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यशपाल का आजादी की लड़ाई और साहित्य में योगदान- कल्पना पाण्डे

उत्तर प्रदेशदेश-विदेश

प्रसिद्ध हिन्दी कथाकार एवं निबंधकार यशपाल का जन्म 3 दिसम्बर 1903 को फिरोजपुर (पंजाब) में हुआ था। उनके पूर्वज हिमाचल के भूम्पल गांव, हमीरपुर के रहने वाले थे। दादा गरदुराम विभिन्न स्थानों पर व्यापार करते थे और भोरंज तहसील के टिक्कर भारिया और खरवरिया के निवासी थे। पिता हीरालाल एक दुकानदार और तहसील क्लर्क थे। वह महासू जिले के अंतर्गत अर्की राज्य के चांदपुर गांव से हमीरपुर आये थे। उनकी मां उस समय फिरोजपुर छावनी के एक अनाथालय में पढ़ाती थीं। यशपाल के पूर्वज कांगड़ा जिले के निवासी थे और उनके पिता हीरालाल को जमीन के एक छोटे से टुकड़े और एक कच्चे घर के अलावा कुछ भी विरासत में नहीं मिला था। उनकी माता प्रेमादेवी ने उन्हें आर्य समाज का एक प्रतिभाशाली प्रचारक बनाने के इरादे से शिक्षा के लिए ‘गुरुकुल कांगडी’ भेजा।

यशपाल का बचपन ऐसे समय में बीता जब उनके फिरोजपुर छावनी शहर में कोई भी भारतीय बारिश या धूप से खुद को बचाने के लिए अंग्रेजों के सामने छाता लेकर नहीं जा सकता था। गरीबी, अपमान और ब्रिटिश उत्पीड़न का दर्द उनके मन में भर गया। बचपन से ही उनके दिल और दिमाग में अंग्रेजों के प्रति नफरत की चिंगारी जलने लगी थी। वह महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में कूद पडे। 1921 में जब देश में असहयोग आन्दोलन चल रहा था तब यशपाल युवावस्था में थे। उनमें देशभक्ति और बलिदान की भावना पनपने लगी थी। उन्होंने कांग्रेस के लिए प्रचार करना शुरू कर दिया. लेकिन फिर उन्होनें महसूस होना शुरू होने लगा कि ऐसे आंदोलनों का भारत के गरीब लोगों और आम आदमी के लिए कोई मतलब नहीं है। इस असहयोग आंदोलन का ब्रिटिश सरकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

उन्होंने नेशनल कॉलेज, लाहौर में दाखिला लिया, जिसकी स्थापना लाला लाजपत राय ने की थी और यह राष्ट्रीय विचार का केंद्र था। वहां वो भगत सिंह, सुखदेव और भगवतीचरण वोहरा के संपर्क में आये। वह ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ने के लिए भगत सिंह की नौजवान भारत सभा के काम में सक्रिय हो गये। देश परिवर्तन का सपना देखने  लगे और सशस्त्र क्रांति के आंदोलन में सक्रिय भाग लेने लग गए। साइमन कमीशन विरोधी आंदोलन के दौरान अंग्रेजों द्वारा किये गये लाठीचार्ज और लाला लाजपतराय की मृत्यु से सभी क्रांतिकारियों में क्रोध की लहर दौड़ गई। यशपाल ने सॉन्डर्स हत्याकांड की योजना में सक्रिय रूप से भाग लिय। 1929 में उन्होंने ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड इरविन की ट्रेन के नीचे बम रखा, लाहौर की बोरस्टल जेल से भगत सिंह को छुड़ाने के प्रयास में भाग लिया और पुलिस बल के दो कांस्टेबलों की हत्या कर दी, जो कानपुर में उनके साथियों को गिरफ्तार करने आए थे। इसी दौरान उनकी मुलाकात अपनी भावी पत्नी, 17 वर्षीय प्रकाशवती से हुई, जो अपना परिवार छोड़कर उनके क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल हो चुकी थीं। उन्हें बन्दूक चलाने का प्रशिक्षण स्वयं चन्द्रशेखर आज़ाद ने दिया था।

