नई दिल्ली: लोकमंथन का उद्घाटन करते हुये उपराष्ट्रपति श्री एम. वेंकैया नायडु ने कहा कि कोई भी राष्ट्र- उसकी जनता, जन संस्कारों और जनांकांक्षाओं से बनता है। अत: समय-समय पर जन संस्कारों और आकांक्षाओं का विमर्श और विश्लेषण राष्ट्रीय जीवन को जीवंत बनाये रखने के लिये आवश्यक है।
भारत की समृद्ध संवाद परंपरा का जिक्र करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि ज्ञान की प्रामाणिकता और सत्यान्वेषण के लिए संवाद एक सभ्य स्वीकार्य पद्धति है। भारतीय परंपरा में ऐसे कई संवादों का प्रसंग मिलता है।
उपराष्ट्रपति ने कहा कि इस लोक मंथन से न केवल नये विचारों का सर्जन होगा – कुछ पुरानी भ्रांतियां भी टूटेंगी।
इस अवसर पर उपराष्ट्रपति ने कहा कि लंबे समय तक औपनिवेशिक गुलामी ने न सिर्फ हमारी राजनीतिक आदर्शों और संस्थाओं को समाप्त किया है बल्कि उनके नैसर्गिक विकास को भी विकृत कर दिया है। उन्होंने कहा कि लंबी गुलामी समाज के अपने इतिहास बोध को समाप्त कर देती है और सामुदायिक रचनात्मक मेधा को नष्ट कर देती है। अत: आवश्यक है कि समाज स्वयं अपना इतिहास बोध विकसित करे।
भारतीय समाज में समाज सुधारों की परंपरा का जिक्र करते हुए उपराष्ट्रपति ने स्मरण दिलाया कि सदियों के राजनैतिक विप्लव और आर्थिक दोहन के कारण सामाजिक विपन्नता दुर्दशा के बावजूद, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और वैचारिक सुधार और सौहार्द की प्रक्रिया सतत चलती रही। शंकराचार्य से विवेकानंद तक दार्शनिक समाज सुधारकों की लंबी श्रृखंला रही है जिन्होंने राजनैतिक और आर्थिक चुनौतियों में भी भारतीय समाज को आध्यात्मिक पुनर्जागरण और सामाजिक सौहार्द के लिए प्रेरित किया।
उन्होंने कहा कि यह आवश्यक है कि दीर्घकालीन राजनैतिक आधिपत्य के कारण आयी सामाजिक कुरीतियों का अध्ययन किया जाये और उनका प्रतिकार किया जाय। लंबे औपनिवेशिक आधिपत्य के कारण हुए समाज के आर्थिक दोहन का सामाजिक और जातीय संरचना और संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ा, इसका गंभीर अध्ययन होना चाहिए।
उपराष्ट्रपति ने कहा कि हमारा स्वाधीनता संग्राम, राजनैतिक स्वतंत्रता ही नहीं अपितु समाज सुधार का आंदोलन भी था। इसमें अस्पृश्यता का विरोध, जातिवाद की कुरीतियों का विरोध, सामुदायिक स्वच्छता, आर्थिक स्वावलंबन, जमींदारी का विरोध, शिक्षा सुधार, महिला सशक्तिकरण, अहिंसा आदि प्रगतिशील मुद्दों पर जन समर्थन और जन जागरण का आहृवाहन था।
अपने भाषण में उपराष्ट्रपति ने स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, डॉ. अम्बेडकर, सरदार पटेल की भावी भारत के प्रति अपेक्षाओं का भी जिक्र किया।
उपराष्ट्रपति महोदय का अभिभाषण:
“द्विवार्षिक लोकमंथन की श्रृंखला में, इस दूसरे लोकमंथन के प्रज्ञा प्रवाह में आपके साथ भारतबोध-जन, गण, मन; जैसे महत्वपूर्ण विषय पर विचार मंथन करने का सुअवसर, प्रदान करने के लिये, आयोजकों के प्रति आभार प्रकट करता हूँ।
