New Delhi: पूज्य बापू की जन्म-जयंती, लाल बहादुर शास्त्री की जन्म-जयंती। तीन साल में हम कहां से कहां पहुंचे। मुझे बराबर याद है कि मैं अमेरिका में था UN की मीटिंग के लिए और 1 अक्तूबर रात देर से आया, और 2 अक्तूबर सुबह झाड़ू लगाने निकला था। लेकिन उस समय के सारे अखबार, मीडिया, हमारे सभी साथी दल के साथियों, यानी राजनीतिक दलों सभी, मेरी इतनी आलोचना की थी, इतनी आलोचना की थी कि 2 अक्तूबर छुट्टी का दिन होता है; हमने बच्चों की छ़ुट्टी खराब कर दी। बच्चे स्कूल जाएंगे कि नहीं जाएंगे, बच्चों को ये क्यों काम में लगाया; बहुत, बहुत कुछ हुआ।
अब मेरा स्वभाव है बहुत चीजें मैं चुपचाप झेलता रहता हूं क्योंकि दायित्व भी ऐसा है कि झेलना भी चाहिए और धीरे-धीरे मेरी capacity भी बढ़ा रहा हूं झेलने की। लेकिन आज तीन साल के बाद बिना डगे, बिना हिचकिचाए इस काम में हम लगे रहे और लगे इसलिए रहे कि मुझे पूरा भरोसा था कि महात्मा जी ने जो कहा है, बापू ने जो कहा है, वो रास्ता गलत हो ही नहीं सकता।
वही एक श्रद्धा, इसका मतलब ये नहीं है कि कोई चुनौतियां नहीं हैं। चुनौतियां हैं, लेकिन चुनौतियां हैं इसलिए देश को ऐसे ही रहने दिया जाए क्या? चुनौतियां हैं इसलिए उन्हीं चीजों को हाथ लगाया जाए जहां वाह-वाही होती रहे, जयकारा बोला जाए? क्या ऐसे काम से भागना चाहिए क्या? और मुझे लगता है और जो आज देशवासी एक स्वर से उस बात से अपनी वाणी को प्रगट कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि गंदगी हमारी आंखों के सामने नहीं होती थी। ऐसा नहीं है कि गंदगी में हम भी कुछ योगदान नहीं देते थे और ऐसा भी नहीं है कि हमें स्वच्छता पसंद नहीं है। कोई इंसान ऐसा नहीं हो सकता है कि जिसको स्वच्छता पसंद न हो।
अगर आप रेलवे स्टेशन पर जाइए, चार बेंच पड़ी हैं, लेकिन दो में कुछ गंदगी है तो आप वहां नहीं बैठते, जहां अच्छी जगह है वहां जाकर बैठते हैं, क्यों? मूलत: प्रकृत्ति स्वच्छता पसंद करने की है। लेकिन हमारे देश में एक ही gap रह गया और वो gap ये रह गया कि ये मुझे करना है। स्वच्छता होनी चाहिए इसमें देश में किसी को मतभेद नहीं है। समस्या यही रही कि कौन करे? और एक बात मैं बता दूं और मुझे ये नि:संकोच कहने में कोई संकोच नहीं है, ये मेरे वाक्य के बाद हो सकता है मेरी कल ज्यादा धुलाई भी हो जाए, लेकिन अब देशवासियों से क्या छिपाना? अगर 1000 महात्मा गांधी आ जाएं, एक लाख नरेन्द्र मोदी आज जाएं, सभी मुख्यमंत्री मिल जाएं, सभी सरकारें मिल जाएं, तो भी स्वच्छता का सपना कभी पूरा नहीं हो सकता है, नहीं हो सकता है। लेकिन अगर सवा सौ करोड़ देशवासी आ जाएं, तो देखते ही देखते सपना पूरा हो जाएगा।
दुर्भाग्य से हमने बहुत सी चीजें तो सरकार ने कि बना दीं, सरकारी बना दीं। जब तक वो जनसामान्य की रहती हैं, कठिनाई नहीं आती ऐसी। अब आप देखिए कुंभ का मेला होता है। हर दिन गंगा के तट पर कुंभ के मेले में यूरोप का एक छोटा सा देश इक्ट्ठा होता है। लेकिन वो ही सब कुछ संभाल लेते हैं, अपनी चीजें कर लेते हैं और सदियों से चला आ रहा है।