1931 में इलाहाबाद में पुलिस के साथ एक सशस्त्र मुठभेड़ में चन्द्रशेखर आज़ाद शहीद हो गये। क्रांतिकारियों का यशपाल पर इतना भरोसा था, कि चन्द्रशेखर आज़ाद की शहादत के बाद यशपाल को हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) का कमांडर नियुक्त किया गया। इसी समय दिल्ली और लाहौर में दिल्ली और लाहौर षडयंत्र केस चल रहा था। इन मामलों में यशपाल मुख्य अभियुक्त थे, उनकी जानकारी देनेवाले को अंग्रेजों द्वारा 3000 रुपये का इनाम घोषित किया गया था। लेकिन वह कई महीने फरार रहे और पुलिस की पकड़ में नहीं आए. अगले दो वर्षों में, यशपाल ने गुप्त रूप से कई स्थानों पर बम बनाने के लिए विस्फोटक तैयार किए। 1932 में जब वे इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के एक घर में छुपे हुए थे तभी उन्हें ब्रिटिश पुलिस ने घेर लिया। मुठभेड़ में उनकी गोलियां खत्म हो गईं और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। वे लाहौर षडयंत्र मामले में मुख्य आरोपी थे। केस सुरू हुए, परंतु उनके ख़िलाफ़ कुछ अन्य मामले पर्याप्त सबूतों और गवाहों के अभाव के कारण ख़ारिज कर दिये गये। अंततः उसे सशस्त्र मुठभेड़ के लिए सजा के रूप में चौदह साल के कठोर कारावास या आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। उस समय वे केवल 28 वर्ष के थे।

उनके जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना तब घटी जब वे जेल में थे। जेल अधिकारी ने यशपाल को एक सरकारी पत्र दिया, जिसमें आंदोलन में उनकी सहयोगी प्रकाशवती कपूर ने यशपाल से शादी करने की इच्छा व्यक्त की थी और इसके लिए यशपाल की सहमति मांगी। प्रकाशवती बहुत कम उम्र से ही यशपाल के काम से प्रभावित थीं। जेल मैनुअल में कैदियों के विवाह के संबंध में कोई नियम नहीं था, जिसके कारण ब्रिटिश अधीक्षक ने विवाह की अनुमति दे दी। पुलिस इतने खतरनाक कैदी को बिना हथकड़ी के शादी के लिए बाहर लाने को तैयार नहीं थी। और यशपाल हथकड़ी पहन कर शादी करने को तैयार नहीं थे. आखिरकार कमिश्नर खुद आए और जेल में ही शादी कराने पर समझौता हुआ। अगस्त 1936 को केवल एक गवाह के साथ बरेली जेल में शादी हुई। यशपाल ने शादी का पंजीकरण कराते समय अपना धर्म रेशनलिस्ट या बुद्धिवादी लिखने को कहा। शादी के बाद, दूल्हे को फिर से उसके बैरक में डाल दिया गया और दुल्हन डेंटल सर्जन के रूप में अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए कराची चली गईं। यशपाल-प्रकाशवती का जेल विवाह भारत के इतिहास में अपनी तरह की एकमात्र ऐसी घटना थी। इसकी अखबारों में भी बड़ी चर्चा हुई। इस हंगामे के परिणामस्वरूप, सरकार ने बाद में जेल मैनुअल में एक विशेष खंड जोड़ा, जिससे भावी सजायाफ्ता कैदियों को जेल में शादी करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

कैद में उन्हें विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन और लेखन करने को खाली समय मिला। उन्होंने देश-विदेश के कई लेखकों का बड़े मनोयोग से अध्ययन किया। अपने कारावास के दौरान, यशपाल ने फ्रेंच, रूसी और इतालवी भाषाएं सीखीं और दुनिया की क्लासिक साहित्य पढे। उन्होंने जेल में ‘पिंजरे की उड़ान’ और ‘वो दुनिया’ लघु कहानियाँ लिखीं। उनके जेल अनुभवों पर आधारित पुस्तक ‘मैरी जेल डायरी’ यशपाल की महात्मा गांधी की अहिंसा और सत्याग्रह, लेनिन की राजनीतिक पद्धति और फ्रायड के मनोविश्लेषण जैसी परस्पर विरोधी विचारधाराओं तक पहुंचने, देखने और समझने की चिंता को दर्शाती है। यह उनकी रचनात्मक बेचैनी का प्रमाण है, जिस पर मात करके उन्होंने खुद को एक पत्रकार और लेखक के रूप में आकार दिया।

