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श्री कृष्ण मनोविकारों के विरुद्ध युद्ध में दक्ष थे

उत्तर प्रदेश

प्रायः लोग श्री कृश्ण को एक राजनीतिक नेता, एक अजेय योद्धा, एक उच्च धार्मिक योगारूढ़ महापुरूश, एक कुषल राजदूत, एक प्रतिभाषाली रथवाहक, एक मनमोहक बालक, एक सहायक मित्र, एक निपुण मुरलीवादक के रूप में याद करते है। वे मुख्यतः इन्हीं रूपो में उसका गायन करते है। परन्तु प्राचीन अथवा अर्वाचीन ग्रन्थों में इन पहलुओ में श्रीकृश्णा की महानता को स्पष्ट करने के लिए जिन वृतान्तों का उल्लेख है वे प्रायः उसकी महानता के साधक नहीं बल्कि बाधक है। उदाहरण के तौर पर श्री कृश्ण के बाल्यावस्था में मक्खन चुराने सम्बन्धी जिन वृतान्तो का उल्लेख है, वे उन्हें ‘मोहन’ या ‘मनमोहन’ चित्रित करने के साथ-साथ उनमें चंचलता, अनुषासनहीनता, इन्द्रिय-निग्रह का अभाव, स्तेय वृृत्ति (चोरी) का अस्तित्व भी प्रदर्शित करते हैं। द्वापर और कलियुग के मनभावने और लुभावने बच्चों का यह प्राकृत स्वभाव होता है इसलिए उस काल में कवियों ने अपनी कृतियों में श्रीकृश्ण के भी ऐसे ही स्वभाव को उभारा है। वे सोचते होंगे कि वह बच्चा ही क्या जो नटखट, हठी और चंचल न हो। लगता है कि वे भूल गए होगें कि श्री कृश्ण अपने हर आयु-भाग में विलक्षण थे। मनमोहक इसलिए थे कि नैन उनके रूप को देखकर सुख पाते थे, जैसे सारा सौन्दर्य उनके ही रूप-लावण्य में मुग्ध हो गया हो, ऐसी उनकी छवि थी इसलिए उनमें बाल्यकाल की सरलता रही होगी, खेल-कूद भी उनको प्रिय होगा, वे लुकने-छिपने का खेल भीे खेलते होंगे, आँख मिचैनी भी करते होंगे, उनकी हँसी, उनका हावभाव और उनका हर क्रिया-कलाप मनमोहक रहा होगा परन्तु उसमें दिव्यता अवष्य रही होगी और जिन नियमों का योगी अभ्यास करते है, वे उन्हें जन्म ही से मिले होंगे।

इसी प्रकार हम देखते है कि अनेक ग्रन्थों में अर्जुन के साथ उनका जो (सखा भाव) दर्षाया जाता है, उसका उल्लेख करते-करते अतीत काल के लेखको ने उन्हें अर्जुन के साथ षराब पीते हुए भी दिखाया है और द्रोपदी के होते हुए भी अपनी बहन सुभद्रा का विवाह अर्जुन से करने को उद्यत दर्षाया है और इतना ही नही, द्वारका में जाकर एक सन्यासी वेश धारण कर, मन्दिर में जाती हुई सुभद्रा का अपहरण करने तथा उसकी रक्षा करने वालों को मार डालने तक की सलाह देने का भी उल्लेख किया है। वास्तव में श्रीकृश्ण के बारें में ऐसा सोचना भी पाप है! क्योंकि उनके उज्जवल चरित्र के कारण तो उन्हे 16 कला सम्पूण और पुरूशोतम कहा जाता है।

भारतवासी जानते है कि ग्रन्थकारों ने श्री कृश्ण की वाद्य-विद्या अथवा बाँसुरी-वादन की कला का तथा उसके रूप लावण्य का ऐसा उल्लेख किया है। कि उन्होनें यह बताने में भी संकोच नहीं किया कि उनकी मुरली की तान सुनकर गोप-पत्नियाँ और यज्ञ-पत्तिनयाँ घर द्वार छोड़कर उनके साथ रास करती थी और उनके साथ उनका स्वछन्द व्यवहार हुआ और कि श्री कृश्ण की 16,108 रानियाँ थी जिनके डेढ़ लाख से अधिक बच्चे पैदा हुए। सोचिए तो ऐसा भला श्री कृश्ण पर दोशारोपण करना क्या अपने ही दोशों के लिए छुटी पाने का यत्न करना नहीं है? उन्हें मुरली मनोहर तथा भगवान सिद्ध करते-करते उनमें स्तैण भाव (Womanising) नारी-अपहरण की चैश्ठा, कुमारियों का ऊल-जलूल उल्लेख लेखक के अपने मन की उचछखलता ही तो है।

फिर उसकी चतुराई का ऐसा प्रदर्षन किया गया है कि उसे अनैतिकता का रूप दे दिया गया है उदाहरण के तौर पर जरासंध को मखाने के लिए उन्हे ब्राह्मण वेश धारण करके स्वयं किले में प्रवेष करता दिखया है और युद्ध के अन्तिम दिनों में भीम को यह अनुमति देते व्यक्त किया गया है कि वह दुर्योधन की रान (जंघा) पर गदा मारे। इसी प्रकार कर्ण को मारने के लिए भी उन्होंने अर्जुन को तत्कालीन युद्ध नीति (Code of War) विरूद्ध परार्मष दिया, ग्रन्थों में ऐसा वर्णन आया है। और देखिये, उन्हें एक और योगीराज कहाँ गया है परन्तु दूसरी और योग की षिक्षा देते हुए भी, लड़ाई के लिए अर्जुन को उकसाते हुए दर्षाया गया है तथा स्वंय हजार रानियाँ रखते बताया गया है। स्पश्ट है कि आज लोगों को श्री कृश्ण की वास्तविक जीवन गाथा का ज्ञान नहीं है। वास्तव में तो श्री कृश्ण अपने पूर्व जन्म में मनोविकारो के विरूद्ध युद्ध कला में दक्ष थे। वे अपने षरीर रूपी रथ के कमेन्द्रियों रूपी घोड़ों के संचालन की दृश्टि से कुषल रथवान थे। वे विष्व-षान्ति के सफल दूत थे, योगीराज थे और बाल सुलभ सरलता की मूर्ती थे तथा ज्ञान मुरली वादन में निपुण आत्मा रूपी गोपी को अर्तीन्द्रय सुख देने वाले थे। ऐसे ही उनके और चरित्रों पर प्रकाष डाला जा सकता है।

ब्रह्माकुमारी मन्जू
सौजन्य से पंजीकृत उ0प्र0 न्यूज फीचर्स एजेन्सी

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