें हर किमत पर उससे आगे जाना है। यदि हम दूसरों के स्थान पर अपने पर फोकस करेंगें, अपनी विशेषता टेलेंट स्किल और कैपेसिटी का प्रयोग करेंगे, तब हम दूसरों से बहुत आगे निकल जायेंगे।
इसके विपरित यदि हम दूसरों से आगे निकलने के लिए अपने वैल्यू को छोड़कर गलत तरीके अपनायेंगे तब हम नम्बर एक पर पहुचकर भी असन्तुष्ट रहेंगे। नम्बर एक पर पहुच कर तनाव, डर एवं असुरक्षा के भाव को लेकर उदास रहेंगे। लोग भले ही हमें सफल मानते रहें लेकिन हम अपने को कभी भी सफल नही मान सकते हैं।
अपनी सफलता का पैमान स्वयं बनाना चाहिए। दूसरों के सफलता के पैमाने पर उतरने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
मुझसे कोई भी चीज दूसरे के पास अधिक है अथवा दूसरा व्यक्ति अधिक सफल है, इसे देखकर हमारे अन्दर ईष्र्या का भाव आता है। ईष्र्या के भाव से मुझे सफलता अच्छी नहीं लगती है। इस कारण मुझमें हीन भावना आ जाती है। अपनी हीन भावना को लेकर हम निरन्तर डिस्टर्ब रहते हैं।
हमारी ईष्र्या प्रोफेसनल कैरियर में भी नहीं हमारे घर में भी हो सकती है। ईष्या पति-पत्नी के बीच में भी हो सकती है। जैसे ही हम किसी चीज से ईष्या करते हैं हमारी आन्तरिक शक्ति घटती है। हमारी आन्तरिक शक्ति घटने के कारण हमारी एक्सेपटेंस, टाॅलरेंस और एडजेस्टमेन्ट पावर घटती है। इस कारण पहले से हम अधिक ईष्या करने लगते हैं। धीरे-धीरे यह ईष्र्या हमारी आदत संस्कार में बदल जाती है। इसके परिणाम स्वरूप जहाँ पहले हम आफिस बिजिनेस में करते थे अब घर में पहुॅच कर अपने बीबी बच्चों से करने लगते हैं।
जब हम किसी की सफलता से ईष्र्या करते हैं तब वह सफलता हम से दूर चली जाती है। यदि किसी व्यक्ति को हम पसन्द नहीं करते हैं, तब वह व्यक्ति हमारे पर आने को पसन्द नहीं करता है।
ईष्र्या हमारी कैपिसिटी को कम कर देती है। ईष्र्या के कारण हम जिस व्यक्ति से आगे जाना चाहते हैं उससे स्वयं को, स्वयं पीछे कर लेते हैं। यदि कोई व्यक्ति हम से तेज दौड़ रहा है तब हम उस व्यक्ति को पीछे करने का प्रयास छोड़ दें। इसके स्थान पर हम अपनी कैपिसिटी बढ़ाने का प्रयास करें।
यदि कोई व्यक्ति हमसे आगे निकल रहा है और उसकी सफलता देखकर हम खुश हैं। क्योंकि हमारे अन्दर सकारात्मक भाव हैं। यह भाव हमारे अन्दर कैपिसिटी के भाव को बढाता है लेकिन यदि सफल व्यक्ति को देखकर हम ईष्र्या करेंगे तो इसे देख कर हमारी कैपिसिटी कम होगी। ईष्र्या से मन की स्थिति खराब होती है। ईष्र्या के कारण हम दूसरों की सफलता में बाधक बनते हैं। ईष्र्या के कारण हम दूसरों के सहयोग को प्राप्त नहीं कर पाते हैं।
अपने नजरिये को बार-बार सही कहना छोड़ देना चाहिए। दो व्यक्तियों के बीच मतभेद होने पर दोनों व्यक्ति अपने-अपने नजरिये को सही सिद्ध करने में होड़ लग जाती है। जब एक व्यक्ति अपना नजरिया को एक्सप्लेन करता है। तब थोडे़ देर में दूसरा व्यक्ति अपने नजरिये को डिफेंड करने लगता है। यदि हम अपने नजरिये को सही कह कर दूसरे के नजरिये को गलत सिद्ध करेंगे तब दूसरा व्यक्ति डिफेंड करेगा ही।
हमारी खुशी किसी खिलौने पर निर्भर नहीं होती है। हमारी खुशी समाज द्वारा बनायी गयी परिभाषा अथवा बाह्य चीज पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। अपनी खुशी का पैमाना स्वयं बनायें। खुशी एक आन्तरिक मन की अवस्था है। परिस्थिति का प्रभाव मन पर होगा अथवा मन की स्थिति का प्रभाव परिस्थिति पर होगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि कौन अधिक शक्तिशाली है। परिस्थिति अधिक शक्तिशाली है या मन अधिक शक्तिशाली है। इसलिए मन को शक्तिशाली बनने के लिए अभ्यास करना चाहिए।
मनोज कुमार श्रीवास्तव
सहायक निदेशक, सूचना
प्रभारी मीडिया सेन्टर