समाज की शक्ति को अगर स्वीकार करके हम चलें, जन-भागीदारी को स्वीकार करके चलें, सरकार को कम करते चलें, समाज को बढ़ातें चलें; तो ये आंदोलन कोई भी प्रश्नचिन्ह के बाद, बावजूद भी सफल होता ही जाएगा ये मेरा विश्वास है। और आज मुझे खुशी है, कुछ लोग हैं जो अभी भी इसकी मजाक उड़ाते हैं, आलोचना करते हैं, वे कभी गए भी नहीं स्वच्छता के अभियान में। उनकी मर्जी, उनकी शायद मुश्किलें होंगी। और मुझे विश्वास है, आप देखिए 5 साल आते-आते देश का मीडिया ये खबर नहीं छापेगा कि स्वच्छता में कौन काम कर रहा है, कौन भाग ले रहा है। खबर में उनकी तस्वीरें छपने वाली हैं कि इससे कौन-कौन दूर भाग रहे थे, इसके खिलाफ कौन थे? उनकी तस्वीरें छपने वाली हैं। क्योंकि जब देश स्वीकार कर लेता है तो आप चाहें या न चाहें, आपको उसके साथ जुड़ना ही पड़ता है।
आज स्वच्छता अभियान, ये न पूज्य बापू का रहा है, न ये भारत सरकार का रहा है, न ही ये राज्य सरकारों का रहा है, न ही ये municipality का रहा है। आज स्वच्छता अभियान देश के सामान्य मानवी का अपना सपना बन चुका है। और अब तक जो सिद्धि मिली है, वो सिद्धि सरकार की है, ऐसा मेरा रत्ती भर claim नहीं है। न ये भारत सरकार की सिद्धि है, न ये राज्य सरकार की सिद्धि है, अगर ये सिद्धि है तो स्वच्छाग्रही देशवासियों की सिद्धि है।
हमें स्वराज्य मिला है, स्वराज्य का शस्त्र था सत्याग्रह। श्रेष्ठ भारत का शस्त्र है स्वच्छता, स्वच्छाग्रही। अगर स्वराज्य के केंद्र में सत्याग्रही था तो श्रेष्ठ भारत के केंद्र में स्वच्छाग्रही है। और हम भी जानते हैं दुनिया में किसी भी देश में जाते हैं, वहां की सफाई देखते हैं तो आ करके चर्चा करते हैं, अरे यार कितना साफ-सुथरा है भाई मैं तो देखता ही रह गया। ऐसे लोग मुझे कहते हैं मैं पूछता हूं, वो साफ देखा आपको आनंद आया लेकिन किसी को कूड़ा-कचरा फेंकते देखा था क्या? बोले वो नहीं देखा। मैं बोला तो हमारी समस्या वो है।
और इसलिए खुल करके इसके लिए चर्चा, हम डरते थे, पता नहीं क्यों चर्चा नहीं करते थे। राजनेता इसलिए चर्चा नहीं करते थे, सरकारें इसलिए चर्चा नहीं करती थीं, उनको डर लगता था कि ये कहीं हमारे माथे पर न पड़ जाए। अरे भाई, पड़ेगा तो पड़ेगा, क्या है जी? हम जवाबदेह लोग हैं, हमारी accountability है।
और आज स्वच्छता के कारण क्या स्थिति बनी है। ये जो स्वच्छता के लिए ranking हो रहा है और सबसे स्वच्छ शहर कौन सा, दूसरा कौन सा, तीसरा; और जब उसके अंक बाहर आते हैं तो उस हर शहर में चर्चा होती है। दबाव पैदा हो रहा है नीचे से राजनेताओं के ऊपर भी, सरकारों पर भी कि देखो उस शहर को तो स्वच्छता में नंबर लग गए हैं, तुम क्या कर रहे हो? फिर civil society भी मैदान में आती है कि भाई ये तो हमसे पीछे था, आगे निकल गया; चलो हम भी कुछ करें। एक positive competitive, एक माहौल बना है। और उसका भी एक अच्छा परिणाम इस सारी व्यवस्था में नजर आ रहा है।
ये बात सही है कि toilet बनाते हैं लेकिन उपयोग नहीं होता है। लेकिन जब ये खबरें आती हैं वो बुरी नहीं हैं। ये जगाती हैं हमें इससे नाराज नही जाना चाहिए। हां, उसमें अगर ये आए तो अच्छा होगा कि भई ये समाज का दायित्व है, परिवार का दायित्व है, व्यक्ति का दायित्व है कि वो इस toilet के ऊपर आग्रही बने।