कोई भी राष्ट्र- उसकी जनता, जन संस्कारों और जनांकांक्षाओं से बनता है। अत: समय-समय पर जन संस्कारों और आकांक्षाओं का विमर्श और विश्लेषण राष्ट्रीय जीवन को जीवंत बनाये रखने के लिये आवश्यक है। इस संदर्भ में यह लोकमंथन एक महत्वपूर्ण और आवश्यक कदम है।
भारत में संवाद और विमर्श की प्राचीन परंपरा रही है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में तर्क, वाद, युक्ति, प्रमेय, प्रमाण, निर्णय जैसे शब्दों का संदर्भ, हमारी परंपरा में विमर्श की स्वस्थ परंपरा की ओर संकेत करता है। ज्ञान की प्रामाणिकता और सत्यान्वेषण के लिए संवाद एक सभ्य स्वीकार्य पद्धति है। भारतीय परंपरा में ऐसे कई संवादों का प्रसंग मिलता है जैसे कृष्ण अर्जुन संवाद से गीता का उदय हुआ, याज्ञवल्क्य-गार्गी संवाद से वृहद्वारण्यक उपनिषद का निर्माण हुआ। इसी प्रकार याज्ञवल्क्य-मैत्रयी संवाद में नैतिक और आध्यात्मिक तत्वों का गहन चिन्तन है। यह ध्यान देने योग्य है कि गूढ प्रश्नों के विमर्श में महिलाऐं भी भाग लेती थीं। कठोपनिषद के यम और बालक नचिकेता संवाद में मृत्यु जैसे गूढ सत्य पर चिंतन है। लोक मंथन के माध्यम से आप समाज में प्रबुद्ध विमर्श की संस्कृति को पुनर्स्थापित कर रहे हैं। इसके लिए मेरी शुभकामनाऐं। इस मंथन से न केवल नये विचारों का सर्जन होगा – कुछ पुरानी भ्रांतियां भी टूटेंगी।
यह विषय प्राय: उठा है कि आखिर भारत है क्या? 19 वीं सदी के उत्तरार्ध में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद जान स्ट्रैची जैसे कुछ नौकरशाहों ने भारत में अंग्रेजी शासन की सार्थकता गढ़ने का प्रयास किया। ऐसे इतिहासकारों का मत था कि भारत कभी एक देश के रूप में था ही नहीं, बल्कि अनेक रियासतों का संग्रह था जो इस भू-भाग पर राज करती थी, जिनमें प्राय: सांस्कृतिक या भाषाई एकता या संवाद भी नहीं था।
लंबे समय तक औपनिवेशिक गुलामी न सिर्फ हमारी राजनीतिक आदर्शों और संस्थाओं को समाप्त करती है बल्कि उनके नैसर्गिक विकास को भी विकृत कर देती है। लंबी गुलामी समाज के अपने इतिहास बोध को समाप्त कर देती है और सामुदायिक रचनात्मक मेधा को नष्ट कर देती है। अत: आवश्यक है कि समाज स्वयं अपना इतिहास बोध विकसित करे जिसमें मौखिक इतिहास, लोक परंपराओं, स्थानीय परंपराओं, भाषा-साहित्य, लोक कलाओं को प्रमाणिक ऐतिहासिक स्रोत के रूप में महत्व दिया जाय।
आजाद भारत आज भी भारतीयता के सच्चे स्वरुप को खोज कर रहा है। लोक मंथन जैसे आयोजन, हमारे इतिहासबोध को पुनर्जीवित करने में और भारत बोध को हमारी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में देखने का एक अभिनंदनीय प्रयास हैं।
मुझे हाल ही में, स्वामी विवेकानंद द्वारा 1893 में विश्व धर्म संसद, शिकागों मे दिये भाषण के 125वें स्मारकोत्सव के अवसर पर वहाँ जाने का अवसर प्राप्त हुआ। यह अवसर मेरे लिए एक तीर्थयात्रा के समान था। अपने भाषण में स्वामी जी ने कहा था “जब भी भारत का सच्चा इतिहास लिखा जायेगा यह सिद्ध हो जायेगा कि धर्म के विषयों में या ललित कलाओं में भारत सदैव विश्व गुरू रहा है।” इस अवसर पर मुझे श्री अरविन्द के शब्द स्मरण हो आये जो उन्होंने स्वामी विवेकानंद के वक्तव्य पर दिये थे- “विवेकानंद का पश्चिम में जाना पहला संकेत था कि भारत अभी भी सजग, सचेत है—वह मात्र जीवित ही नहीं बल्कि विश्व विजय के लिये तत्पर भी है।”
