1) सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन एवं शिक्षक दिवस :-
5 सितम्बर को प्रत्येक बालक के चरित्र निर्माण के संकल्प के साथ सारे देश में पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन का जन्मदिवस ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। सारा देश मानता है कि वे एक विद्वान दार्शनिक, महान शिक्षक, भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ व्याख्याकार तो थे ही साथ ही एक सफल राजनयिक के रूप में भी उनकी उपलब्धियों को कभी भुलाया नहीं जा सकता। सन् 1962 में जब वे राष्ट्रपति बने थे, तब कुछ शिष्य और प्रशंसक उनके पास गए थे। उन्होंने डॉ. राधाकृष्णन जी से निवेदन किया था कि वे उनके जन्मदिन को ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाना चाहते हैं। उस समय डा. राधाकृष्णन ने कहा था कि ‘‘मेरे जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने से निश्चय ही मैं अपने को गौरवान्वित अनुभव करूँगा।’’ तब से प्रत्येक वर्ष 5 सितम्बर सारे देश में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जा रहा है।
(2) महर्षि अरविंद की नजर में शिक्षक :-
महर्षि अरविंद ने शिक्षकों के सम्बन्ध में कहा है कि ‘‘शिक्षक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से सींचकर उन्हें शक्ति में निर्मित करते हैं।’’ महर्षि अरविंद का मानना था कि किसी राष्ट्र के वास्तविक निर्माता उस देश के शिक्षक होते हैं। इस प्रकार एक विकसित, समृद्ध और खुशहाल देश व विश्व के निर्माण में शिक्षकों की भूमिका ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। द्वितीय विश्व युद्ध के समय हिटलर के यातना शिविर से जान बचाकर लौटे हुए एक अमेरिकी स्कूल के प्रिन्सिपल ने अपने शिक्षकों के नाम पत्र लिखकर बताया था कि उसने यातना शिविरों में जो कुछ अपनी आँखों से देखा, उससे शिक्षा को लेकर उसका मन संदेह से भर गया।
(3) द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिटलर के यातना शिविर से जान बचाकर लौटे एक प्रिन्सपल का अपने शिक्षकों के नाम पत्र :-
प्रिन्सिपल ने पत्र में लिखा ‘‘प्यारे शिक्षकों, मैं एक यातना शिविर से जैसे-तैसे जीवित बचकर आने वाला व्यक्ति हूँ। वहाँ मैंने जो कुछ देखा, वह किसी को नहीं देखना चाहिए। वहाँ के गैस चैंबर्स विद्वान इंजीनियरों ने बनाए थे। बच्चों को जहर देने वाले लोग सुशिक्षित चिकित्सक थे। महिलाओं और बच्चों को गोलियों से भूनने वाले कॉलेज में उच्च शिक्षा प्राप्त स्नातक थे। इसलिए, मैं शिक्षा को संदेह की नजरों से देखने लगा हूँ। आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप अपने छात्रों को ‘मनुष्य’ बनाने में सहायक बनें। आपके प्रयास ऐसे हो कि कोई भी विद्यार्थी दानव नहीं बनें। पढ़ना-लिखना और गिनना तभी तक सार्थक है, जब तक वे हमारे बच्चों को ‘अच्छा मनुष्य’ बनाने में सहायता करते हैं।’’
(4) उच्च मानवीय सद्गुणों से ओतप्रोत डॉक्टर यानुश कोर्चाक का बच्चों के प्रति अगाढ़ प्रेम :-
इसी यातना शिविर में अनाथ बच्चों को पढ़ाने वाले एक उच्च मानवीय सद्गुणों से ओतप्रोत डॉक्टर यानुश कोर्चाक भी थे। यानुश कोर्चाक पोलैण्ड की वर्तमान राजधानी वारसा की यहूदी बस्ती के अनाथालय में बच्चों का पालन और शिक्षण करते थे। हिटलर के दरिन्दों ने इन अभागे बच्चों को त्रैब्लीन्का मृत्यु शिविर की भट्टियों में झोकने का फैसला कर लिया था। जब यानुश कोर्चाक से यह पूछा गया कि वे क्या चुनेंगे, ‘बच्चों के बिना जिंदगी या बच्चों के साथ मौत?’ तो कोर्चाक ने बिना हिचक और दुविधा के तुरंत कहा कि वे ‘बच्चों के साथ मौत को ही चुनेंगे।’’ गेस्टापो के एक असफर ने उनसे कहा कि ‘हम जानते हैं कि आप अच्छे डॉक्टर हैं, आपके लिए त्रैब्लीन्का जाना जरूरी नहीं है।’ तब डा. यानुश कोर्चाक का जवाब था ‘‘मैं अपने ईमान का सौदा नहीं करता।’’
