कनक तिवारी
सड़क के बीचों बीच हरी दूब पर कुत्तों ने चक्रव्यूह बना लिया है। बीच में अभिमन्यु नहीं दिख रहा। कुत्ते आगे-पीछे लपक रहे। किसी अदृश्य के जबावी हमले से बचते अपनी ‘पोज़ीशन‘ ले रहे हैं। अजीब खेल है! कुत्ते दबी ज़बान में गुर्रा गुर्राकर दोनों सड़कों के बीच सुरक्षित जगह में गोल गोल घूम उछल रहे हैं।
पैडल पर दबिश देता चलती साइकिल का हैंडिल सम्हालता सोच रहा हूं। किसी कुत्ते को दाएँ पैर से ज़ोरदार लात लगाऊँगा और साफ बच निकलूँगा। स्कूल-काॅलेज के ज़माने में फुटबाॅल का भी खिलाड़ी रहा हूँ। मुझे काट नहीं लें। इसलिए दोनों पैर साइकिल की सीट के समानान्तर उठा लूँगा।
नियाॅन लाइट की दूधिया चाँदनी में कुत्तों के एकदम करीब पहुँचता हूँ। सहसा रोशनी में नहाती-चुँधियाती काली रेखा बिजली सी कौंध मारती है। गहरे काले रंग को अपनी चमक, पहचान और आत्मा देता हुआ भुजंग अपनी दुम पर लम्बवत् खड़ा हुआ कालक्रोध की मुद्रा में है। इतना चपल कि चारों दिशाओं से हमलातुर कुत्तों को महज अपनी फुफकार से जकड़े हुए है। इतना गहरा काला रंग कलर बाॅक्स में भी नहीं देखा।
यादों की खुर्दबीन से इसका संसार याद करता हूँ। चटक काले रंग के श्रृंगार से सजी इसकी प्रेयसी, भागती-कूदती चंचल नागिन को तलवार से काट दिया था आज़ाद हिन्द फौज के एक रिटायर्ड सैनिक ने ठीक मेरे घर के पीछे। अभी पिछले सप्ताह। उसे बर्मा के जंगलों में जोखिम में रहने का दम्भ था। इसी की वह दामिनी दिन की रोशनी में ही टुकड़े-टुकड़े कर दी थी। यह विरही श्यामल अपने एकांत की फुफकार लिए वही तलवार ढूँढ रहा है जिससे वह हत्यारे की हिंसा को सबक सिखा सके। संकल्प के विषाद क्षणों में कुत्तों का दखल अवांछित है। इसके मामले में टाँग अड़ाने की श्वानवृत्ति के खिलाफ एक न एक कुत्ते को लात ज़रूर मारूँगा। सामने अँधियारे में सफेद रंग ही चमक रहा है। सफेद कुत्ता ही लात खाएगा। अँधेरे, भुजंग और मेरे सोच में गहरा एका है।
वह पेड़ के तने की तरह सीधा खड़ा हो गया है। फुनगी पर फन है। लपलपाती जीभ निकालता जिधर फुफकारता है। हमलावर पीछे हट जाते हैं। वे कुत्ते हैं। पिटने पर भी प्रतिघात की जुगत बिठाते हैं। वह जिस कुत्ते को चाहे सज़ा-ए-मौत दे सकता है, लेकिन अभी जल्दी में नहीं है। श्वान-चेहरे भय के रंगों से पुते हुए हैं। हर रंग के कुत्ते महफिल में हैं- सफेद, काले, भूरे, मटमैले, चितकबरे। मूढ़ आत्मविश्वास लिए टांग अड़ाना उनकी फितरत है।
चक्रव्यूह के करीब आ गया हूँं। इतने कम क्षणों में मैंने सब देख-समझ लिया! क्षण समय का कितना बड़ा आयाम है! काल किसी जीवन का पूर्ण विराम बनने हरी घास पर नथुने फुला रहा है। मैं नागपाश में बँधता जा रहा हूँ। मुझमें भय का नीला ज़हर नियाॅन ट्यूब की रोशनी बनकर झर रहा है। दिमाग की नसों में लकवा लग रहा है। सुन्न पड़े दिमाग के बावजूद दिल से साफ सुनाई पड़ रहा है कि धड़क रहा है। दिल नहीं होता, तो आज कुत्तों की मौत मारा गया होता!