1937 में, भारत के होमरुल शासन शुरू होने पर कांग्रेस पार्टी ने सभी राजनीतिक कैदियों की रिहाई का वादा किया था। 1938 में जब पहली स्वदेशी सरकार बनी तो उन्होंने सभी राजनीतिक कैदियों को छोड़ने की प्रक्रिया शुरू की। गांधीजी के सत्याग्रह के दौरान जेल में बंद कैदियों को रिहा कर दिया गया,  यशपाल जैसे क्रांतिकारियों को मुक्त कराने के लिए लेकिन सरकार ने उन्हें सशस्त्र और हिंसक गतिविधियों को छोड़ने की शर्त रखी। यशपाल ने इस सरकारी शर्त को मानने से इंकार कर दिया। आख़िरकार, कारावास की अवधि समाप्त होने से पहले, 02 मार्च 1938 को उन्हें रिहा कर दिया गया। उनके पंजाब प्रांत में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया। लखनऊ जेल से रिहा होने के बाद यशपाल ने संयुक्त प्रांत की राजधानी लखनऊ में बसने का फैसला किया। उस समय उनके सामने रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या खड़ी थी। यशपाल और उसकी पत्नी के पास रहने के लिए कोई जगह नहीं थी. जेल से छूटने के बाद वह किसी भी बड़े आदमी के दरबार में नहीं गये, जैसा कि उनमें से कुछ लोगों को उम्मीद थी। उनकी पत्नी और यशपाल मिलकर मिट्टी और कागज के खिलौने बनाते थे, उन्हें बेचते थे, सड़कों से सुतली इकट्ठा करते थे, उससे थैले बनाते थे, जूते की पॉलिश बनाते थे और उसे बेचते थे, और फिर अपने अल्प संसाधनों से एक घर किराए पर ले लिया।

कुछ महीने कठिन परिस्थिति में बिताने के बाद, नवंबर 1938 में, उन्होंने अपनी माँ से कुछ पैसे उधार लिए और किराए के घर को कार्यालय में बदल दिया। क्रांतिकारी आंदोलन में काम करते समय, यशपाल के पास पहले से ही पत्रक छापने के लिए एक हाथ से चलने वाली मशीन थी। उसी से उन्होंने ‘विप्लव’ पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। यह पत्रिका लोकप्रिय हो गई. प्रकाशवती जो अब डॉ.प्रकाशवती पाल थीं, उन्होंने ने ‘विप्लव कार्यालय’ से ही अपनी दंत चिकित्सा की प्रैक्टिस शुरू की। चूंकि उस समय बहुत कम महिला डॉक्टर थीं, इसलिए प्रकाशवती ने अपने क्षेत्र में काफी सफलता हासिल की। कुछ समय बाद उन्होंने अपना पूरा समय यशपाल को समर्पित करने के इरादे से अपनी मेडिकल प्रैक्टिस बंद कर दी।

हिंदी राजनीतिक पत्रकारिता के इतिहास में ‘विप्लव’ ने अभूतपूर्व एवं उल्लेखनीय भूमिका निभाई। अपनी अपार लोकप्रियता के कारण, पत्रिका एक खुला मंच बन गई जहाँ कट्टर गांधीवादी, मार्क्सवादी और सामाजिक-राजनीतिक क्रांति के पैरोकार सभी एक ही स्थान पर अपने विचार व्यक्त कर सकते थे। 1939 तक विप्लव इतना लोकप्रिय हो गया कि इसका उर्दू संस्करण ‘बागी’ भी आया।1940 में जब यशपाल बीमार पड़ गये तो पत्रिका के संपादन की जिम्मेदारी प्रकाशवती ने संभाली। इसी बीच उन्होंने कहानियाँ और उपन्यास लिखना शुरू कर दिया। मुद्रण और प्रकाशन की कठिनाइयों, अंग्रेजों के प्रतिबंधों को देखते हुए उन्होंने सोचा, क्यों न अपनी रचनाएँ स्वयं ही प्रकाशित की जाएँ? उन्होंने और प्रकाशवती दोनों ने ‘विप्लव प्रकाशन’ शुरू किया। एक लेखक के रूप में यशपाल अधिक गंभीरता से लिखने लगे। एक क्रांतिकारी अब पूर्ण लेखक बन चुका था।

सीधी चुनौती उनके स्वभाव का हिस्सा बन गयी थी। उनका आलेख ‘सेवाग्राम के दर्शन’ इसका प्रमाण है। जिसमें वह महात्मा गांधी से मिलने के लिए सेवाग्राम आश्रम जाते हैं। वे द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरणा के रूप में दो अनिवार्य शर्तें व्यक्तिगत सत्याग्रह और ईश्वर में आस्था, सार्वजनिक सत्याग्रह और ईश्वर पर आस्था-श्रद्धा को हटाने की मांग करते हैं ताकि यहां तक कि जो लोग भगवान में विश्वास नहीं करते वे भी उसमें भाग ले सकते हैं। यशपाल ने गांधीजी से तर्क किया कि ईश्वर में विश्वास करने की अनिवार्य पूर्वशर्त का मतलब कांग्रेस के लोकतांत्रिक आधार को नष्ट करना और व्यवस्था परिवर्तन के लिए लड़ने वाले क्रांतिकारियों को अलग-थलग करना है। बहस हुई पर गांधीजी सहमत नहीं हुए. यशपाल बाहर आये. बाद में यशपाल ने सेवाग्राम आश्रम के अनुभव और असुविधाओं के बारे में ‘विप्लव’ में लिखा।