(5) जीवन के अंतिम क्षण तक सच्चे शिक्षक की भूमिका निभाई कोर्चाक ने :-
नैतिक सौंदर्य के धनी यानुश कोर्चाक ने वीरोचित भाव से मौत का आलिंगन इसलिए किया था कि वे जीवन के अंतिम क्षण तक सच्चे शिक्षक की तरह बच्चों के साथ रहकर उन्हें धीरज बँधाते रहें। कहीं बच्चे घबरा न जाएँ और उनके नन्हें एवं कोमल हृदयों में मौत के इंतजार का काला डर समा न जाए। यानुश कार्चाक का नैतिक बल और अंतःकरण की अनन्य निर्मलता आज के शिक्षक के लिए प्रेरणा ही नहीं, एक बेजोड़ मिसाल है।
(6) एक बालक का जीवन बदलने से सारे विश्व में परिवर्तन आ सकता है :-
‘युद्ध के विचार सबसे पहले मनुष्य के मस्तिष्क में पैदा होते हैं अतः दुनियाँ से युद्धों को समाप्त करने के लिये मनुष्य के मस्तिष्क में ही शान्ति के विचार उत्पन्न करने होंगे।’ शान्ति के ऐसे विचार देने के लिए मनुष्य की सबसे श्रेष्ठ अवस्था बचपन ही है। विश्व एकता, विश्व शान्ति एवं वसुधैव कुटुम्बकम् के विचारों को बचपन से ही घर के शिक्षक माता-पिता द्वारा तथा स्कूल के शिक्षक द्वारा प्रत्येक बालक-बालिका को ग्रहण कराने की आवश्यकता है ताकि आज के ये बच्चे कल बड़े होकर सभी की खुशहाली एवं उन्नति के लिए संलग्न रहते हुए ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम’’ अर्थात ‘सारी वसुधा एक कुटुम्ब के समान है’ के स्वप्न को साकार कर सके। एक बालक का जीवन बदलने से सारे विश्व में परिवर्तन आ सकता है। नेल्सन मण्डेला ने कहा है कि शिक्षा संसार का सबसे शक्तिशाली हथियार है जिससे विश्व में सामाजिक परिवर्तन लाया जा सकता है।
(7) षिक्षा के बारे में कुछ विद्वानों के विचार :-
षिक्षा के बारे में कुछ महापुरूषों के विचार इस प्रकार हैं – महात्मा गाँधी के अनुसार सदाचार और निर्मल जीवन सच्ची षिक्षा का आधार है तथा जैसे सूर्य सबको एक-सा प्रकाष देता है, बादल जैसे सबके लिए समान बरसते हैं, इसी तरह विद्या-दृष्टि सब पर बराबर होनी चाहिए। हरबर्ट स्पेंसर – षिक्षा का उद्देष्य चरित्र-निर्माण है। स्वामी विवेकानन्द – मनुष्य में जो सम्पूर्णता गुप्त रूप से विद्यमान है उसे प्रत्यक्ष करना ही षिक्षा का कार्य है तथा षिक्षा विविध जानकारियों का ढेर नहीं है। प्लेटो – षरीर और आत्मा में अधिक से अधिक जितने सौदंर्य और जितनी सम्पूर्णता का विकास हो सकता है उसे सम्पन्न करना ही षिक्षा का उद्देष्य है।
(8) षिक्षा द्वारा युवा पीढ़ी अपने समक्ष मानव जाति की सेवा का आदर्ष रखे :-
हर्बर्ट स्पेन्सर – षिक्षा का महान उद्देष्य ज्ञान नहीं, कर्म है। बर्क – षिक्षा क्या है? क्या एक पुस्तकों का ढेर? बिल्कुल नहीं, बल्कि संसार के साथ, मनुयों के साथ और कार्यों से पारस्परिक सम्बन्ध। अरस्तु – जिन्होंने षासन करने की कला का अध्ययन किया है उन्हें यह विष्वास हो गया है कि युवकों की षिक्षा पर ही राज्यों का भाग्य आधारित है। महामना मदनमोहन मालवीय – युवकों को यह षिक्षा मिलना बहुत जरूरी है कि वे अपने सामने सर्वोत्तम आदर्ष रखें। एडीसन – षिक्षा मानव-जीवन के लिए वैसे ही है जैसे संगमरमर के टुकड़े के लिए षिल्प कला। निराला – संसार में जितने प्रकार की प्राप्तियाँ हैं, षिक्षा सबसे बढ़कर है। प्रेमचन्द – जो षिक्षा हमें निर्बलों को सताने के लिए तैयार करे, जो हमें धरती और धन का गुलाम बनाये, जो हमें भोग-विलास में डुबोये, वह षिक्षा नहीं भ्रष्टता है।
(9) बालक के जीवन निर्माण में सबसे बड़ा योगदान विद्यालय का होता है :-
