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महाराष्ट्र में वन धन केंद्र : आजीविका और जीवन को बदलने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं

देश-विदेश

सरकारी संगठनों से सहायता प्राप्त एक प्रशिक्षित युवा नेतृत्वकर्ता की देखरेख में कुछ समर्पित युवाओं के एक समूह ने महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले में चमत्कृत करने वाले उल्लेखनीय कार्य किए हैं। जमीनी स्तर पर काम करने वाले जनजातीय समूह के युवाओं को औषधीय गुण वाले पौधे गिलोय की आपूर्ति के लिए 1.57 करोड रुपए का आर्डर प्राप्त होने में सफलता मिली। जिन औषधि निर्माताओं से इन्हें आर्डर प्राप्त हुए हैं उनमें डाबर, वैद्यनाथ और हिमालय जैसी बड़ी कंपनियां भी शामिल है।

ठाणे के शाहपुर स्थित आदिवासी एकात्मिक सामाजिक संस्था युवाओं का एक ऐसा संगठन है जो क्षेत्र के जनजातीय समुदाय की समस्याओं को दूर करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहता है। जिस औषधीय पौधे गिलोय के लिए इन युवाओं को आर्डर प्राप्त हुए हैं उसे आयुर्वेद में गुडुची कहा जाता है और इसका उपयोग वायरल बुखार और मलेरिया तथा शुगर जैसी बीमारियों के उपचार में औषधि के रूप में किया जाता है। इसका उपयोग पाउडर, सत अथवा क्रीम के रूप में किया जाता है।

विनम्र शुरुआत, ट्राइफेड के द्वारा सपनों को मिले पंख

इन युवाओं की यात्रा कातकरी समुदाय के 27 वर्षीय युवा सुनील के नेतृत्व में शुरू हुई। जिसने अपनी टीम के 10-12 साथियों के साथ मिलकर अपने मूल निवास के राजस्व कार्यालय में कातकरी जनजातीय समुदाय के लोगों की मदद करना शुरू किया। कातकरी जनजातीय समुदाय भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा 75 विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों में से एक है।

सुनील अब एक सफल उद्यमी बन चुके हैं। वह इस समय 1800 से अधिक लोगों से गिलोय प्राप्त करते हैं। जनजातीय कार्य मंत्रालय के अंतर्गत कार्य करने वाली संस्था ट्राइफेड द्वारा मिले सहयोग ने सुनील को अपना दायरा और बड़े स्तर पर करने में मदद की। ट्राइफेड द्वारा सहायता के रूप में क्षेत्र के सभी 6 वन धन केन्द्रों को 5 लाख रुपये मिले। जब सुनील को बड़ी कंपनियों का ऑर्डर पूरा करने के लिए और अधिक पूंजी की आवश्यकता पड़ी तो ट्राइफेड ने 25 लाख रुपये की अतिरिक्त सहायता प्रदान की।

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एक केंद्र से 6 केंद्र की यात्रा

“शाहपुर में हमारे पास 6 केंद्र हैं। इन सभी केन्द्रों पर प्रसंस्करण का काम पूरे ज़ोर-शोर से चल रहा है। इस काम में पूरी तारतम्यता है क्योंकि सभी टीमें पूरे समन्वय के साथ काम कर रही हैं। यह देखना बहुत सुखद अनुभव है कि किसी जनजातीय समूह के 1800 लोग इस कोविड महामारी के चलते लॉकडाउन के बीच भी अपनी आजीविका कमा रहे हैं। हमारे पास इस समय लगभग 1.5 करोड़ रुपये का ऑर्डर है और जल्द ही डाबर से और भी बड़ा ऑर्डर मिलने की संभावना है।” जब वह पीआईबी से अपने समुदाय की उपलब्धियों के बारे में बात कर रहे थे तब उनके मुख पर गौरवपूर्ण मुस्कान थी।

सुनील ने आगे कहा कि “कंपनियों को कच्चे माल की ज़रूरत होती है और वे कच्चा माल बड़े स्तर पर खरीदना चाहती हैं ताकि सस्ता पड़े। इन कंपनियों को हमसे सस्ते में कच्चा माल मिल जाता है कहीं और की तुलना में। हालांकि अब हमने भी इसका पाउडर बनाना शुरू कर दिया है और इसे अपेक्षाकृत अधिक ऊंची दर पर 500 रुपये प्रति किलो की दर से बेचना शुरू कर दिया है। यह पाउडर इसके कच्चे माल की कीमत की तुलना में 10 गुना महंगा है।