मैं बराबर हूं, मैं तो पहले सामाजिक संगठन में काम करता था, राजनीति में बहुत देर से आया। गुजरात में मैं काम करता था, वहां Morvi में Machu Dam की हुनारत हो गई थी, हजारों लोग मारे गए थे, पूरा शहर पानी में डूब चुका था, तो बाद में वहां सफाई सेवा कार्य के लिए वहां लगा हुआ था काम करता था। सफाई-स्वच्छता, ये सब काम चल रहे थे, करीब महीने भर चला था। बाद में हम लोगों ने कुछ civil societies, NGO के माध्यम से तय किया कुछ जिनके घर-वर तबाह हो गए, कुछ मकान बनाएंगे, तो हमने एक गांव गोद लिया। लोगों से धन संग्रह किया और गांव का पुनर्निर्माण करना था; छोटा सा गांव था, कोई 350-400 घर होंगे। तो design बना रहे थे, मेरा बड़ा आग्रह था toilet तो होना ही चाहिए। गांव वाले कहते थे नहीं जी toilet की जरूरत नहीं, हमारे यहां तो खुला बहुत मैदान है, toilet मत बनाइए थोड़ा कमरा बड़ा बना दीजिए। मैंने कहा वो compromise नहीं करूंगा। कमरा जितने हमारे पास पैसे हैं उतने से बनाकर देंगे आपको लेकिन toilet तो होगा। खैर उनको तो मुफ्त में मिलने वाला था तो फिर ज्यादा उन्होंने झगड़ा नहीं किया, बन गया।
करीब 10-12 साल के बाद मैं उस तरफ गया तो मुझे लगा चलो यार पुराने लोगों से मिलके आऊं कि मैंने कई महीनों तक वहां रह करके काम किया था, तो मिलने चला गया। और जा करके मैं अपने माथे पर हाथ पटक रहा था। जितने toilet बनाए थे, सब में बकरियां बंधी हुई थीं। अब यह समाज का स्वभाव है, न बनाने वाले का दोष नहीं है, न सरकार का दोष है कोई आग्रह करती है। समाज का एक स्वभाव है। इन मर्यादाओं को समझते हुए भी हमें बदलाव लाना है।
कोई मुझे बताए क्या हिन्दुस्तान में अब आवश्यकता के अनुसार स्कूल बने हैं कि नहीं बने हैं? आवश्यकता के अनुसार टीचर employ हुए कि नहीं हुए? आवश्यकता के अनुसार स्कूल में सुविधाएं स्कूल के अंदर किताबें, सब हैं कि नहीं? बहुत एक मात्रा में हैं। उसकी तुलना में शिक्षा की स्थिति पीछे है। अब सरकार ये कोशिश करने के बाद भी, धन-खर्चे के बाद भी, मकान बनाने के बाद भी, टीचर रखने के बाद भी, समाज का अगर सहयोग मिलेगा तो शिक्षा शत-प्रतिशत होते से नहीं देर लगेगी। यही infrastructure, इतने ही टीचर शत-प्रतिशत तरफ जा सकते हैं। समाज की भागीदारी के बिना ये संभव नहीं है।
सरकार सोचे कि हम इमारतें बना देंगे, टीचरों को तनख्वाह दे देंगे तो काम हो जाएगा। हमें संतोष होगा, हां पहले इतना था इतना कर दिया। लेकिन जन-भागीदारी होगी, एक-एक अब स्कूल में बच्चा भर्ती होता है फिर आना बंद कर देता है। अब मां-बाप भी उसको पूछते नहीं हैं। ये toilet का भी वैसा ही मामला है जी। अब इसलिए स्वच्छता एक जिम्मेवारी के रूप में, एक दायित्व के रूप में, जितना हम एक वातावरण बनाएंगे तो हर किसी को लगेगा हां भाई जरा 50 बार सोचो।
और आप देखिए हमारे जो kids हैं, छोटे बच्चे हैं जिन घरों में, बेटे हैं, पोते है, पोती। वो एक प्रकार से मेरे स्वच्छता के सबसे बड़़े ambassador हैं। ये बच्चे घर में दादा भी कहीं फेंक देता है, दादा उठा लो, दादा ये यहां मत डालो, ये हर घर में वातावरण बनाएं। अगर जो बात बच्चों के गले उतर गई है, हमारे गले क्यों नहीं उतरती?