डॉ. प्रकाशवती और यशपाल की ब्रिटिश-विरोधी विद्रोही भावनाओं को दबाने के लिए ब्रिटिश डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने ‘विप्लव’ के विरुद्ध नोटिस जारी कर दिया। यशपाल को छत्तीस घंटे के भीतर स्पष्टीकरण देने या प्रकाशन बंद करने को कहा गया। अगले ही दिन यशपाल उनसे मिलने गये और जब वे उनके सामने कुर्सी पर बैठे थे तो अंग्रेज अधिकारी ने उनका अपमान करने के लिये अपने दोनों पैर यशपाल की ओर मेज पर रख दिये। यशपाल को यह सहन नहीं हुआ। उन्होंने भी तुरंत अपने दोनों पैर वहीं टेबल पर फैला दिये. अधिकारी ने बड़े धैर्य से कहा, “धन्यवाद यशपाल जी! हमें आपका स्पष्टीकरण मिल गया है, अब आप जा सकते हैं।” और यशपाल चला गए. सरकारी आदेश में मैगजीन से 12,000 रुपये की गारंटी मांगी गई. विप्लव का प्रकाशन बंद हो गया। दोनों ने ‘विप्लव’ को बंद कर दिया और ‘विप्लव ट्रैक्ट’ नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। गिरफ़्तारियों, जेल दौरों और लगातार पुलिस छापों के कारण, पत्रिका को 1941 में प्रकाशन बंद करना पड़ा। आजादी के बाद 1947 में ‘विप्लव’ का प्रकाशन पुनः शुरू हुआ, लेकिन स्वतंत्र भारत के प्रेस सेंसरशिप कानून के कारण कुछ अंकों के बाद यह स्थायी रूप से बंद हो गया।

उस समय चूंकि बहुतांश मार्क्सवादी साहित्य अंग्रेजी में थे, इसलिए उन्होंने समाजवाद में रुचि रखने वाले और समाजवाद के विरोधी लोग कार्ल मार्क्स के सिद्धांत सरलता से समझ सकें इसलिए ‘मार्क्सवाद’ नामक किताब लिखी। यह पुस्तक आज भी मार्क्सवाद समझने के लिए पढ़ी जाती है। दमनकारी परिस्थितियों में भी उनकी लेखनी धारदार और निर्भीक थी।

6 वर्षों के कारावास के बाद जेल रिहा होने पर उन्होंने 1939 में अपने विप्लव कार्यालय से 21 कहानियों का संग्रह ‘पिंजरे की उड़ान’ प्रकाशित किया। उस समय ‘विप्लव’ एक प्रकाशन गृह के रूप में आकार लेने लगा था। उसी वर्ष शोषण मुक्त दुनिया का सपना लेकर लिखी गई 12 कहानियों का संग्रह ‘वो दुनिया’ विप्लव से प्रकाशित हुई। अपने 1941 के उपन्यास ‘दादा कॉमरेड’ में उन्होंने क्रांतिकारी आंदोलन में काम कर रहे एक युवा व्यक्ति की वास्तविकता आधारित मानसिक और नैतिक उलझन को दिखाया, जिससे उपन्यास बहुत लोकप्रिय हो गया। क्रांतिकारियों में कुछ मुद्दों विवाद हुआ, जिसकी चर्चा आज भी होती है. इसमें उन्होंने गांधीवाद और कांग्रेस की कड़ी आलोचना की है और समाजवादी व्यवस्था पर जोर दिया है।

8 जून 1941 को, उन्हें भारत रक्षा अधिनियम की धारा 38 के तहत फिर से गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन उनके दोस्तों ने किसी तरह उन्हें जमानत पर बाहर ले आए। इस आशंका से कि उन्हें जल्द ही फिर से जेल जाना पड़ेगा, उन्होंने अगस्त 1941 में ‘गांधीवाद की शव परीक्षा’ पुस्तक खत्म की और प्रकाशित की। इसमें उन्होंने एक युवा वामपंथी-क्रांतिकारी कार्यकर्ता के रूप में गांधीवादी आंदोलन की सीमाओं और कमियों को स्पष्ट रूप से रखा। ये किताब आज भी पढ़ी जाती है. बौद्ध भिक्षु, प्रसिद्ध पाली भाषा के विद्वान और लेखक डॉ. भदंत आनंद कौसल्यान ने गांधीवाद की आलोचना करने वाली उस पुस्तक का वर्ष का सर्वश्रेष्ठ पुस्तक कहा। इसके बाद ‘चक्कर क्लब’ (1942) आई, जो झूठी संवेदनाओं की क्लब संस्कृति पर व्यंग्य है। मानवीय विवेक और तार्किक क्षमता-प्रयास पर आधारित 16 कहानियों की ‘तर्क का तूफ़ान’ आई। यशपाल ने ‘दादा कॉमरेड’ (1941), ‘देशद्रोही’ (1943), ‘दिव्या’ (1945 ई.), ‘पार्टी कॉमरेड’ (1946), ‘मनुष्य के रूप’ (1949), ‘अमिता’ (1956), ‘झूठा सच’ (1958), ‘बारह घंटे’ (1962), ‘अप्सरा का शाप’ (1965) ‘क्यों ‘फँसे’ (1968), ‘तेरी मेरी उसकी बात’ (1974) जैसे कई उपन्यासों की रचना की।