वैसे तो तीनों स्कूलों परिवार, समाज तथा विद्यालय के अच्छे-बुरे वातावरण का प्रभाव बालक के कोमल मन पर पड़ता है। लेकिन इन तीनों में से सबसे ज्यादा प्रभाव बालक के जीवन निर्माण में विद्यालय का पड़ता है। बालक बाल्यावस्था में सर्वाधिक सक्रिय समय स्कूल में देता है। दूसरे बालक विद्यालय में ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा लेकर ही आता है। यदि किसी स्कूल में भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक तीनों गुणों से ओतप्रोत एक भी टीचर आ जाता है तो वह स्कूल के वातावरण को बदल देता है और बालक के जीवन में प्रकाश भर देता है। वह टीचर बच्चों को इतना पवित्र, महान तथा चरित्रवान बना देता हैं कि ये बच्चे आगे चलकर सारे समाज, राष्ट्र व विष्व को एक नई दिषा देने की क्षमता से युक्त हो जाते हैं।
(10) विद्यालय समाज के प्रकाश का केन्द्र है :-
स्कूल चार दीवारों वाला एक ऐसा भवन है जिसमें कल का भविष्य छिपा है। मनुष्य तथा मानव जाति का भाग्य क्लास रूम में गढ़ा जाता है। अतः आने वाले समय में विश्व में एकता एवं शांति स्थापित होगी या अशांति एवं अनेकता की स्थापना होगी, यह आज स्कूलों में बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा पर निर्भर करता है। विश्व के बच्चों को यदि स्कूलों द्वारा ‘विश्व बन्धुत्व’ तथा ‘भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51’ का ज्ञान दिया जाये तो निश्चित रूप से ये बच्चे कल (1) ‘विश्व सरकार’, (2) ‘विश्व संसद’, (3) ‘विश्व न्यायालय’ (4) ‘विश्व भाषा’ तथा (5) ‘विश्व मुद्रा’ का गठन करके पूरे विश्व में एकता एवं शांति की स्थापना करेंगे।
(11) शिक्षक एक न्यायपूर्ण राष्ट्र व विश्व के निर्माता है :-
शिक्षकों को संसार के सारे बच्चों को एक सुन्दर एवं सुरक्षित भविष्य देने के लिए व सारे विश्व में एकता एवं शांति की स्थापना के लिए बच्चों के कोमल मन-मस्तिष्क में भारतीय संस्कृति, संस्कार व सभ्यता के रूप में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ व ‘भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51’ के विचार रूपी बीज बचपन से ही बोने चाहिए। हमारा मानना है कि भारतीय संस्कृति, संस्कार व सभ्यता के रूप में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ व ‘भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51’ रूपी बीज बोने के बाद उसे स्वस्थ और स्वच्छ वातावरण व जलवायु प्रदान कर हम प्रत्येक बालक को एक विश्व नागरिक के रूप में तैयार कर सकते है। इसके लिए प्रत्येक बालक को बचपन से ही परिवार, स्कूल तथा समाज में ऐसा वातावरण मिलना चाहिए जिसमें वह अपने हृदय में इस बात को आत्मसात् कर सके कि ईश्वर एक है, धर्म एक है तथा मानवता एक है। ईश्वर ने ही सारी सृष्टि को बनाया है। ईश्वर सारे जगत से बिना किसी भेदभाव के प्रेम करता है। अतः हमारा धर्म (कर्तव्य) भी यही है कि हम बिना किसी भेदभाव के सारी मानव जाति से प्रेम कर सारे विश्व में आध्यात्मिक साम्राज्य की स्थापना करें।
(12) शिक्षक ही इस संसार में आध्यात्मिक साम्राज्य की स्थापना कर सकते हैं :-
