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शिक्षा के मंदिर में हम बच्चों का चरित्र निर्माण करें!

उत्तर प्रदेश

(1) मनुष्य का चरित्र ‘क्लासरूम’ में ही गढ़ा जाता है :-

            ‘विद्यालय’ में आकर बालक का चरित्र शिक्षकों के द्वारा ‘क्लासरूम’ में ही गढ़ा जाता है। जिस तरह एक कुशल शिल्पकार अनगढ़ पत्थर को गढ़कर उसे सुन्दर मूर्ति का रूप दे देता है। उसी प्रकार एक कुशल, चरित्रवान शिक्षक या गुरू भी बालक को गढ़कर उसे चरित्रवान इंसान बना सकता है। गुरू शब्द दो अक्षरों के योग से बनता है। ‘गु’ का अर्थ है अंधेरा और ‘रू’ का अर्थ है उस अन्धकार को दूर करने वाला। इस प्रकार गुरू का अर्थ हुआ ‘अंधकार को दूर करने वाला। मनुष्य के अन्दर सद्गुणों और दुर्गुणों दोनों का ही संग्रह है। दुर्गुणों का त्याग एवं सद्गुणों का सर्वांगीण विकास करना ही गुरू या शिक्षक का उद्देश्य होना चाहिए। महर्षि श्री अरविंद के शब्दों में ‘वही शिक्षा सच्ची व वास्तविक है जो व्यक्ति की अन्तर्निहित शक्तियों का विकास कर उसमें चारित्रिक गुणों को विकसित करके पूर्णता लाये, मानव जीवन को सफल बनाने में उसकी सहायता करें और जीवन तथा मानव जाति के मन तथा आत्मा की संपूर्णता की अभिव्यक्ति कर मनुष्य और राष्ट्र में सच्चा और अनिवार्य संबंध स्थापित करने में सहायक हो।’ डा. कलाम की युवा पीढ़ी के लिए शपथ है – सदाचार से चरित्र निश्छल बनता है, निश्छल चरित्र से घर में मेलजोल रहता है, घर में मेलजोल से देश व्यवस्थित रहता है और व्यवस्थित राष्ट्र से विश्व में शांति रहती है।’

(2) मनुष्य को संतुलित, सम्पन्न और सुखी बनाने में शिक्षा सहायक होती है :-

            मनुष्य की तीन वास्तविकतायें है – (1) भौतिक, (2) सामाजिक तथा (3) आध्यात्मिक। मानव जीवन में जब इन तीनों वास्तविकताओं का बाल्यावस्था से ही संतुलित विकास होता है तब एक संतुलित, सम्पन्न एवं सुखी व्यक्ति का निर्माण होता है। पहले जमाने के विद्यालयों में भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक तीनों प्रकार की शिक्षायें संतुलित रूप से बालकों को मिलती थीं। जिसके कारण उन विद्यालयों से संतुलित व्यक्ति तैयार होते थे। कालान्तर में अपने स्कूलों का रिजल्ट बढ़िया बनाने की होड़ में धीरे-धीरे स्कूलों ने केवल भौतिक शिक्षा पर ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया। तथापि सामाजिक और आध्यात्मिक शिक्षा की ओर ध्यान कम होता चला गया। विद्यालय ने सोचा कि परिवार तो सामाजिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा बालकों को घर पर दे ही देगा। इसलिए विद्यालय ने बालक की भौतिक शिक्षा की तुलना में सामाजिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा पर ध्यान देना कम कर दिया।

(3) विद्यालय अपने सामाजिक उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं हो सकता :- 

            यहाँ यह जानना बहुत आवश्यक है कि यों तो (1) परिवार, (2) विद्यालय तथा (3) समाज तीनों के वातावरण का बालक के जीवन पर प्रभाव पड़ता है किन्तु विद्यालय के वातावरण का बालक के जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। आधुनिक परिवेश में जबकि परिवारिक एवं सामाजिक मूल्यों में तेजी के साथ गिरावट आती जा रही है ऐसी स्थिति में स्कूल का सामाजिक उत्तरदायित्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि विद्यालय ही “समाज के प्रकाश“ का केन्द्र है। स्कूल ही बालक को सही एवं संतुलित शिक्षा देकर उसे सफल बनाने के लिए उत्तरदायी है। वह अपने सामाजिक उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं हो सकता। विद्यालय समाज का दर्पण नहीं है वरन् वह ही समाज का मार्गदर्शक है। विद्यालय व्यवसाय नहीं है वरन् वह एक सामाजिक संस्था है तथा अच्छी शिक्षा के द्वारा सामाजिक विकास करने के लिए उत्तरदायी है।

(4) स्कूल का उत्तरदायित्व सबसे अधिक महत्वपूर्ण एवं व्यापक है :-

            स्कूल चलाना व्यक्तिगत व्यवसाय मात्र नहीं है यह एक अति महत्वपूर्ण सामाजिक उत्तरदायित्व है। एक सामाजिक संस्था के रूप में स्कूल का उत्तरदायित्व सबसे अधिक महत्वपूर्ण एवं व्यापक है। स्कूल पर समाज की सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रथम इकाई बालक को एक अच्छा तथा चरित्रवान इंसान बनाने की जिम्मेदारी होती है। फैशन शॉप या सिनेमा घर की तरह स्कूल केवल धन कमाने की दुकान नहीं है। वरन् यह समाज को मार्गदर्शन देने वाली ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित एक सामाजिक संस्था है। कानून और दण्ड के भय से किसी व्यक्ति या समाज को ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, परिश्रमी, आध्यात्मिक तथा मानवीय मूल्यों से संस्कारित नहीं बनाया जा सकता है।

(5) शिक्षा के मंदिर में हम बच्चों का चरित्र निर्माण करें :-

            बालक ईश्वर की सर्वोच्च कृति है। प्रत्येक बालक अवतार की तरह ही पवित्र, दयालु और ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित हृदय लेकर इस पृथ्वी पर जन्म लेता है। किसी भी बालक का ‘घर’ उसका प्रथम क्लास रूम है, ‘स्कूल’ उसका दूसरा क्लास रूम है तथा समाज उसका तीसरा क्लास रूम है। इस प्रकार कोई भी बालक अपने सम्पूर्ण जीवन की परीक्षाओं के लिए ‘घर’, ‘स्कूल’ तथा ‘समाज’ रूपी तीनों क्लास रूमों से शिक्षा ग्रहण करता है। इन तीनों स्कूलों में आपस में सहयोग अति आवश्यक है। ये तीनों मिलकर बालक के चरित्र का निर्माण करते हैं। विश्व में ईश्वरीय सभ्यता स्थापित करने के लिए इन तीनों क्लास रूमों को अच्छा बनाने का प्रयत्न करना चाहिए और चूंकि इन सबमें सबसे अधिक उत्तरदायित्व स्कूल का है, इसलिये शिक्षा के मंदिर में सभी शिक्षकों को प्रत्येक बच्चे को सर्वश्रेष्ठ भौतिक शिक्षा के साथ ही उसका सर्वश्रेष्ठ चरित्र निर्माण का भी प्रयत्न करना चाहिए।

डॉ. जगदीश गाँधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक,
सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ

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