1945 में प्रकाशित दिव्या उपन्यास ने हिन्दी साहित्य में नये विद्रोही आयाम जोड़े। महल की सुरक्षित दीवारों के भीतर एक खुशहाल जीवन जीते हुए, दिव्या अपने प्रेमी के साथ गर्भवती हो जाती है। बाहरी दुनिया जाति की राजनीति और धार्मिक संघर्ष से जूझ रही होती है। लेकिन उसका प्रेमी उसे अस्वीकार कर देता है। अपने उच्च कुल के नाम को बचाने के लिए, वह अपना सुरक्षित अस्तित्व छोड़ देती है और पहले एक नौकरानी के रूप में और फिर एक दरबारी नर्तकी और गणिका के रूप में अपना जीवन शुरू करती है। विपत्ति में वो निष्कर्ष पर आती है कि उच्च कुल की महिला स्वतंत्र नहीं है, केवल वेश्याएँ स्वतंत्र हैं। अपने शरीर को गुलाम बनाकर अपने मन की स्वतंत्रता को बरकरार रखने की वस्तिवाकता वो स्वीकारती है। दिव्या पहली शताब्दी ईसा पूर्व में हिंदू और बौद्ध विचारधाराओं के बीच वर्चस्व के लिए संघर्ष की पृष्ठभूमि पर आधारित, कल्पना और समृद्ध ऐतिहासिक विवरण से भरपूर एक मार्मिक उपन्यास है।

नाविकों के विद्रोह संघर्ष की घटनाओं से परिपूर्ण ‘पार्टी कॉमरेड’ 1946 में प्रकाशित हुई। बाद में यही उपन्यास ‘गीता’ नाम से आया। यह गीता नाम की एक कम्युनिस्ट लड़की पर केंद्रित है जो पार्टी का प्रचार करने और पार्टी के लिए धन जुटाने के लिए मुंबई की सड़कों पर अपना अखबार बेचती है। पार्टी के प्रति वफादार गीता पार्टी के काम के लिए कई लोगों के संपर्क में आती हैं। इनमें से एक पद्मलाल भावरिया पैसों के दम पर लड़कियों को ठगता है। गीता और भवरिया के बीच एक लंबे संपर्क ने आखिरकार भवरिया को बदल दिया। उसी वर्ष उनका कहानी संग्रह ‘फूलो का कुर्ता’ भी प्रकाशित हुआ। उनके कहानी संग्रहों में भस्मावृत्त चिंगारी, धर्मयुद्ध, मिस्टेक ऑफ ट्रूथफुलनेस, ज्ञानदान, भस्मावृत्त चिंगारी, कथासंग्रह शामिल हैं। उनकी कहानियाँ कथात्मक रस से भरपूर हैं। वर्ग संघर्ष, मनोविश्लेषण और तीखा व्यंग्य उनकी कहानियों की पहचान हैं। दिव्या, देशद्रोही, झूठा सच, दादा कॉमरेड, अमिता, मानुष के रूप, मेरी तेरी उसकी बात आदि उपन्यास लिखने के अलावा उन्होंने ‘सिंहावलोकन’ भी लिखा। ये कहानियाँ मानवीय महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की गहराई से पड़ताल करती हैं। उनके कहानी संग्रह ‘ज्ञानदान’ (1944) में मानवीय जिज्ञासा से प्राप्त ज्ञान की दृष्टि से रचित 13 कहानियाँ हैं।