मस्तिष्क और उसके ज्येष्ठ पुत्र विवेक ने पहली बार पूरी तौर पर धोखा दिया है। अभी भी काल चेतावनी बिखेर रहा है। अपने दाँत जबड़े की मुट्ठियों में भींच रहा हूँ। फाँसीयाफ्ता कैदी बना काले कपड़े पहने जल्लाद के सामने गों गों कर रहा हूँ। जल्लाद के चेहरे पर मेरे लिए निरपेक्षता है। कुत्तों के प्रति नफ़रत की उसकी तीखी निगाहें हैं।
नफ़रत और निरपेक्षता में मुझे निरपेक्षता ज़्यादा भय का कारण नज़र आ रही है। उसकी लावा उग़लती आँखों में करुणा की हल्की आभा उसकी मणि की तरह झिलमिला रही है। मैं उसके सम्मोहन के दायरे में आता जा रहा हूँं। क्या यही मेरा यम है? मैं लेकिन अपने भय से मुक्त हो रहा हूँ। अचानक भय मुझे मुक्त करने का झांसा देकर सरपट दौड़कर हलक में ठुँस गया है। मैं मितली करने लगता हूँ। पनीली, पीली-पीली सी अम्लतिक्त प्रकृति की गंध की फुफकार छोड़ती हुई। इसके विष में भी तो ऐसा ही रंगायन है।
मेरी आँखें गुरू के फन पर हैं। शेषनाग के मिथक का यह ‘मिनिएचर एडीशन‘ है क्या? किवदंतियों का नाग शेष है, लेकिन यह नाग अशेष नहीं है। लेकिन आज़ाद हिन्द फौज का अदना पूर्व सैनिक जनमेजय भी नहीं है। वह इस दम्पत्ति के पीछे क्यों पड़ा है? वह वंश, दंश, वृत्ति, विष इसकी संरचना से कहाँ काट सकता है? फिर फ़कत देह के पीछे क्यों पड़ा है? इसका ज़हर मेरे स्वभाव में चढ़ रहा है। मैं अपना स्वभाव इस पर वार रहा हूँ। भयमुक्त मन अभय का आगार हो रहा है।
लगता है अब रस्सी की तरह मुझे बाँध लेगा। लेकिन मुझसे ऐंठन का बल कैसे निकालेगा? यह तो नाग है, नाग ही रहेगा। मैं अपने को मनुष्य समझता था, लेकिन अब अपने नाग होने का शेष रह गया हूँ। कितना काल मेरे हिस्से बचा है, यही उद्दाम तय करेगा। नागनर्तन का यही रहस्य है। यह अब तांडव कर रहा है। मैं उसे निर्विकार देख रहा हूँ। वह लिज़लिज़ा नहीं है। तलवार तो इसकी देह में है। मुझमें सिहरन, घबराहट, आत्मचिन्ता कुछ भी नहीं दिख रही। इससे एकात्म होने की कोई जुगुप्सा अन्दर ही कुलबुला रही है। मृत्यु की लगभग सम्भावना मृत्युबोध की कायरता पर थू थू कर रही है।
कुत्तों की लार बह चली है। पीले मटमैले विष के रंग से तमाशबीन कुत्ते कितने बेखबर हैं! विष के मामले में कुत्ते नहीं, मनुष्य और नाग का साँझा चूल्हा है। लेकिन काटने के मामले में इसकी कुत्तों से साझीदारी है। इन दोनों का काटा पानी नहीं पीता। क्षण कितना विस्तारित हो रहा है! मेरी लपलपाती जीभ पर फ़ालिज गिर रही है। आज हाड़ मांस के उस्ताद से पाला पड़ा है। दिमाग, ज़ुबान, भूतों को ठिकाने लगानेवाली लात, हाथों के करतब, लम्बी सीट पर बैठी नाड़ा-कटी नाभि, सब पर श्मशान वैराग्य की शांति की सफेद चादर लिपट रही है।
साइकिल पर पेडल मारता कब और कैसे घर तक पहुँचता हूँ, मुझे होश नहीं। मैं अपनी नागिन को अंक में ज़ोर से भींच लेता हूँ। वह समझ नहीं पाती कि हड्डियों को अचानक चटखाने की क्या ज़रूरत है। मैं उसके द्वारा अपने लौटा दिए गए जीवन के शेष काल का नाग ही तो बचा हूँ! जीवन पालने की सम्भावना की अपनी मणियाँ मैं अपनी नागिन की प्रतीति की झोली में भर-भर उलीचता हूँ। वक्त की तलवार में केवल देह को काट फंेंकने की क्षमता है। मेरा विष, मेरा दंश, मेरी फुफकार, मेरी देह केंचुल सब उस विरही के सामने कितनी घटिया कोटि के हैं! नाग-मुद्रा का कालजयी क्षण उसने मुझे भीख में दिया है।