गिलोय आज के लिए, गिलोय कल के लिए

जंगलों से गिलोय इकठ्ठा करते समय सुनील और उनके साथी यह सुनिश्चित करते हैं कि भविष्य की ज़रूरत पूरी करने के लिए गिलोय के पौधों का अस्तित्व बना रहे। इसके अलावा उनके पास गिलोय की 5000 नर्सरी तैयार है जिसकी रोपाई करनी है। उनकी योजना आने वाले दिनों में 2 लाख पौधे लगाने की है।

शबरी आदिवासी वितता महामंडल

प्रबंध निदेशक नीति पाटिल ने पीआईबी को बताया “शबरी आदिवासी वितता महामंडल महाराष्ट्र सरकार के अंतर्गत कार्यरत एक अन्य संगठन है जो आदिवासियों के कल्याण के लिए कार्यरत है। “जल्द ही हम 5 वन धन केन्द्रों का एक क्लस्टर बनाएँगे ताकि मांग पूरी हो सके। 40 और केन्द्रों को पहले से ही स्वीकृत मिल चुकी है। जब यह काम करना शुरू कर देंगे तब कातकरी समुदाय को 12,000 लोगों के लिए रोज़गार उपलब्ध होगा (प्रत्येक वन धन केंद्र 300 लोगों को मदद करता है)”।

श्री पाटिल ने कहा कि प्रधानमंत्री वन धन योजना ने इन स्वयं सहायता समूहों को धन उपलब्ध कराया। इससे आदिवासियों को अपने उत्पादों को बेचने के लिए किसी प्रकार के तनाव लेने की आवश्यकता नहीं होती है। यहाँ तक कि आदिवासियों को सामान खरीदे जाने के समय ही भुगतान कर दिया जाता है, जो निरंतर आय के रूप में जनजातीय लोगों के लिए बड़ी सहायता है।

गिलोय, बकरी और ईंट से जुड़े काम के चलते पलायन रुका

नितिन पाटील ने बताया कि आदिवासी समूहों के लिए पूरे साल का रोज़गार सुनिश्चित करने के क्रम में गिलोय के अलावा अन्य कार्यों के संबंध में भी योजना तैयार की गई है। गिलोय इकट्ठा करना और उन्हें कंपनियों को भेजना एक अच्छा कारोबार है लेकिन इस कारोबार की प्रकृति मौसमी है और साल में इसे तीन चार महीनों के लिए ही चलाया जा सकता है। कातकरी समुदाय के लोग आजीविका की तलाश में गुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र के रायगढ़ का रुख करते हैं, जहां वे ईंटों से जुड़े काम करते हैं। अतः साल के बाकी समय में इनके लिए रोज़गार सुनिश्चित करने के क्रम में ट्राइफेड की योजना बकरी पालन को बढ़ावा देने की है। प्रत्येक को 70,000 से 80,000 रुपये दिये जाएँगे, जिससे 5 बकरी और एक हिरण खरीदा जा सकता है। हमने एक एनजीओ से साझेदारी की है जो इस संबंध में उन्हें प्रशिक्षित करेगी। प्रशिक्षण अति महत्वपूर्ण है क्योंकि बकरियों की मृत्यु दर काफी अधिक होती है। बकरियों को रखने के स्थान को साफ-सुथरा रखना आवश्यक है”।

ट्राइफेड ने चयनित लाभार्थियों को अपने खर्चे से बकरियों को रखने के लिए शेड बनाने के लिए प्रेरित किया, जिससे यह पता किया जा सके कि बकरी पालन को लेकर उनकी इच्छा और सोच क्या है। हालांकि ट्राइफेड ने बकरियों को पालने के लिए स्थान निर्मित करने हेतु रोज़गार गारंटी योजना के अधिकारियों के साथ समन्वय किया है ताकि धन जुटाया जा सके।

श्री पाटिल ने बताया कि “हम एक गाँव में 4-5 लाभार्थियों को चुनते हैं। इससे गाँव में बाकी लोगों के बीच भी योजना को लेकर उत्सुकता होती है और एनजीओ के लिए प्रशिक्षण के काम में भी आसानी होती है। इस पहल की सफलता के बाद हम मुर्गीपालन की तरफ भी बढ़ेंगे। यानि गिलोय, बकरी पालन और फिर मुर्गी पालन, यह सभी विकल्प कातकरी समुदाय के लिए पूरे साल भर आजीविका का माध्यम उपलब्ध रहेगा। उन्हों बताया कि बकरियों के लिए चारा, दवाओं और बीमा का प्रबंधन वन धन केन्द्रों द्वारा किया जाएगा।

