नई दिल्ली: राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने आज मैसूर में मैसूर विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोहों का उद्घाटन किया। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना 1916 में “राजऋषि” नलवाड़ी कृष्णराजा वाडियार के संरक्षण में दीवान सर एम विश्वेसरैया की सक्षम सहायता के साथ की गई।
विश्वविद्यालय को इसके पहले उपकुलपति श्री एच.वी. नानजुनदय्या, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉ. ब्रजेन्द्र सील, डॉ. सी.आर. रेड्डी, प्रोफेसर थॉमस डेनहम, प्रोफेसर ए.आर. वाडिया, प्रोफेसर एम हिरियन्ना, डॉ. के.वी. पुट्टप्पा (कुवेंपु) और डॉ. डी. जवारे गौड़ा जैसे विद्वानों का दिशा-निर्देश मिला है। बाद में भी इस संस्थान से जुड़ने वाले विशिष्ट व्यक्तियों ने इसकी समृद्ध विरासत को बरकरार रखा।
राष्ट्रपति ने कहा कि 1.25 अरब लोगों की दो-तिहाई आबादी के 35 वर्ष से कम उम्र के होने के साथ भारत विश्व में अग्रणी श्रेणी के देशों में एक बन सकता है। देश के ऊर्जावान युवाओं की क्षमता के दोहन के लिए एक विश्व स्तरीय शैक्षणिक प्रणाली आवश्यक है। हालांकि भारत की उच्चतर शैक्षणिक प्रणाली विश्व में दूसरी सबसे बड़ी है, 20 प्रतिशत की नामांकन दर एक ज्ञानोन्मुखी विश्व में युवाओं की भविष्य की संभावनाओं को बेहतर बनाने या अवसरों का दोहन करने के लिए प्रयाप्त नहीं है। हमारे देश में अच्छी गुणवत्ता के संस्थानों की कमी के कारण बहुत से प्रतिभावान छात्र उच्चतर शिक्षा के लिए विदेश चले जाते हैं।
राष्ट्रपति ने कहा कि भारतीय विश्वविद्यालयों को अनिवार्य रूप से छात्रों के बीच वैज्ञानिक मनोवृत्ति को बढ़ावा देना चाहिए। छात्रों और जमीनी स्तर के अन्वेषकों के विचारों को क्रियान्वित करना भविष्य का एक रास्ता हो सकता है। कई केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में अन्वेषण क्लबों की स्थापना की पहल का अनुकरण दूसरे विश्वविद्यालयों द्वारा भी किया जाना चाहिए। यह एक ऐसे मंच के रूप में कार्य करेगा, जहां नवीन विचारों का पोषण होता है और नये उत्पादों को विकसित करने के लिए अन्वेषकों को संरक्षण प्राप्त होता है। उन्होंने मैसूर विश्वविद्यालय से क्षेत्र में एक अन्वेषण आंदोलन का नेतृत्व करने का आग्रह किया।