शहरी माओवाद शब्द अब चलन में है, इसे केवल अवधारणा कह कर खारिज नहीं किया जा सकता। लेखक राजीव रंजन प्रसाद का उपन्यास – “लाल अंधेरा”बस्तर के आम जन और उनके संघर्षों की कहानी है जिसे पढते हुए साफ होता है कि दिल्ली के नाखून कैसे लोक और लोकजीवन कर धंस रहे हैं। लाल अंधेरा एक उपन्यास है, हालाकि यह बस्तर क्षेत्र की सच्चाईयों को फिक्शन के माध्यम से सामने लाने वाला एतिहासिक दस्तावेज अधिक है। माओवाद और व्यवस्था के बीच लगातर पिस रहे आदिवासी आज किन हालात में हैं यह उपन्यास “लाल अंधेरा” सामने लाता है।
मूल कहानी का नायक सूदू किसी को भी संवेदना से भर सकता है। राजा के पास अर्दली के रूप में काम करने वाला एक किशोर, महल में हुए गोलीकाण्ड से बच कर भागता है, वह बैलाडीला के लोहे की खदानों में काम करने लगता है, वहाँ मजदूरों के साथ होने वाले शोषण का शिकार बनता है। मजदूर कैम्प में हुई गोलीबारी के बाद फिर भाग कर नयी जगह, अपने लिये नयी जमीन तलाश करता है। थोडी सी जमीन खरीद कर रहने लगता है, परिवार बसाता है। उपन्यास में मर्मस्पर्शी विवरण हैं कि जब माओवादी जब बस्तर में पहुँचते हैं तब सूदू के जीवन में क्या प्रभाव पडता है। सूदू की बेटी सोमली माओवादियों की बंदूख थाम लेता है जबकि उसका बेटा सोमारू सलवाजुडुम की ओर से बंदूख पकड लेता है। एक ही परिवार का इस तरह का विभाजन बस्तर में आम त्रासदी है जिसके परिणामों को लेखक ने बखूबी दिखाया है जब झिरम घाटी की घटना में जहाँ कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर माओवादी हमला हुआ, दोनो भाई बहन दो ओर की बंदूख थामे आमने सामने खडे थे। उपन्यास तब पाठक को भावुक कर देता है जब वह पाता है कि सूदू प्रेशर बम की चपेट में आ कर बुरी तरह घायल हो गया है।
यह केवल सूदू की कहानी नहीं है। यह कहानी उस विषयवस्तु के इर्दगिर्द बुनी भी गयी है जिसकी इन दिनो बहुत व्यापक चर्चा है – शहरी माओवाद। इसे स्पष्ट करने के लिये लेखक कहानी को दिल्ली के कुछ किरदारों तक ले आता है जिनमें प्रोफेसर हैं, रिसर्चर हैं, एनजीओ हैं तथा पत्रकार भी हैं। बस्तर से कौन सी घटना दिल्ली पहुच पाती है तथा उनपर किस दृष्टिकोण के विमर्श होते हैं इसकी लेखक ने अपने उपन्यास में कडी पडताल की है। विचारधारा के नामपर माओवाद को किस तरह पुष्पित पल्लवित किया जा रहा है इसे किरदार स्पष्टता से बाहर ले आते हैं। कल्पित कहानियाँ कैसे गढी जाती हैं उसे सामने लाने के लिये सोयम की माओवादियों स्वारा हत्या और उसके बाद उसका पूरा परिवार क्या भुगतता है, उपन्यास के ताकतवर कथानक का हिस्सा है। माओवाद के कारण हुए आदिवासियों के पलायन, फिर राज्य के बाहर वे बंधुआ मजदूर के रूप में कैसा जीवन जी रहे हैं, इस विषय को भी लेखन ने मृतक सोयम की पत्नी हिडमे की कहानी के रूप में बुन कर सामने रखा है।
उपन्यास लाल अंधेरा के माध्यम से लेखक राजीव रंजन प्रसाद ने अपने विषय को चरितार्थ किया है। यह बस्तर का एसा कडुवा सत्य है जिसके विषय में हर किसी को अवश्य जानना चाहिये। यह शोधपरक उपन्यास है जिसमे बस्तर में नक्सलवाद की उद्भव व विकास का प्रस्तुतिकरण तो है ही, यह भी साफगोई से कहा गया है कि यदि बस्तर अंचल को माओवाद की विभीषिका का समाधान करना है तो बंदूख के साथ साथ कलम से होने वाले हमलों का भी समुचित उत्तर तैयार रखना होगा। यह उपन्यास इस लिये निर्पेक्ष प्रस्तुति कहा जा सकता है चूंकि यह न केवल माओवाद की वास्तविकताओं का प्रस्तुतिकरण है, साथ ही इसमे वर्तमान व्यवस्था और लोकतंत्र की खामियों पर भी करारा कटाक्ष करने से कोई परहेज नहीं किया गया है। उपन्यास की भाषा में प्रवाह है तथा पाठक को एक बार में ही पूरा पढा ले जाने में सक्षम है।
सोर्स उपन्यास: लाल अंधेरा, लेखक: राजीव रंजन प्रसाद, प्रकाशक: यश पब्लिकेशंस, नवीन शहादरा, नयी दिल्ली