उनके चिंतन, लेखन और कार्यप्रणाली में एक विशेष प्रकार की विरोधात्मक मौलिकता थी। ‘अभिशप्त’ कहानी संग्रह की दासधर्म, शंबूक और आदमी का बच्चा दलित वर्ग के मुद्दों पर आधारित थीं। उस समय उन्होंने पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहे अमेरिका के श्रमिक वर्ग पर 1946 में फोस्टर डलेस द्वारा लिखित महत्वपूर्ण पुस्तक ‘लेबर इन अमेरिका’ का हिंदी में अनुवाद ‘अमेरिका के मजदूर’ नाम से किया। उन्होंने कहानियों का एक संग्रह ‘उत्तम की मां’ लिखा, जिसमें लोगों की आस्थाओं, अंधविश्वासों और विश्वासों पर चर्चा की गई है। 1951 में उन्होंने तीन भागों में सिंहावलोकन नामक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी। 1951 से 1955 की अवधि में इसे लिखते समय उन्होंने अपने से अधिक अपने सहकर्मियों के बारे में अमूल्य जानकारी दी। उन्होंने क्रांतिकारियों के जीवन के उतार-चढ़ाव, कई रहस्य, सैद्धांतिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को उजागर किया। यशपाल भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के सक्रिय नेता थे। उन्होंने 1956 में अपना उपन्यास ‘अमिता’ पाठकों को समर्पित करते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू को उनकी राष्ट्रीय नीतियों के कुछ बिंदुओं पर असहमति के बावजूद विश्व शांति के लिए उनके ईमानदार प्रयासों के लिए धन्यवाद दिया। उन लोगों को लक्ष्य करके जो वर्तमान की वास्तविकता को भूल जाते हैं और अतीत में खोए रहते हैं, उनपर उन्होंने कहानी संग्रह ‘ओ भैरवी’, 1962 और 64 के बीच ‘आदमी और खच्चर’ किताब आई। व्यक्तिगत एवं पारिवारिक मुद्दों की सामाजिक दृष्टि से समीक्षा करती ‘जग का मुजरा’ प्रकाशित हुई जो सामाजिक दृष्टिकोण से व्यक्तिगत और पारिवारिक मुद्दों की समीक्षा करती है। उन्होंने अस्कद मुख्तार के सामाजिक उपन्यास ‘जुलेखा’ का उर्दू से हिंदी में अनुवाद किया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की पृष्ठभूमि पर 1974 में लिखे गए अपने अनुभवों पर लिखे उपन्यास ‘जो देखा सोचा समझा’, ‘तेरी मेरी उसकी बात’ में उन्होंने यह रेखांकित किया है कि क्रांति का उद्देश्य सिर्फ शासक बदलना नहीं है, बल्कि समाज और उसके दृष्टिकोण में आमूलचूल परिवर्तन क्रांति का मकसद है।

1951-52 के आसपास सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले कम्युनिस्टों को गिरफ्तार कर लिया गया। यशपाल को भी जेल में डाल दिया गया। यशपाल की पत्नी ने तब संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत से मुलाकात की और गिरफ्तारी का कारण पूछा – यशपाल को क्यों गिरफ्तार किया गया। वे तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी नहीं हैं। तब पंत ने कहा, “वह कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं हैं तो क्या हुआ, उन्हें इसलिए गिरफ्तार किया गया क्योंकि वो लिख कर लोगों को कम्युनिस्ट बनाते और पार्टी में भर्ती करते हैं”। यशपाल को जीवन के अंत तक विरोध का सामना करना पड़ा। यशपाल ने इन विरोधों और संघर्षों का पूरी निडरता से सामना किया। उन्होंने आजादी के बाद देश में बढ़ती असमानता और सरकार की नीतियों पर एक राजनीतिक पुस्तक ‘राम राज्य की कथा’ लिखी।

1962 में लिखा गया ‘बारह घंटे’ विधवा विनी और विधुर फैंटम के पारंपरिक भावनात्मक रिश्ते की कहानी है। जो दोनों को विशिष्ट स्थिति में लाकर सामाजिक पाखंड को चुनौती देता है। जहाँ वे प्रेम या वैवाहिक निष्ठा बनाए रखने में असमर्थता के लिए विनी को कलंकित करने वाले समाज से उसके व्यवहार को न केवल पारंपरिक मान्यताओं और मूल्यों की समस्या के रूप में, बल्कि पुरुषों और महिलाओं के व्यक्तिगत जीवन की आवश्यकता और पूर्ति के रूप में देखने का साहसिक आग्रह करते हैं। वे प्रेम को एक प्राकृतिक अनिवार्यता के रूप में देखते हैं जो मनुष्यों में विद्यमान है। वे सवाल करते हैं कि क्या एक पुरुष और एक महिला के बीच आपसी आकर्षण या वैवाहिक संबंधों को महज एक सामाजिक दायित्व के रूप में देखा जाना चाहिए। यशपाल का उपन्यास एक विचारोत्तेजक उपन्यास है जो उस आर्य समाज की वर्जनाओं और दृष्टिकोणों की तार्किक आलोचना करता है, जिसमें वो बड़े हुए।

यशपाल विनम्र और हँसमुख थे। उन्हें गपशप और अच्छा संचार पसंद था। घर का माहौल बहुत गर्मजोशी भरा और साफ-सुथरा था. यशपालजी कभी-कभी बहुत विनोदी मुद्रा में कहा करते थे- हमें कोई भी धार्मिक मत स्वीकार नहीं है। इसलिए हमें नहीं पता कि हमारी जाति और धर्म क्या है? हाँ, लेकिन जब भी मेरी आर्यसमाजी माँ मुझसे कहती है – यश, तुम आर्य रक्त के हो, तो मैं अवश्य सोचता हूँ – क्या मेरी रगों में बह रहा रक्त मेरा नहीं है, और मैं अपने आप पर हँसता हूँ’।