सिर्फ हाथ धोना- हाथ न धोने से, कितने बालकों के खाने से पहले हाथ साबुन से साफ न कर पाने से कितने बालकों की मौत हो रही है। लेकिन ये विषय जैसे ही आप कहोगे, लोग साबुन कहां से लाएंगे, लोग पानी कहां से लाएंगे? मोदी को तो भाषण करना है। लोग हाथ कहां से धोएंगे? अरे भई नहीं धो सकते नहीं पर जो धो सकता है उनको तो धोने दो।
मोदी को गाली देने के लिए हजार विषय हैं अब। आपको हर दिन में कुछ न कुछ देता हूं, आप उसका उपयोग करो यार। लेकिन समाज में जो बदलाव लाने की आवश्यकता है, उसको ऐसे हम मजाकिया विषय या राजनीति के कटघरे में खड़ा न करें। एक सामूहिक दायित्व की ओर हम चलें, आप देखें बदलाव दिखेगा।
आप देखिए इन बच्चों ने जो काम किया। मैं daily इन बच्चों के चित्रों को social media में post कर रहा था, बड़े गौरव से post करता था। मैं उस बच्चे को जानता भी नहीं था। लेकिन मैंने चित्र देखा, बच्चे ने उत्साह दिखाया स्वच्छता का, मैं उसको post करता था और करोड़ों लोगों तक वो पहुंचता था, चलो भाई। ये क्यों कर रहे हैं, ये निबंध स्पर्धा, निबंध स्पर्धा से स्वच्छता होती है? तुरंत तो यही लगेगा नहीं होती है, drawing स्पर्धा से सफाई होती है, नहीं।
स्वच्छता के लिए वैचारिक आंदोलन भी जरूरी है। व्यवस्थाओं के विकास से ही परिवर्तन नहीं आता है जब तक कि वैचारिक आंदोलन पैदा नहीं होता। ये जो प्रयास है, फिल्म बनाइए, creativity लाइए, निबंध लिखिए; ये सारी चीजें इसको एक वैचारिक अधिष्ठान देने का प्रयास है। और जब कोई बात हमारे जेहन में विचार के रूप में घुस जाती है, तत्वों के रूप में स्थान पा लेती है, फिर- फिर उसको करना बड़ा सरल हो जाता है। तो ये जो और activity इसके साथ जोड़ी जाती हैं, उसके पीछे भी मकसद ये है। और मैं चाहूंगा, अब आप देखिए, एक समय ऐसा था और मुझे तब ये बड़ी पीड़ा होती थी; दोष ऐसा करने वालों का जरा भी नहीं है, और इसलिए उनका दोष मैं नहीं देता। लेकिन commercial world है, जिसमें से कमाई होती है उसको जरा आगे बढ़ाने का हर एक को शौक रहता है, हर एक को तो कमाई का interest रहेगा ही रहेगा।
आज से चार-पांच साल पहले के आप कई टीवी पर ऐसे कार्यक्रम देखोगे जिसमें किसी स्कूल में अगर बच्चे सफाई करते पाए गए तो बड़ी story बनती थी, टीचरों पर वार होता था कि बच्चों से सफाई करवाते हो स्कूल में? और फिर तो parents को भी मजा आ जाता है मौका मिला है, वो भी पहुंच जाते थे। क्यों मेरे बच्चों को पढ़ाई कराओगे या स्वच्छता कराओगे? आज इतना बदलाव आया है कि किसी स्कूल में बच्चे स्वच्छता कर रहे हैं तो टीवी की main खबर बन जाती है जी। ये छोटी चीज नहीं है जी।
और मैं मानता हूं इस पूरे आंदोलन को इस देश के मीडिया ने अपने कंधों पर न उठाया होता; तीन साल हो गए देश का print media, electronic media, पूरी तरह स्वच्छता के साथ अपने-आपको जोड़ दिया है, दो कदम कभी-कभी हमसे आगे चल रहे हैं।
मैंने देखा है इन बच्चों की, जितनों को बच्चों की फिल्मों को कुछ TV channels ने लगातार समय दे करके निश्चित समय दे करके निश्चित समय दिया। यही है सब लोग कैसे जुड़ें, जितना ज्यादा लोग जुडे़ंगे, आप देखिए दुनिया के अंदर अगर हमें अब अवसर है देश को आगे बढ़ाने का जी, 2022 तक हमें देश को ऐसी जगह पहुंचा कर रहना है, ऐसे चुप नहीं बैठने जी। अगर ये करना है तो ये एक बड़ी बात है जी।
कोई भी व्यक्ति, अगर हमारे घर में गंदगी पड़ी है और मेहमान आ जाए। शादी के लिए भी आए हो लेकिन थोड़ा इधर-उधर पड़ा होगा तो सोचेंगे यार बाकी सब तो ठीक, लड़का तो बहुत पढ़ा-लिखा है लेकिन घर की हालत ऐसी है, यहां हम बेटी देकर क्या करेंगे, वापिस चला जाएगा। अगर कोई आएगा बाहर से तो हिन्दुस्तान देखेगा, आगरा-ताजमहल इतना बढ़िया, और जाकर कोई अगल-बगल में देखेगा तो परेशान हो जाएगा तो कैसे चलेगा जी?