वास्तव में ये शब्द भविष्यवाणी ही थे। अगली एक शताब्दी, भारत ने विश्व की सबसे बड़ी उपनिवेशवादी ताकत के खिलाफ एक रचनात्मक और अहिंसक राजनैतिक आंदोलन खड़ा किया। इस आंदोलन में, भारतीय की प्राचीन संस्कृति के संस्कारों का आहृवान किया गया। सत्य, अहिंसा, सेवा, सामुदायिक सौहार्द, समानता, स्वावलंबन जैसे मानवीय मूल्यों को समाज में पुनर्स्थापित किया गया। यह एक रचनात्मक सौहार्द पूर्ण और व्यापक आंदोलन था।
गांधी जी का मानना था कि मैं सभी संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करता हूं, क्योंकि मेरा धर्म, हर संस्कृति के उत्कर्ष को स्वीकार करता है। उन्होंने कहा कि “मैं नहीं चाहता कि मेरा घर दीवारों से घेर दिया जाये और खिडकियां बंद कर दी जायें। मैं हर संस्कृति से परिचित होना चाहता हूं पर वे मुझे मेरे स्थान से डिगा सकें, यह मैं स्वीकार नहीं करूंगा।”
सदियों के राजनैतिक विप्लव और आर्थिक दोहन के कारण सामाजिक विपन्नता दुर्दशा के बावजूद, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और वैचारिक सुधार और सौहार्द की प्रक्रिया सतत चलती रही। शंकराचार्य से विवेकानंद तक दार्शनिक समाज सुधारकों की लंबी श्रृखंला रही है जिन्होंने राजनैतिक और आर्थिक चुनौतियों में भारतीय समाज को आध्यात्मिक पुनर्जागरण और सामाजिक सौहार्द के लिए प्रेरित किया। स्वामी विवेकानंद ने कहा – “समस्त मानवता के प्रति प्रेम और सद्भाव ही सच्ची धार्मिकता है। आत्मबोध ही धर्म है … धर्म वह है जो आप हैं या हो सकते हैं न कि वह जो आप सुनते या स्वीकारते हैं।”
सामाजिक नवजागरण के ये अंकुर हर क्षेत्र में फूटे – चाहे असम के शंकरदेव या उड़ीसा के चैतन्य महाप्रभु, कर्नाटक के बसवाचार्य, काशी के कबीर या रैदास या सौराष्ट्र के नरसी मेहता या पंजाब के नानकदेव या आर्य समाजी संत, महाराष्ट्र के ज्योतिबा फूले, पंडिता रमाबाई या स्वयं डॉ. अंबेडकर, सभी ने भारतीय समाज में नवचेतना का संचार किया।
यह आवश्यक है कि दीर्घकालीन राजनैतिक आधिपत्य के कारण आयी सामाजिक कुरीतियों का अध्ययन किया जाये और उनका प्रतिकार किया जाय। लंबे औपनिवेशिक आधिपत्य के कारण हुए समाज के आर्थिक दोहन का सामाजिक और जातीय संरचना और संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ा, इसका गंभीर अध्ययन होना चाहिए।
सतत सामाजिक चेतना और सुधार के कारण ही हमारा स्वाधीनता संग्राम इतना व्यापक और सर्वस्पर्शी बन सका जिसमें समाज के सभी वर्गों, क्षेत्रों की स्वीकृति थी।
हमारा स्वाधीनता संग्राम, राजनैतिक स्वतंत्रता ही नहीं अपितु समाज सुधार का आंदोलन भी था।
इसमें अस्पृश्यता का विरोध, जातिवाद की कुरीतियों का विरोध, सामुदायिक स्वच्छता, आर्थिक स्वावलंबन, जमींदारी का विरोध, शिक्षा सुधार, महिला सशक्तिकरण, अहिंसा आदि प्रगतिशील मुद्दों पर जन समर्थन और जन जागरण का आहृवाहन था। जिसने दीनदयाल उपाध्याय जी के एकात्म मानवता को भी प्रेरित किया।
जनमानस स्वाधीन भारत के प्रति आशान्वित था।
