‘गैंग ऑफ वासेपुर’, ‘मसान’ और ‘फुकरे’ जैसी फिल्मों में अपने अभिनय से छाप छोड़ चुकीं ऋचा चड्ढा मानती हैं कि देश में महिला सशक्तिकरण की बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री में अभी भी महिलाओं और पुरुषों के बीच संतुलन बिगड़ा हुआ है. खुद को लंबी रेस का घोड़ा मानने वाली ऋचा कहती हैं कि इंडस्ट्री में अच्छे लेखकों और निर्माताओं की कमी है, जिस वजह से अच्छी फिल्में नहीं बन पा रही हैं.
फुकरे की भोली पंजाबन दो टूक कहती हैं कि वह कोई भी फिल्म साइन करने से पहले फिल्म की पटकथा और अपने किरदार को तवज्जो देती हैं, लेकिन फिल्म का निर्माता कौन है, आजकल यह भी उनके लिए मायने रखने लगा है. इसकी वजह पूछने पर ऋचा कहती हैं, “फिल्म के निर्माता पर ही निर्भर करता है कि वह फिल्म का प्रचार किस तरीके से करता है. निर्माता में इतना दम होना चाहिए कि वह अच्छे से फिल्म रिलीज करा सके.”
फिल्मों में तेज-तर्रार और बोल्ड किरदारों का पर्याय बन चुकीं ऋचा ने आईएएनएस के साथ बातचीत में कहा, “लोग चाहते हैं कि वे जल्दी से किसी पर भी लेबल लगा दें कि फलां आदमी ऐसा है, फलां वैसा है, ताकि उनके समझने के लिए आसान हो जाए, लेकिन असल में कोई भी शख्स फिल्म में अपने किरदारों जैसा नहीं होता. मैं खुद को बोल्ड नहीं ईमानदार मानती हूं.”
वह कहती हैं, “निर्माता सिर्फ वही नहीं होता, जो फिल्म में पैसा लगाए, बल्कि निर्माता पर पैसा लाने की भी जिम्मेदारी होती है, जो फिल्म को बेहतर तरीके से प्रमोट करे उसे ठीक से रिलीज करा पाए. बहुत तकलीफ होती है जब आप मेहनत करते हैं और निर्माता में अच्छे से फिल्मों को रिलीज करने की हिम्मत या दिमाग नहीं होता. उनमें दिमाग होना भी जरूरी है.”
ऋचा ने अपने करियर की शुरुआत दरअसल 2008 में की थी, लेकिन वह 2012 की ‘गैंग ऑफ वासेपुर’ को अपने करियर की असल शुरुआत मानती हैं. इसके पीछे का तर्क समझाते हुए ऋचा कहती हैं, “मैं 2012 की फिल्म ‘गैंग ऑफ वासेपुर’ को अपनी असल शुरुआत मानती हूं. क्योंकि उसी के बाद मैंने मुंबई शिफ्ट होकर फिल्मों में काम करने का मन बनाया. 2012 से 2017 तक इन पांच सालों में काफी काम किया है. हर तरह के किरदारों को जीया है. अबतक के करियर से खुश हूं, लेकिन मैं लंबी रेस का घोड़ा हूं तो जानती हूं कि आगे भी बेहतरीन किरदार मिलेंगे. मैं ड्रीम रोल का इंतजार करने वालों में से नहीं हूं, बल्कि मेरी कोशिश रहती है कि ऐसा क्या करूं कि उस किरदार को ड्रीम रोल बना दूं.”
संजय लीला भंसाली की फिल्म रामलीला में काम कर चुकीं ऋचा भंसाली को उन चुनिंदा फिल्मकारों में रखती हैं, जिनका काम अलग दिखता है. वह कहती हैं, “भंसाली बेहतरीन फिल्मकार हैं. वह अपनी तरह के फिल्मकार हैं, जिनका काम अलग दिखता है. उनकी शैली और कहानियां हटकर होती हैं. भंसाली और विशाल भारद्वाज उसी जमात के फिल्मकार हैं. मेरी तरह हर कलाकार की इच्छा होती है कि वह अपने करियर में कम से कम एक बार इन दिग्गजों के साथ काम करें.”
महिला सशक्तिकरण के बड़े-बड़े बोलों पर चुटकी लेते हुए ऋचा कहती हैं, “महिलाओं के लिए कोई स्वर्णिम युग नहीं है. आप देखिए, इंडस्ट्री में पुरुष और महिला कलाकारों के बीच अभी भी संतुलन नहीं है. महिलाओं को अच्छे किरदारों की जरूरत है. ‘मदर इंडिया’ और ‘बंदनी’ जैसी सशक्त महिला फिल्में पहले के दौर में भी बनी हैं, लेकिन बीच में जरूर एक दौर आया जब महिलाओं को शो-पीस बना दिया गया. लेकिन 2010 में डर्टी पिक्चर के बाद तस्वीर थोड़ी बदली और इसमें सुधार आया है, फिर भी भी बड़े बदलाव की जरूरत है.”
इस बदलाव के बारे में पूछने पर वह आगे कहती हैं, “हमारी फिल्म इंडस्ट्री की अपनी दिक्कतें हैं. यहां स्क्रीन कम हैं. एग्जिबिटर टैक्स 50 फीसदी है, जो सरासर गलत है. पुराने पड़ चुके नियमों में बदलाव की दरकार है. पटकथा लिखने के लिए अच्छे लेखकों की जरूरत है, क्योंकि लेखक सबसे पहले फिल्म को अपनी कल्पना में सोचता है और फिर निर्देशक अपनी प्रतिभा से उसे पर्दे पर जीवंत करता है.”
ऋचा विवादों और कंपटीशन के सवाल पर सधा-सा जवाब देती हैं, “विवाद बनाए जाते हैं. प्रेस को मसाला चाहिए, जिसके लिए बिना वजह विवाद खड़े किए जाते हैं. कुछ लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए विवाद खड़ा कर देते हैं, जो बेतुका है. रही बात कंपटीशन की तो मुझे यह समझ नहीं आता, क्योंकि हर किसी का चेहरा, शरीर, दिमाग, कला सब एक-दूसरे से अलग होता है तो कंपटीशन कैसा.”