कौन दोषी है मेरा मुद्दा नहीं है। हम सब मिल करके करेंगे तो ये हो सकता है; ये पिछले तीन साल में मेरे देशवासियों ने दिखा दिया है जी, Civil society ने दिखा दिया है, Media ने दिखा दिया है। और अगर इतना साथ-समर्थन हो और फिर भी अगर चीजों में गति हम न लाएं, फिर तो हम सबको अपने-आपको जवाब देना पड़ेगा।
मैं चाहता हूं इन बातों को हम बल दें, इसे आगे बढ़ाएं। आंकड़ों में तो आपको बताया, कहां से कहां पहुंचे हैं, लेकिन अभी भी, बनने के बाद भी ये एक लगातार करने का काम होता है, तभी जा करके होता है।
गांव में मंदिर होते हैं लेकिन सब लोग थोड़े मंदिर में जाते हैं जी। मनुष्य का स्वभाव है, नहीं जाते हैं। मंदिर होने के बाद भी नहीं जाते हैं। मस्जिद है तो भी नहीं जाएंगे, गुरुदवारा होगा तो भी नहीं जाएंगे, एकाध उत्सव में चले जाएंगे। तो ये समाज का स्वभाव है, दुनिया चलती है वो अपनी दुनिया में चलता है। हमने उसको connect करना पड़ता है, कोशिश करनी पड़ती है। जब कोशिश करते हैं तो ठीकठाक से गाड़ी चल जाती है।
आंकड़ों के हिसाब से तो लग रहा है कि गति भी ठीक है, दिशा भी ठीक है। स्कूलों में toilet की दिशा में अभियान चलाया। अब स्कूलों में बच्चियां जाती हैं तो इन बातों में बड़ी जागरूक रहती हैं। पूछती हैं, व्यवस्था देखती हैं, उसके बाद admission लेती हैं। पहले नहीं था जी, ठीक है, जो है झेल लेंगे। क्यों, झेले क्यों? हमारी बेटियां झेले क्यों?
और ये स्वच्छता के विषय को जब तक आप उस महिला के नजरिए से नहीं देखोगे, कभी इस स्वच्छता की ताकत का अंदाज नहीं आएगा। आप उस मां को देखिए कि जिसमें घर में हर किसी को कूड़ा-कचरा, चीजें इधर-उधर फेंकने का हक है। एक अकेली मां है, जिसको सब लोग नौकरी, स्कूल चले जाएं, दो घंटे तक वो सफाई करती रहती है। कमर टूट जाए तब करती रहती है, उस मां को पूछिए कि जब हम लोग जाने से पहले अपनी-अपनी चीजें ठीक रखते हैं तो मां तुम्हें कैसा लगता है? मां जरूरी कहेगी कि बेटे मेरी कमर टूट जाती थी, अच्छा हुआ अब तुम सारी चीजें जहां डालनी चाहिए, वहां डालते हो तो मेरा काम दस मिनट में निपट जाता है। मुझे बताइए हर मध्यम वर्ग के हो, उच्च-मध्यम वर्ग की हो, निम्न-मध्य वर्ग की हो, गरीब मां हो, जिसको घर की सफाई में आधा दिन चला जाता था; अगर परिवार के सब लोग अपनी चीज अपनी जगह पर रखें, मां को गंदगी साफ करने में मदद करें या न करें; सिर्फ अपनी चीज अपनी जगह पर रखें तो भी उस मां को कितनी राहत मिलती होगी, क्या ये काम हम नहीं कर सकते थे?