ऐसे अनेक उदाहरण देखे गये हैं कि भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक गुणों से ओतप्रोत एक शिक्षक ही पूरे विद्यालय तथा समाज में बदलाव ला सकता है। श्री गोपाल कृष्ण गोखले, पं0 मदन मोहन मालवीय, गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर, डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन आदि ने अकेले ही सारे समाज को बदलने की मिसालें प्रस्तुत की हैं। एक अच्छा शिक्षक लाखों के बराबर होता है। वास्तव में शिक्षक भी ऐसे होने चाहिए जो कि स्वयं इस बात का विश्वास करते हो कि ईश्वर एक है, धर्म एक है तथा मानव जाति एक है साथ ही ऐसे शिक्षक मनुष्य की तीन वास्तविकताओं भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक की संतुलित शिक्षा देने वाले भी हो। वे शिक्षक बालक को पहले उनके आन्तरिक गुणों को विकसित करके उन्हें नेक बनाये तथा फिर बाह्य गुणों को विकसित करके उन्हें चुस्त भी बनाये, बालक को धरती का प्रकाश तथा मानव जाति का गौरव बनाये। वास्तव में ऐसे ही शिक्षकों के श्रेष्ठ मार्गदर्शन द्वारा धरती पर स्वर्ग अर्थात ईश्वरीय सभ्यता की स्थापना होगी।
(13) हमें प्रत्येक बालक को धरती का प्रकाश बनाना है :-
प्रत्येक बालक धरती का प्रकाश है किन्तु यदि उसे उद्देश्यपूर्ण अर्थात भौतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक तीनों प्रकार की संतुलित शिक्षा न मिली तो वह धरती का अन्धकार भी बन सकता है। इसलिए उद्देश्यपूर्ण शिक्षा को सबसे अधिक महत्व देना चाहिए तथा बालक के मस्तिष्क तथा हृदय को अज्ञानी अभिभावकों, टीचर्स तथा राजनैतिक, सामाजिक व धार्मिक गुरूओं की अज्ञानता से बचाना चाहिए। हमारा मानना है कि आज की शिक्षा का उद्देश्य मानव जाति को 1. ईश्वरीय अनास्था, 2. अज्ञानता, 3. संशयवृत्ति तथा 4. अन्तरिक संघर्ष से मुक्त करने के साथ ही प्रत्येक बच्चे को इस धरती का प्रकाश बनाना होना चाहिए। इसके लिए शिल्पकार एवं कुम्हार की भाँति ही स्कूलों एवं उसके शिक्षकों का यह प्रथम दायित्व एवं कर्त्तव्य है कि वह अपने यहाँ अध्ययनरत् सभी बच्चों को इस प्रकार से संवारे और सजाये कि उनके द्वारा शिक्षित किये गये सभी बच्चे ‘विश्व का प्रकाश’ बनकर सारे विश्व को अपनी रोशनी से प्रकाशित करें।
(14) आइये, शिक्षक दिवस के अवसर पर हम डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी की शिक्षाओं को अपने जीवन में आत्मसात् करने का संकल्प लें :-
डॉ. राधाकृष्णन अपनी बुद्धिमत्तापूर्ण व्याख्याओं, आनंदमयी अभिव्यक्ति और हँसाने, गुदगुदाने वाली कहानियों से अपने छात्रों को प्रेरित करने के साथ ही साथ उन्हें अच्छा मार्गदर्शन भी दिया करते थे। ये छात्रों को लगातार प्रेरित करते थे कि वे उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारें। वे जिस विषय को पढ़ाते थे, पढ़ाने के पहले स्वयं उसका अच्छा अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गंभीर विषय को भी वे अपनी शैली की नवीनता से सरल और रोचक बना देते थे। उनकी मान्यता थी कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाए तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है। उनका मानना था कि करूणा, प्रेम और श्रेष्ठ परंपराओं का विकास भी शिक्षा के उद्देश्य हैं। वे कहते थे कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता तब तक अच्छी व उद्देष्यपूर्ण शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। आइये, षिक्षक दिवस के अवसर पर हम डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी की षिक्षाओं, उनके आदर्षों एवं जीवन-मूल्यों को अपने जीवन में आत्मसात् करके उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि प्रकट करें। डा. राधाकृष्णन एक सच्चे देशभक्त, कुशल प्रशासक, उच्च कोटि के विद्वान एवं राजनयिक थे। उन्होंने देष के राष्ट्रपति पद को नई ऊँचाइयाँ प्रदान की। देश के संवैधानिक इतिहास में उनका योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। ऐसे विलक्षण व्यक्त्तिव को शत्-शत् नमन। –जय जगत-
डा0 जगदीश गांधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