एक बार उनसे उनके एक सहयोगी यशपाल जी ने पूछा, आप तो तार्किक और प्रगतिशील विचारों के लेखक हैं, फिर आपने यह मुनाफा कमाने वाला प्रकाशन गृह क्यों शुरू किया?” उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, ”आज की शिक्षा भी मुनाफा केंद्रित है, तो फिर आप प्रगतिशील होते हुए ऐसी शिक्षा क्यों लेते हैं? मुझे किसी भी प्रकार का हो, शोषण स्वीकार नहीं है, चाहे वह राजनीतिक हो, सामाजिक हो, या धार्मिक हो। यदि मैंने अपने विचार की स्वतंत्रता के लिए कुछ कमाया है, तो आप उसे हेय दृष्टि से क्यों देखते हैं? स्वतंत्रता मांगी नहीं जाती… आपकी आज़ादी हमेशा अर्जित की जाती है – चाहे आर्थिक हो, सामाजिक हो या वैचारिक, कोई आपको आज़ादी देने नहीं आता, आपको आज़ादी लेनी पड़ती है, यह सुविधा की बात है, लेखक भूख से मरते हैं, पागलपन से – आप इस रूमानियत का शिकार आप क्यों हैं, अगर मैंने गलत लिखकर सुविधाएं एकत्र की हैं तो मुझे बेवकूफ कहो। मेरे उपन्यासों और कहानियों को नष्ट कर दो”।

फिर दूसरा प्रश्न आया – ‘आपने ‘परिवार नियोजन’ पर एक लंबी कहानी लिखी, जो ‘सारिका’ में प्रकाशित हुई। आपको इस प्रकार के प्रचारात्मक लेखन करने में आपको तकलीफ नहीं होती? यशपाल कहते हैं – ‘मैं यह कहकर इस कहानी का बचाव नहीं करूंगा कि अंततः साहित्य का हर टुकड़ा प्रचार है, लेकिन मैं यह जरूर कहूंगा कि यदि आपका लेखन विकल्पों पर आत्मनिरीक्षण नहीं करता है और समाज की गंभीर स्थितियों को उजागर नहीं करता है। यदि आपका लेखन विकल्पों पर आत्ममंथन नहीं करता और समाज की भयावह स्थिति को उजागर नहीं करता। यदि किसी को चेतावनी नहीं दी जाती। तो मानव मानस का मनोरंजन केवल सुंदरता पैदा करके किया जा सकता है। जिस साहित्य का उद्देश्य नहीं होता वो जड़ होता है। यदि हम इस गर्व पर भरोसा करते हैं कि हमारी संस्कृति में वह सब कुछ है जो हमें चाहिए और नए विचारों और जीवन के नए तरीकों से दूर रहते हैं, तो यह गर्व हमें अतीत में वापस ले जा सकता है। ये हमारा भविष्य निर्धारित नहीं कर सकता। मैं मनोरंजन के लिए नहीं लिखता।”

यशपाल का उपन्यास ‘झूठा-सच’ विभाजन के दौरान देश में हुए भयानक रक्तपात और अराजकता के व्यापक फलक पर सच और झूठ की रंगीन तस्वीर पेश करता है। यह विभाजन-पूर्व पंजाब और विभाजन-पश्चात भारत में दो परिवारों के जीवन में आए उतार-चढ़ाव की एक मार्मिक कहानी है। इसके दो भाग हैं- मातृभूमि और देश तथा देश का भविष्य। पहले भाग में विभाजन के कारण लोगों ने अपनी मातृभूमि खो दी और दूसरे भाग में कई समस्याओं के समाधान को दर्शाया गया है। देश के समसामयिक माहौल को यथासंभव ऐतिहासिक रखा गया है। विभिन्न समस्याओं के साथ-साथ इस उपन्यास में स्थापित नये नैतिक मूल्य पारंपरिक सोच को करारा झटका देते हैं। यशपाल की सर्वश्रेष्ठ रचना और सबसे महत्वपूर्ण हिंदी उपन्यासों में से एक, “झूठा सच” (1958 और 1960) की तुलना टॉल्स्टॉय के “वॉर एंड पीस” से की गई है। विश्व की अग्रणी पत्रिका अमेरिका की “न्यू यॉर्कर” ने इस पुस्तक को “…शायद भारत के बारे में सबसे महान उपन्यास” कहा। आलोचकों ने हिंदू और मुस्लिम दोनों दृष्टिकोणों के संतुलित चित्रण के लिए इसकी सराहना की, जबकि पाठकों ने इसे सामाजिक-राजनीतिक स्थिति के अंतरंग और सूक्ष्म चित्रण और स्वतंत्रता के बाद महत्वाकांक्षी लेकिन निराश्रित कांग्रेस नेताओं के निर्मम चित्रण के लिए यादगार पाया।