और इसलिए स्वच्छता का पूरा एक ही तराजू मेरे दिमाग में है। आप कल्पना कर सकते हैं जी। पुरुषों को मैं जरा पूछना चाहता हूं। आपको तो कहीं भी चौराहा मिल जाए खड़े हो जाते हो। माफ करना मुझे इस प्रकार की भाषा से। उस मां की, बेटी की, बहन की हालत देखी होगी, वो भी कभी बाजार जाती है कुछ खरीदने जातीं हैं, क्या उसको भी तो प्राकृतिक requirement रहती होगी? लेकिन वह खुले में कभी कोई क्रिया नहीं करती हैं, घर पहुंचने तक अपने शरीर को दमन करती हैं, झेलती रहती हैं। वो कौन से संस्कार हैं? अगर उस मां के अपने ही घर में अपनी बहन, अपनी बेटी में संस्कार हैं, मेरे में क्यों नहीं हैं? क्योंकि हमें पुरुष के नाते हम मान के चलें, ये सब तो हमें इजाजत है? जब तक ये बदलाव नहीं आयेगा हम स्वच्छता को सही रूप में समझ नहीं पाएंगे।
आप कल्पना कीजिए गांव में रहने वाली माताएं-बहनें, even शहरों में भी झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाली माताएं-बहनें सुबह जल्दी उठ जाएंगी और सूरज उगने से पहले प्राकृतिक कामों के लिए बाहर जाएंगी, जंगलों में जाएगी। डर रहता है इसलिए पांच-सात सहेलियों को ले करके जाती हैं और अगर एक बार उजाला हो गया फिर भी कभी requirement रही, अंधेरे तक इंतजार करती हैं; शरीर पर कितना दमन होता है, आप कल्पना कीजिए जी। उस मां के स्वास्थ्य का क्या होता होगा, उसको सुबह 9-10 बजे शौच जाने की इच्छा हुई लेकिन उजाला है इसलिए जा नहीं पा रही और शाम को 7 बजे तक का इंतजार करती है, कहीं अंधेरा हो जाए तब जा करके जाऊं। उस मां की हालत क्या होती होगी, मुझे बताइए। अगर इतनी सी संवेदना हो तो स्वच्छता के विषय में आपको किसी टीवी चैनल को नहीं देखना पड़ेगा, किसी टीवी वालों के संबोधन को नहीं समझना पड़ेगा, किसी प्रधानमंत्री की जरूरत नहीं पड़ेगी, किसी राज्य सरकार की जरूरत नहीं पड़ेगी, ये अपने-आप में एक जिम्मेवारी का हिस्सा बनेगा।
और इसलिए मैं सभी देशवासियों से आग्रह करता हूं। अभी यूनिसेफ ने एक रिपोर्ट दी है, उसने करीब भारत में 10 हजार उन परिवारों का सर्वे किया, जिन्होंने अब toilet बनाया है, और पहले की तुलना की। और उनका आकलन है कि एक परिवार में toilet न होने से, स्वच्छता की जागरूकता न होने से बीमारी के पीछे सालाना 50,000 रुपये औसत खर्चा होता है। परिवार का एक मुखिया बीमार हो गया, बाकी सारे काम ठप्प हो जाते हैं। ज्यादा बीमार हो गया तो परिवार के और दो लोगों को उसकी सेवा में लगना पड़ता है। बीमारी से बचने के लिए किसी से, साहूकार से ज्यादा ब्याज से पैसा लाना पड़ता है। एक प्रकार से 50 हजार रुपये का बोझ एक गरीब परिवार पर आ जाता है।
अगर हम स्वच्छता को अपना धर्म मान लें, स्वच्छता को अपना कार्य मान लें, एक-एक गरीब परिवार में 50 हजार रुपयों की और बीमारी के कारण जो मुसीबत आती है, उससे हम बचा सकते हैं। उसके जेब में हम रुपये डालें या न डालें, लेकिन उसके जीवन में ये 50 हजार रुपया बहुत काम आता है जी। और इसलिए ये जो सर्वे आते हैं, जो जानकारी आती है, इसको एक सामाजिक जिम्मेवारी के रूप में हम सबने निर्वाह करना चाहिए।