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काला सोना: जीवन के लिए आशा

आदिवासियों को सशक्त करने में एनजीओ ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में सहायता कर रहे हैं। एशिन एग्रो लाइवस्टॉक एक ऐसा ही एनजीओ है, जो बकरी पालन से जुडी योजना के अंतर्गत प्रशिक्षण का दायित्व संभाल रहा है।  इस परियोजना का नाम है ‘काला सोना-जीवन के लिए आशा’। इसकी शुरुआत डॉक्टर नीलरतन शेण्डे ने उस समय की जब उन्होंने मेलघाट में अपनी पीएचडी की पढ़ाई के दौरान भूख और कुपोषण से किसी को मरते देखा, तभी उन्होंने एनजीओ शुरू करने का फैसला किया। और तभी ईएजीएल (एशिन एग्रो लाइवस्टॉक) की स्थापना हुई।

डॉ शेण्डे जब यह कहानी पीआईबी के साथ साझा कर रहे थे तब वह बहुत उल्लासित अनुभव कर रहे थे। उन्होंने कहा कि हमारा ध्यान आदिवासियों की क्रय शक्ति बढ़ाने पर है। हम जानवरों को उनके लिए महत्वपूर्ण मानते हैं। निजी बचत से वर्ष 2012 में 5 परिवारों के साथ शुरू की गई यह पहल अब तक 8000 परिवारों की आजीविका को संरक्षित करने में सफल रही है। मझगांव डॉकयार्ड लिमिटेड ने 1.3 करोड़ रुपये की लागत से 200 आदिवासी परिवारों की मदद की। आदिवासी लोग बकरी के गले में बंधी रस्सी को एक रस्सी ही नहीं मानते बल्कि उसे अपनी लाइफ लाइन मानते हैं। वे काली बकरी को काला सोना मानते हैं (काळ सोन जीवनाची दोरी)।”

ईएजीएल के सामने सबसे बड़ी चुनौती आदिवासियों का विरासती व्यवसाय था।  डॉ. शिंदे ने कहा, वे 30-40 वर्षों से अधिक समय से ईंट भट्ठों में काम कर रहे थे। “हमें उन्हें उस काम से दूर करना पड़ा। अब, उनके घरों में 3-4 लाख से अधिक मूल्य के पशुधन हैं।”

बकरी पालन की सफलता के बाद एजीएल का प्रयास है कि इस मॉडल को और बड़े पैमाने पर लागू किया जाना चाहिए और देश के अन्य भागों में भी इसे शुरू किया जाना चाहिए। निरंतरता और सेवा हमारा आदर्श वाक्य है। डॉ. शिंदे ने कहा कि हम लोगों को यह बताना चाहते हैं कि उन्हें अपनी आजीविका के लिए पलायन करने की आवश्यकता नहीं है।

लाभार्थियों का चयन, घर पर ही पशु चिकित्सक बीमा इत्यादि जोखिम को कम करने के लिए उपलब्ध कराए जाते हैं। पूरी परियोजना की ईएजीएल द्वारा निगरानी की जाती है। डॉ. शिंदे ने उनकी संस्था के प्रयासों के बाद लाभान्वित हुए आदिवासियों के बारे में विस्तार से बताया। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ा है, काम करने की परिस्थितियों में बदलाव हुआ है स्वास्थ्य संकेतक व्यवस्थित हुए हैं और संपत्तियों का मालिकाना हक मिला है।”

इससे यह प्रदर्शित होता है कि आदिवासी युवा न सिर्फ अपने लिए आजीविका का उपार्जन कर सकते हैं बल्कि अपने लिए जीवन को उद्देश्यपूर्ण बना सकते हैं। साथ ही वे अपने समुदाय के अन्य लोगों के लिए भी टिकाऊ और स्वस्थ भविष्य का सृजन कर सकते हैं।

अधिकारियों और एनजीओ के फोन नंबर:

श्री नीति पाटिल एमडी, शबरी – 9324829136

डॉ नीलरतन शेण्डे –  8879798755

श्री सुनील पवार – 7378956592

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