हम’ बहुत शातिर किस्म के इंसान हैं. कुछ भी कर लें. नंगई दिल और दिमाग से जाती नहीं. अकेले में बैठकर कभी खुद से पूछना क्या हम कपड़ों से ढकी महिलाओं को भी घूर कर नहीं देखते? क्या हमारी आंखें उनके कपड़ों को किनारे फेंककर नंगे बदन को स्कैन नहीं कर लेती? क्या हमारी नज़र किसी भी महिला का जरा सा कपड़ा खिसक जाने पर उसे तीर की तरह अंदर तक नहीं भेद डालती? मजेदार बात तो ये है, ऐसे ही लोग महिलाओं के शुभचिंतक भी बन जाते हैं. और उनकी इज्जत करने का वास्ता देकर बवाल भी करने लगते हैं. फिल्म ‘न्यूड’ को लेकर भी ऐसा ही कुछ हुआ है, जिसका निर्देशन रवि जाधव ने किया है. ये वही रवि हैं जिन्होंने सेक्स-एजुकेशन मराठी फ़िल्म ‘बालक-पालक’बनाई है. जिनकी एक और मराठी फ़िल्म बालगंधर्व ने 2011 में तीन नेशनल फ़िल्म अवार्ड भी मिले थे.
लेकिन इस बार उनसे एक गलती हो गई. उन्होंने जिस्म और रूह पर बात कर दी. फिल्म बना दी ‘न्यूड’. लोग कहां समझ पाते? जिस्म तो समझ आता है, लेकिन रूह की बात?? उसकी बात करना तो बेमानी है. उसे किसने तराशा होगा? सो, फिल्म को गोवा अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में दिखाने की अनुमति नहीं मिली. इसके विरोध में फेस्टिवल के जूरी के प्रमुख सुजॉय घोष ने इस्तीफा दे दिया. लेकिन, सरकार अपने रूख पर कायम रही. फेस्टिवल में फिल्म नहीं दिखाई गई.
हमने फिल्म का ट्रेलर देखा, उसमें नसीरुद्दीन शाह का एक डॉयलाग है जिसमें वे बहुत प्यार से किसी को समझाते हुए कह रहे हैं. “बेटा! कपड़ा जिस्म में पहनाया जाता है, रूह में नहीं. और मैं अपने काम में रूह खोजने की कोशिश करता हूं.” नसीर जिसे ये बात समझा रहे हैं उसका चेहरा फ्रेम में दिखाई नहीं दे रहा है. वो आउट ऑफ़ फ्रेम है. बहरहाल, फिल्म का संदेश हमें इन दो पंक्तियों में ही मिल जाता है. लेकिन फिर भी फिल्म पर बवाल है. जिस्म की भाषा समझने वाले लोग रूह की बात नहीं समझ पाते. ये फिल्म विश्व भर की सभी नग्न मॉडलों को समर्पित है, जिन्होंने एक कलाकार को शिक्षित करने के लिए अपने शरीर और आत्मा से पर्दा उठाने की हिम्मत दिखाई. आप भी एक नज़र देखिए फिल्म का ट्रेलर
क्या होती है न्यूड पेंटिग? कितना जरूरी है मॉडल की नग्नता में रंग भरना?
न्यूड पेंटिग के बारे में ज्यादा जानकारी जुटाने के लिए हमने एक जाने-माने पेंटर और आर्टिस्ट शंकर ठाकुर से बात की. शंकर ने बताया, जिस चीज को आप जैसा देखने की कोशिश करते हैं वो वैसे ही दिखाई देती है. क्या एक मां को अपने बच्चे को दूध पिलाते देख मन में कोई बुरा ख्याल आ सकता है. नहीं ना. वैसे ही किसी भी आर्टिस्ट के लिए कला एक कविता की तरह होती है जिसकी लकीरे वो दिल से खींचता है और दिल से की गई कलाकारी कभी गलत नहीं होती.
शंकर ने बताया, न्यूड पेंटिंग कला के विद्यार्थियों को एटोनॉमी विषय के अंतर्गत पढ़ाई जाती है. इसमें स्टूडेंट्स को न्यूड, सेमी न्यूड और कपड़े पहने मॉडल को कैनवास पर उतारना होता है. ऐसा करना इसलिए सिखाया जाता है ताकि वो मानव आकार समझ सके. उसकी बनावट और रिदम को समझ सके. अगर आर्टिस्ट शरीर की बनावट नहीं समझेगा तो मूर्ती कैसे बना सकेगा. मॉडल न्यूड हो या कपड़ों में, आर्टिस्ट के लिए महज एक आब्जेक्ट है. उसी तरह जैसे सामने कोई चीज़ रखी हो और उसका उसे चित्रांकन करना हो. प्रसव के समय छटपटाती स्त्री को कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका डॉक्टर मेल है या फीमेल. इस अर्द्धनग्न अवस्था में उसे तमाम लोग देखते हैं. लेकिन उसमें तो कहीं अश्लीलता नहीं मानी जाती क्योंकी सबको पता है उसका नग्न होना किसी नये सृजन के लिए होता है.
न्यूड पेंटिग की उद्देश्य सिर्फ शरीर की बनावट और उसकी सुंदरता को समझना है, इससे ज्यादा कुछ नहीं…और न्यूड शब्द सुनते ही हमारे सामने सिर्फ लड़की का शरीर ही क्यों आ जाता है. वो एक आदमी भी हो सकता है. बूढ़ा भी. हम हर चीज को अपने नजरिए से देखते हैं. हमें एक ही सोच में ढाला गया है, कभी दूसरे नजरिए से चीजों को नहीं दिखाया गया. शंकर ने कहा, देश में जो रेप और छेड़छाड़ के मामले होते हैं. वो तो अच्छे खासे कपड़े पहने हुई होती हैं. फिर भी रेप हो जाता है. उसके लिए आप क्या लॉजिक देंगे. एक कलाकार के लिए न्यूड पेंटिग का मतलब सिर्फ और सिर्फ अपने कैनवस पर बनावट की लकीरों को खींचना होता है न दुर्भाव से किसी के शरीर को देखना.
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