यशपाल को राष्ट्रीय सम्मान के लिए नामांकित किए जाने के एक दशक बाद, उपन्यास में कांग्रेस सरकार की आलोचना फिर से शुरू हुई। कहा जाता है कि खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘कांग्रेस सरकार’ से जुड़े पन्नों को पढ़ा तो उन्हें उनमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। अंततः सरकार और सत्ता विरोधी यशपाल को 1970 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। उनकी साहित्यिक सेवा और प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें सोवियत भूमि सूचना विभाग द्वारा ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ (1970), हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा ‘मंगला प्रसाद पुरस्कार’ (1971) से सम्मानित किया गया। 1960 में “झूठा सच” की उपेक्षा की गलती की भरपाई के लिए साहित्य अकादमी ने 1976 में यशपाल के अंतिम उपन्यास के लिए ‘मेरी तेरी उसकी बात’ पुरस्कार की घोषणा की। यशपाल को अपने 73 वर्ष के संघर्षपूर्ण जीवन के अंतिम दो दशकों में पूरी पहचान मिली। श्रेष्ठ कथाकारों में उनका सम्मान था।

यशपाल की मृत्यु 26 दिसंबर 1976 को वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुई। उस समय वे क्रांतिकारी आंदोलन की स्मृतियों पर लिखी अपनी पुस्तक ‘सिंहावलोकन’ के चौथे भाग पर काम कर रहे थे। उनके निधन से एक आधुनिक मार्क्सवादी, एक बेहद जागरूक लेखक चला गया, जिसे हिंदी ने उन कठिन दिनों में तैयार किया था। वह एकमात्र ऐसे लेखक थे जिन्होंने हर जगह व्यक्तिवाद और अलगाव की लहर के कठिन समय में कलम उठाई थी। ‘विप्लव’ के लेखक एवं संपादक के रूप में यशपाल के रूप में हिंदी साहित्य को सामाजिक एवं राजनीतिक सुधारों का एक प्रबल समर्थक मिला। चूंकि महिलाओं के प्रति उनका दृष्टिकोण प्रगतिशील और आधुनिक था, इसलिए उनकी कहानियों में महिला पात्रों को स्थिति से लड़ते हुए और उससे बाहर निकलने का रास्ता बनाते हुए दिखाया गया। उन्हें वंचित, दलित और वंचित वर्गों के समर्थक के रूप में जाना जाता था। अपने लेखन की शुरुआत से ही उन्होंने भारतीय समाज के पुरातनपंथी और कठोर विचारों के खिलाफ कड़ा संघर्ष किया। उन्होंने सभी धर्मों की पारंपरिक और प्राचीन प्रथाओं की कड़ी आलोचना की। उनकी टिप्पणी के लिए उन्हें जान से मारने की धमकी भी दी गई थी। महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी के विचारों और कार्यक्रमों की निरर्थकता को देखते हुए यशपाल उनके साहित्य और चिंतन पर मार्क्सवाद के प्रभाव को स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं।

यशपाल के पिता का एक मकान हमीरपुर के भोरंज उपमंडल के टिक्कर खत्रियां में था। आज स्थिति यह है कि उनके राजस्व रिकार्ड में कई वर्षों से यहां निवास न करने की लाल रेखा अंकित है। बताया जाता है कि उनकी जमीन पर किसी और ने कब्जा कर लिया है. यशपाल को हिमाचली बताते हुए राज्य स्तरीय कार्यक्रम आयोजित करने वाली प्रदेश सरकार को आज उनके घर का सही पता नहीं है। यह देश के लिए लड़ने वाले क्रांतिकारियों के प्रति उदासीनता का उदाहरण है.

यशपाल राजनीतिक और साहित्यिक दोनों क्षेत्रों में क्रांतिकारी थे। उनके लिए राजनीति और साहित्य एक ही लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन और सहायक दोनों थे। कहानियाँ, उपन्यास, सामाजिक-राजनीतिक निबंध, एकांकी नाटक, यात्रा वृतांत और क्रांतिकारी जीवन के संस्मरणों सहित यशपाल की 60 पुस्तकों का हिंदी साहित्य और राजनीतिक चिंतन पर गहरा प्रभाव पड़ा। यशपाल की क्रांतिकारी और सामाजिक रूप से जागरूक रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन और स्वतंत्रता के बाद के भारत की स्थिति पर जो लिखा वह एक दस्तावेज़ और वैचारिक सामग्री के रूप में महत्वपूर्ण है।

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