नई दिल्ली: संस्कृति मंत्रालय ने नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय के सहयोग से आज यहां ‘तात्या टोपे की 200वीं जयंती का स्मरणोत्सव’
के अंतर्गत विशेष व्याख्यान और राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया। दिल्ली इंस्टीट्यूट ऑफ हेरिटेज रिसर्च एंड मैनेजमेंट, नई दिल्ली के प्रो. मक्खन लाल ने ‘प्रथम स्वाधीनता संग्राम और भारतीय राष्ट्र’ विषय पर विशेष व्याख्यान दिया। व्याख्यान देते हुए प्रो. मक्खन लाल ने इस ओर संकेत किया कि किस प्रकार ‘भारतीय राष्ट्र’ का विचार भारतीय इतिहास लेखन के संभाषण में आया। व्याख्यान में इस मामले को बहस के जरिए सुलझाने की कोशिश की गई कि क्या भारत वास्तव में राष्ट्रों का समूह है और भारतीय सभ्यता के इतिहास को इस पर क्या कहना है। उन्होंने कहा कि 18वी और 19वीं सदी में ब्रिटिश विद्वानों और प्रशासकों ने भारत के विशाल भौगोलिक आयामों, इसकी सांस्कृतिक विविधता और धार्मिक बहुलता पर ध्यान केन्द्रित किया। ब्रिटिश लोगों को इस बात पर यकीन नहीं हो सका कि ये तीनों बातें एक राष्ट्र के भीतर एक साथ हो सकती हैं और उन्होंने यह मिथक प्रचारित किया कि भारत कभी भी एक राष्ट्र था ही नहीं, और ब्रिटिश लोगों ने ही इसे राजनीतिक रूप से एकजुट किया और इसे एक राष्ट्र का रूप प्रदान किया।
प्रो. लाल ने हिंद स्वराज से महात्मा गांधी को उद्धृत करते हुए कहा कि गांधी ने भारतीय राष्ट्र के बारे में भ्रामक ब्रिटिश दृष्टिकोण को उजागर किया। उन्होंने भारत के भूगोल और संस्कृति को परिभाषित करने के लिए विभिन्न विद्वानों और प्राचीन भारतीय ग्रंथों को भी उद्धृत किया। देश के रूप में और राष्ट्र के रूप में भारत का प्रथम स्पष्ट उल्लेख 7वीं सदी में पाणिनी के ग्रंथों में मिलता है, बौद्ध साहित्य में भारत के सात क्षेत्रों का वर्णन किया गया है, जबकि पुराण स्पष्ट रूप से भारतवर्ष शब्द को परिभाषित करते हैं। कौटिल्य ने भारत की परिकल्पना विशाल राजनीतिक इकाई के रूप में की थी। आधुनिक दौर में बिपिन चंद्र पाल, जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल जैसे राष्ट्रवादी नेताओं तथा कई अन्य लोगों ने भारतीय राष्ट्रीयता की अवधारणा उसकी महान विविधता में परिकल्पित की। उन्होंने अंत में कहा कि तात्या टोपे, नाना साहेब पेशवा और अन्य स्वाधीनता सैनानियों की सिर्फ एक विचारधारा थी – भारतीय राष्ट्रीयता और सिर्फ एक राष्ट्र – भारतवर्ष था।
‘तात्या टोपे और प्रथम स्वाधीनता संग्राम’ विषय पर सम्मेलन के दौरान वक्ताओं ने तात्या टोपे के बहुमुखी व्यक्तित्व, 1857 के विरोध के विविध पहलुओं और उसके आयामों तथा परिणामों पर ध्यान केन्द्रित किया। प्रो. सुरेश मिश्रा ने अपने पेपर में मध्य प्रदेश राज्य पुरातत्व एवं संग्राहालय द्वारा प्रकाशित बुंदेली भाषा में रचित दो महत्वपूर्ण दस्तावेजों पडताल की। उन्होंने तात्या टोपे और मध्य भारत के विभिन्न क्षेत्रीय शासकों के बीच हुए पत्र व्यवहार के संदर्भ भी उपलब्ध कराए।
तात्या टोपे की चौथी पीढ़ी के उत्तराधिकारियों में से एक डॉ. राजेश टोपे ने 1857 के ऑपरेशन लाल कमल को ब्रिटेन के खिलाफ मराठा-मुगल गठबंधन बताया और कहा कि 1857 की लड़ाई में भले ही हार प्राप्त हुई थी, लेकिन संग्राम में विजय प्राप्त हुई थी। सुश्री अनन्या परीडा ने अपने पेपर में 1857 के दो दोषियों पर ध्यान केन्द्रित किया – 1857 के वहाबी दोषी -मौलवी अहमद उल्ला, जिन्हें लगभग एक दशक बाद पकड़ा जा सका और 1857 के बागी कैदी मौलवी अलाउद्दीन, जिन्होंने हैदराबाद में रेजिडेंसी पर हमले की अगुवाई की। एक अन्य वक्ता श्री अजय महुरकर ने लाला बृंदाबन के अध्ययन के आधार पर इस बात का जायजा लिया कि कैसे विदेश से लौटा एक व्यक्ति भारत में राष्ट्रीय आंदोलन के पहले दशक में सक्रिय हो गया।