नई दिल्लीः ‘मुझे कुछ समाचार पत्रों में छपी कुछ रिपोर्टों को पढ़कर दुख हुआ है। इन खबरों में डीएमके नेता श्री एन. के. स्टालिन का हवाला देते हुए आरोप लगाया गया है कि केंद्र सरकार हिंदी थोप रही है।
श्री स्टालिन का हवाला देते इन खबरों में कहा गया कि संसदीय समिति (राजभाषा) ने हिंदी जानने वाले संसद सदस्यों और केंद्रीय मंत्रियों के लिए भाषणों और लेखों में हिंदी के उपयोग को अनिवार्य बनाने का प्रस्ताव किया। खबरों में आगे आरोप लगाया गया है कि इस संबंध में अध्यादेश जारी किया गया है यानी सरकार हिंदी थोप रही है।
मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि पूर्व गृह मंत्री श्री पी. चिदम्बरम के नेतृत्व में राजभाषा पर संसदीय समिति ने निम्नलिखित सिफारिश की और सिफारिश को 2 जून, 2011 को माननीय राष्ट्रपति को भेजा गया : – ‘यह समिति हिंदी बोलने और पढ़ने वाले उच्च राजनीतिक पदों पर आसीन व्यक्तियों से अपने भाषण/ वक्तव्य हिंदी में देने का अनुरोध करती है। इस श्रेणी में माननीय राष्ट्रपति और सभी मंत्री आते हैं।
वर्तमान सरकार ने 31 मार्च, 2017 को इस सिफारिश को अधिसूचित किया।
यह दिखाता है कि राजभाषा पर संसदीय समिति के सुझाव का स्वभाव सिफारिशी है और अनिवार्य नहीं है। इस संबंध में अध्यादेश जारी करने का आरोप पूरी तरह निराधार और शरारतपूर्ण है।
याद रहे कि 2011 में डीएमके पार्टी भारत सरकार की सदस्य थी। उसी समय यह सिफारिश की गई और माननीय राष्ट्रपति को संसदीय समिति द्वारा सिफारिश भेजी गयी।
भारत सरकार का किसी भी व्यक्ति पर कोई भाषा थोपने की मंशा नहीं है’