हमारे संविधान ने इस आशा को मुखरित स्वर दिया और इसे राष्ट्रीय संकल्प के रूप में संकल्पबद्ध किया।
13 दिसंबर 1946 को पं. नेहरू द्वारा संविधान सभा में लाये गये उद्देश्य प्रस्ताव में कहा गया कि “यह संविधान सभा ऐसा संविधान बनायेगी जिसमें भारत के सभी नागरिकों के लिये सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय सुरक्षित और सुनिश्चित किया जायेगा, अवसरों और स्तर की समानता होगी, विचारों, अभिव्यक्ति, आस्था एवं विश्वास, व्यवसाय की स्वतंत्रता होगी। जिसमें, अल्पसंख्यकों, पिछड़े तथा जनजातीय क्षेत्रों, पिछड़े और वंचित वर्गों के लिये विशेष प्रावधान होंगे।”
हमारा संविधान मूलत: सामाजिक सौहार्द और विकास का दस्तावेज है जो राजनीति को सामाजिक अपेक्षाओं की पूर्ति साधन बनाता है।
समाज का सर्वस्पर्शी विकास और एकता हमारी संवैधानिक प्रतिबद्धता है।
18 दिसंबर 1946 को संविधान के Aims and Objectives Resolution पर हुई चर्चा में भाग लेते हुए डॉ. अंबेडकर ने इसी सर्वस्पर्शी विकास और सामाजिक एकता की आवश्यकता पर बल दिया।
उन्होंने कहा “मैं जानता हूं आज हम राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से बंटे हुए हैं। और एक दूसरे के कटु विरोधी हैं संभवत: मैं स्वयं उनमें से एक दल का नेतृत्व कर रहा हूं। लेकिन यदि समय और परिस्थितियां साथ दें तो संसार की कोई शक्ति इस देश को एक होने से नहीं रोक सकती।”
उन्होंने आगे कहा कि “मैं हमारे भावी भविष्य के प्रति आशान्वित हूं लेकिन हमारी समस्या वर्तमान की विविधताऐं और सामाजिक विषमताएं हैं। हमें अंत की नहीं बल्कि प्रारंभ की चिंता है।”
इसी प्रकार नये भारत के निर्माता, सरदार पटेल को भी भारत की एकता और विकास को लेकर चिंता थी।
देशी रियासतों को भारतीय संघ में सम्मिलित करने के बावजूद वे इस प्रयोग की सफलता के प्रति सशंकित थे-“हमने रातोंरात इन रियासतों में आधुनिक शासन प्रणाली लागू कर तो दी है लेकिन यह प्रणाली ऊपर से थोपी गई है, न कि इसके लिए जनता ने मांग की थी। जब तक यह थोपी गई शासन प्रणाली जनमानस में जड़ न जमा ले, तब तक विप्लव और अशांति का खतरा बना हुआ है।”
हमारे संविधान निर्माताओं की देश के प्रति निष्ठा और उसके भविष्य के प्रति आस्था, अभिनंदनीय है, स्तुत्य है। वे देश की समस्याओं से अवगत थे। क्या नया राज्य, प्राचीन राष्ट्र की सदियों संचित अपेक्षाओं को पूर्ण कर सकेगा?
हमारे सर्वस्पर्शी संविधान ने हमें दिशा दी है। एक देश के रूप में हमारे प्रयासों को संकल्पबद्ध किया है। कालान्तर में नयी चुनौतियां भी आयी हैं। हम अपनी संवैधानिक चेतना से इन चुनौतियों को अवसरों में बदल सकेंगे।
मुझे आशा है कि लोक मंथन का यह संस्करण, हमारे संविधान निर्माताओं के प्रश्नों और शंकाओं पर गंभीर विमर्श करेगा और स्वीकार्य समाधानों और निष्कर्षों तक पहुंच सकेगा। सार्थक संवाद और विमर्श की यह स्वस्थ परंपरा आप समाज के हर स्तर तक ले जाने में सफल होंगे, यह मेरी शुभकामना है। इस लोक मंथन से आलोकामृत निकले और पूरे विश्व को भारत भारती की विचारधारा से आनन्दमय बनाए। यह मेरी शुभेच्छा है।