मैं जब से प्रधानमंत्री बना हूं बहुत सारे लोग मुझे मिलते हैं। राजनीतिक कार्यकर्ता मिलते हैं, जो retired अफसर हैं वो मिलते हैं, कुछ समाज जीवन में काम करने वाले भी मिलते हैं। और बहुत विवेक और नम्रता से मिलते हैं, बहुत प्यार से मिलते हैं। और चलते-चलते फिर एक बायोडाटा मुझे पकड़ा देते हैं और धीरे से कहते हैं कि मेरे लिए कोई सेवा है तो बताना। बस मैं हाजिर हूं आप जो भी कहेंगे। इतना प्यार से बोलते हैं जी, तो मैं धीरे से कहता हूं, ऐसा करिएगा स्वच्छता के लिए कुछ समय दीजिए ना; वो दोबारा नहीं आते हैं।
अब मुझे बताइए मेरे से काम मांगने आते हैं, बढ़िया बायोडाटा लेकर आते हैं, और सब देखकर मैं कहता हूं ये करो तो आते नहीं हैं। देखिए कोई काम छोटा नहीं होता है जी, कोई काम छोटा नहीं होता है। अगर हम हाथ लगाएंगे तो काम बड़ा हो जाएगा जी और इसलिए हमने बड़ा बनाना चाहिए।
मैं उन सबको हृदय से बधाई देना चाहता हूं, उस 15 दिन में फिर से एक बार इस में गति देने में बहुत बड़ा काम किया है। लेकिन ये सब चीजें, अभी भी मैं कहता हूं ये शुरूआत है, करना बहुत बाकी है। जिन बालकों ने उत्साह के साथ हिस्सा लिया है, जिन स्कूलों के teachers ने उनको प्रोत्साहित किया- किसी ने फिल्म बनाई होगी, किसी ने निबंध लिखे होंगे, कुछ लोग खुद स्वच्छता के अंदर जुड़े, कुछ स्कूलों ने तो लगातार सवा-सुबह आधा घंटा गांवों के अलग-अलग इलाकों में जा करके माहौल बनाया।
कुछ लोगों ने महापुरुषों के statue, मैं तो हैरान हूं जी। महापुरुषों के statue लगाने के लिए हम इतना झगड़ा करते हैं, सब राजनेता, सब political पार्टियां, सब लोग। लेकिन बाद में सफाई करने के लिए कोई जिम्मेवारी लेने के लिए तैयार नहीं। हर एक को लगता है मैं उनको मानता हूं उनका पुतला लगना चाहिए, मैं उनको मानता हूं उनका पुतला लगना चाहिए। लेकिन उसी समाज के, उसी के पीछे लगे हुए लोग उनको उसकी सफाई में interest नहीं है, फिर उसके ऊपर आ करके कबूतर बैठकर जो करना है करें, मैदान खुला है।
ये, ये समाज जीवन के दोष हैं। और इसलिए ये हम सबका दायित्व बनता है। कोई अच्छा है कोई बुरा है इससे मेरा मत नहीं है, हम सबने सोचना है। और अगर हम सब सोचेंगे तो अवश्य परिणाम मिलेगा। और इसलिए मैं सत्याग्रही स्वच्छाग्रही, स्वच्छाग्रही सभी मेरे देशवासियों को हृदय से बहुत-बहुत शुभकामनाएं देता हूं। पूज्य बापू और लाल बहादुर शास्त्री की जन्म-जयंती पर हम फिर एक बार अपने-आपको देश को समर्पित करें, स्वच्छता को हम प्राथमिकता से लें और ये स्वच्छता ऐसा काम है, कुछ नहीं कर सकता, जो देश की सेवा के लिए और कुछ करने की ताकत नहीं रखता है, ये कर सकता है। ये इतना सरल काम है जी। जैसे आजादी के आंदोलन में गांधी ने कहा, ‘कुछ नहीं कर सकते हो, तकलि लेकर बैठो बस’ ये आजादी का काम है। मुझे लगता है श्रेष्ठ भारत बनाने के लिए ये छोटा सा काम हर हिन्दुस्तानी कर सकता है। चलिए रोज 5 मिनट, 10 मिनट, 15 मिनट, आधा घंटा, कुछ न कुछ मैं करूंगा। आप देखिए, देश में बदलाव स्वाभाविक आएगा और ये बात साफ है जी दुनिया के सामने हमने भारत को दुनिया की नजरों से देखने की आदत रखनी है, वैसा करना ही होगा और करके रहेंगे।